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समराइच्चकहा
तेण वि य धम्मलाहो तस्स कओ मोक्खसोक्खलाहस्स। जो निरुवमसुहकारणमउचिंतामणीकप्पो ॥७१६॥ उवविससु त्ति य भणिओ गुरुणा चरणंतिए तओ तस्स। उवविट्ठो उ कुमारो विग्गहपरिवारपरियरिओ॥७१७॥ एत्यंतरम्मि सहसा गयणाओ दिव्वरूवसंपन्नो। तत्थागओ पहट्ठो जुइमं विज्जाहरकुमारो ॥७१८॥ अह वंदिऊण य गुरुं भणियमणेण भयवं महंत मे। कोड्डं कुह वुत्तंते कहिओ जो संपयं तुमए ॥ ७१६॥ कणगउरसामिणो तम्मि चेव नयरे दढप्पहारिस्स। मग्गपडिवत्तिमाई इहभवपज्जायपज्जंतो॥७२०॥ ओहेण मए एसो तन्नयरजणाउ(ण) विम्हयं दटुं। ते पुच्छिऊण नाओ तओ य अहमागओ इहयं ॥७२१॥
तेनापि च धर्मलाभस्तस्य कृतो मोक्षसौख्यलाभस्य । यो निरुपमसूखकारणमपूर्वचिन्तामणिकल्पः ॥७१६॥ उपविशेति च भणितो गरुणा चरणान्तिके ततस्तस्य । उपविष्टस्तु कुमारो विग्रहपरिवारपरिकरितः ॥७१७।। अत्रान्तरे सहसा गगनाद दिव्यरूपसंपन्नः । तत्रागतो प्रहृष्टो द्युतिमान विद्याधरकुमारः ॥७१८॥ अथ वन्दित्वा गरुं भणितमनेन भगवान ! महद मे। कुतूहलं तव वृत्तान्ते कथितो यः साम्प्रतं त्वया ॥७१६॥ कनकपुरस्वामिनस्तस्मिन्नेव नगरे दृढप्रहारिणः । मार्गप्रतिपत्त्यादिरिहभवपर्यायपर्यन्तः ।। ७२०।। । ओघेन मयैष तन्नगरजनाद् (नां) विस्मयं दृष्ट्वा । तान् पृष्ट्वा ज्ञातस्ततश्चाहमागत इह ॥७२१॥
आचार्य ने भी उसे धर्मलाभ दिया जो मोक्षसुखरूपी लाभ और अनुपम सुख का कारण अपूर्व चिन्तामणि रत्न के सदृश है। गुरु ने कहा- 'बैठो', तो विग्रह के परिवार से घिरा हुआ कुमार (गुरु के) चरणों के पास बैठ गया। इसी बीच आकाश से दिव्यरूप से सम्पन्न हर्षित द्युतिमान् विद्याधर कुमार वहाँ आया। अनन्तर गुरु की वन्दना कर इसने कहा- 'भगवन् ! आपके वृत्तान्त में मुझे बड़ा कौतूहल है, जो कि इस समय आपने कहा है। उसी नगर पर दृढ़ प्रहार करनेवाले कनकपुर के स्वामी के मार्गदर्शन से, इस भव की पर्यायपर्यन्त सम्पूर्ण रूप से उस नगर के लोगों के विस्मय को देखकर मैंने उनसे पूछा और उनसे जानकर मैं यहाँ आया हूँ। तो यदि
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