Book Title: Sammadi Sambhavo
Author(s): Udaychandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 14
________________ सम्पन्नता की सूचना देता है। नग्न पैरों में कंकर-पत्थर आदि तो कमल बन जाते हैं, ऐसा होता नहीं, पर थोड़ा नंगे पैर चलकर देखें तो पता लग जाएगा कि साधना के शिखर पर आरूढ़ आत्माओं के आत्म-पुरुषों के लिए वे चुभते तो होंगे, पर कष्ट दाई नहीं बनते। कथानक : सजीव, सुगघित एवं घटनाओं से पूर्ण सौन्दर्य तो नहीं, पर पाठकों के हृदय में वैराग्य-भावना पैदा अवश्य करता है। चरित्र चित्रण : नायक ही नायक, नायिका नहीं, इसलिए ऐसा तो प्रतीत हो सकता है, कि यह क्या? पर जीवन का सत्यार्थ इनके चरित्र में है। नायक सर्वगुण सम्पन्न धीरता को लेकर चलने वाला है। इसे जिससे युद्ध करना है, वे सैनिक जीते-जागते प्राणी नहीं, वे तो हैं, हमारे ही शत्रु। तुमेव मित्तं तुमेव सत्तू शत्रु हमारे अपने आपमें हैं, उन्हें जीतने के लिए नायक संसार का सर्वस्व त्याग देता है। इससे बढ़कर क्या हो सकता है-अपनी सरकारी सेवा को छोड़कर आत्म-सेवा में लीन होने के लिए ब्रह्मचर्यव्रत, मुनिव्रत और सच्चे अर्थ में साधना के सर्वोत्तम मार्ग पर चलते हुए संघ का नायक, वो भी दो सौ पचास से अधिक साधुओं का। वे भी एक क्षेत्र के नहीं, अपितु विविध क्षेत्रों, विविध प्रान्तों के। वे भी अधिकांश वयोवृद्ध, ज्ञानवृद्ध। ऐसा नायक जो सभी परिस्थितियों में सहज भाव और आत्म संघर्ष से कर्म शत्रुओं को जीतने के लिए अनशन (उपवास) एकासन, सिंहनिष्क्रीडित तप, सर्वतोभद्र, एकावली, कनकावली, मासोपवास आदि से बाहर बाधाओं को परास्त करने में संलग्न थे। आत्मशोधन के लिए प्रायश्चित्त, विनय, वैय्यावृत्त, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान की उत्कृष्ट साधना से राग-द्वेषादि अन्तरंग शत्रुओं को जीतने के लिए खड़ा है। रसानुभूति : काव्य-महाकाव्य है, रसानुभूति के कई सोपान हैं, उनमें भावव्यंजना के साथ रस परिपाक वैराग्य संवर्धन ही करता है। अलौकिक-आध्यात्मिक तत्त्व : कवि ने प्रथम सन्मति से ही पन्द्रहवें सन्मति तक अलौकिक आध्यात्मिकता को ही विशेष महत्त्व दिया। प्रथम सन्मति में 108 पद्य ही अलौकिक एवं आध्यात्मिकता से परिपूर्ण हैं। इसमें प्रथम गुरु आदिप्रभु (तीर्थंकर आदिनाथ) को सन्मति इसलिए कहा, क्योंकि वे ही प्रथम सन्मति-उत्तम बुद्धि वाले थे, उन्होंने अपने पिताश्री नाभिराय-अन्तिम मनु के पश्चात् सामाजिक व्यवस्था, राजनैतिक व्यवस्था, आर्थिक संसाधन, शिल्प एवं नाना प्रकार की विद्याओं को जन-समूह तक पहुँचाया। उसमें भी अपनी प्रथम पाठशाला के प्रथम विद्यार्थी ब्राह्मी (अक्षरविज्ञान, विविध लिपियों) और सुन्दरी को (गणित विज्ञान के सभी पक्ष) समझाए। उन्होंने पुत्र-पुत्रियों में भेद नहीं किया, पुत्रों को जो ज्ञान दिया, वही बारह

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