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[समराइच्चकहा
माणि त्ति उचिओ तुम पव्वज्जाए। ता लहुं संपाडेहि समीहियं । पहवइ मणोरहाचलवज्जासणी अणिच्चया। तओ कुमारेण भगिओ अमच्चो-अज्ज, सुयं तए भयवओ वयणमेयं । संपाडेमि अहमेयं किरियाए। हिचितओ य मे तुमं । ता अणुमन्नसु तुमं ति। अमच्चेण भणियं-अविग्धं देवस्स । कि तु विन्नवेमि देवं; अट्ठ दिवसाणि इमिणा चेव समुदाचारेण अणग्गहेउ मं देवो। तओ परिचत्तमेव मए सावज्ज । 'एसो वि चिरयालोवउत्तो सुही होउ' ति चितिऊण पडिस्सुयं कुमारेण । तओ दवावियममच्चेणाघोसणापुव्वयं महादाणं, कराविया अट्टाहिया महिमा, ठाविओ रज्जे कुमारपुत्तो अमरसेणो, अहिणंदियाओ पयाओ, सम्माणिया सामंता, निउत्ता महंतया। तओ पसत्थे तिहिकरणमहत्तजोए अणकूलेणं सउणसंघाएणं पवयणवण्णिएण विहिणा समं संतिमईए अमरगुरुपमहपहाणपरियणेण य पव्वइओ हरिसेणगुरुसमीवे कुमारो।
___ अइक्कतो कोइ कालो। अहिज्जियं सुत्तं, अवहारिओ तयत्थो, आसेविया किरिया। उचिओ जिणकप्पपडिवत्तीए त्ति अणुन्नविय गुरुयणं बहु मन्निओ तेण अहाविहीए पडिवन्नो जिणकप्पं ।
कहं
उचितस्त्वं प्रव्रज्यायाः । ततो लघु सम्पादय समोहितम् । प्रभवति मनोरथाचलवज्राशनिरनित्यता। ततः कुमारेण भणितोऽमात्यः-आर्य ! श्रुतं त्वया भगवतो वचनमेतद । सम्पादयाम्यहमेतां क्रियया । हितचिन्तकश्च मे त्वम्, ततोऽनुमन्यस्व त्वमिति । अमात्येन भणितम-अविघ्नं देवस्य, किन्तु विज्ञपयामि देवम्, अष्ट दिवसान्यनेन समुदाचारेणानुगृह्णातु मां देवः । ततः परित्यक्तमेव मया सावद्यम् । 'एषोऽपि चिरकालोपयुक्तः सुखी भवतु' इति चिन्तयित्वा प्रतिश्रुतं कुमारेण । ततो दापितममात्येनाघोषणापूर्वकं महादानम्, कारिताऽष्टाहिका महिमा, स्थापितो राज्ये कुमारपुत्रोऽमरसेनः, अभिनन्दिताः प्रजाः, सम्मानिताः सामन्ताः, नियुक्ता महान्तः । ततः प्रशस्ते तिथिकरणमुहर्तयोगेऽनुकलेन शकुनसङ्घातेन प्रवचनवर्णितेन विधिना समं शान्तिमत्या अमरगुरुप्रमुखप्रधानपरिजनेन च प्रबजितो हरिषेणगुरुसमीपे कुमारः।
__ अतिक्रान्तः कोऽपि कालः। अधोतं सूत्रम्, अवधारितस्तदर्थः, आसेविताः क्रियाः । उचितो जिनकल्पप्रतिपत्या इत्यनुज्ञाप्य गुरुजनं बहुमानितस्तेन यथा विधि प्रतिपन्नो जिनकल्पम् ।
कथम्
युक्त हो, अतः प्रव्रज्या के योग्य हो । अतएव इष्ट कार्य शीघ्र सम्पन्न करो। मनोरथरूपी पर्वत के लिए वज्र के तुल्य अनित्यता सामर्थ्यबाली है । अनन्तर कुमार ने मन्त्री से कहा-'आर्य! तुमने भगवान् से यह वचन सुना। मैं यह कार्य पूरा करता हूँ। तुम मेरे हितचिन्तक हो अतः तुम अनुमति दो।' मन्त्री ने कहा-'महाराज को कोई विघ्न नहीं है, किन्तु महाराज से निवेदन करता हूँ कि आठ दिन इस समीचीन आचरण के द्वारा मुझे अनुगृहीत करें। अनन्तर मैंने पाप छोड़ ही दिया । 'यह भी चिरकाल तक अच्छी तरह सुखी हो' --ऐसा सोचकर कुमार ने स्वीकृति दे दी । अनन्तर घोषणा कराकर मन्त्री के द्वारा महादान दिलवाया, अष्टाह्निक महोत्सव कराया, राज्य पर कुमार के पुत्र अमरसेन को बैठाया, प्रजाओं का अभिनन्दन किया, सामन्तों का सम्मान किया, बड़े पुरुषों को नियुक्त किया। अनन्तर प्रशस्त तिथि, करण और मुहूर्त के योग में अनुकूल शकुनों के साथ शास्त्रों में वर्णित विधि से शान्तिमती के साथ, अमरगुरु प्रमुख प्रधानपरिजनों के साय कुमार हरिषेण गुरु के पास प्रवजित हो गया।
कुछ समय बीता। सूत्र पढ़ा, उसके अर्थ को जाना, क्रियाओं का सेवन किया। 'जिनकल्प की प्राप्ति के योग्य हो' इस प्रकार गुरुजनों से आज्ञा लेकर उनसे सत्कृत हो, विधिपूर्वक जिनकल्प को प्राप्त हुआ। कैसे
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