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सागरमल जैन
SAMBODHI छेदसूत्रों को मानता है। जहाँ तक दिगम्बर और यापनीय परम्परा का प्रश्न है उनमें अंगबाह्य ग्रन्थों में कल्प, व्यवहार और निशीथ का उल्लेख मिलता है। यापनीय सम्प्रदाय के ग्रन्थों में न केवल इनका उल्लेख मिलता है, अपितु इनके अवतरण भी दिये गये हैं । आश्चर्य यह है कि वर्तमान में दिगम्बर परम्परा में प्रचलित मूलतः यापनीय परम्परा के प्रायश्चित सम्बन्धी ग्रन्थ "छेदपिण्डशास्त्र' में कल्प और व्यवहार के प्रामाण्य के साथ-साथ जीतकल्प का भी प्रामाण्य स्वीकार किया गया है। इस प्रकार दिगम्बर एवं यापनीय परम्पराओं में कल्प, व्यवहार, निशीथ और जीतकल्प की ही मान्यता रही है, यद्यपि वर्तमान में दिगम्बर आचार्य इन्हें मान्य नहीं करते हैं। १० प्रकीर्णक
इसके अन्तर्गत निम्न दस ग्रन्थ माने जाते हैं -
१. चउसरण (चतुःशरण), २. आउरपच्चक्खाण (आतुरप्रत्याख्यान), ३. भत्तपरिन्ना (भक्तपरिज्ञा), ४. संथारय (संस्तारक), ५. तंडुलवेयालिय (तंदुलवैचारिक), ६. चंदवेज्झय (चन्द्रवेध्यक), ७. देविन्दत्थय (देवेन्द्रस्तव), ८. गणिविज्जा (गणिविद्या), ९. महापच्चक्खाण (महाप्रत्याख्यान) और १०. वीरत्थय (वीरस्तव)
श्वेताम्बर सम्प्रदायों में स्थानकवासी और तेरापंथी इन प्रकीर्णकों को मान्य नहीं करते हैं । यद्यपि मेरी दृष्टि में इनमें उनकी परम्परा के विरुद्ध ऐसा कुछ भी नहीं है, जिससे इन्हें अमान्य किया जावे । इनमें से ९ प्रकीर्णकों का उल्लेख तो नन्दीसूत्र में मिल जाता है। अतः इन्हें अमान्य करने का कोई औचित्य नहीं है। हमने इनकी विस्तृत चर्चा आगम संस्थान, उदयपुर से प्रकाशित 'महापच्चक्खाण' की भूमिका में की है। जहाँ तक दस प्रकीर्णकों के नाम आदि का प्रश्न है, श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय के आचार्यों में भी किंचित मतभेद पाया जाता है। लगभग ९ नामों में तो एकरूपता है, किन्तु भक्तपरिज्ञा, मरणविधि
और वीरस्तव ये तीन नाम ऐसे हैं जो भिन्न-भिन्न रूप से आये हैं किसी ने भक्तपरिज्ञा को छोड़कर मरणविधि का उल्लेख किया है तो किसी ने उसके स्थान पर वीरस्तव का उल्लेख किया है । मुनि श्री पुण्यविजयजी ने 'पइण्णसुत्ताई' के प्रथम भाग की भूमिका में प्रकीर्णक नाम से अभिहित लगभग २२ ग्रन्थों का उल्लेख किया है। इनमें से अधिकांश महावीर विद्यालय से पइण्णसुत्ताइं नाम से दो भागों में प्रकाशित है। अंगविद्या का प्रकाशन प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी की ओर से हुआ है। ये बाईस निम्न हैं -
१. चतुःशरण, २. आतुरप्रत्याख्यान, ३. भक्तपरिज्ञा, ४. संस्तारक, ५. तंदुलवैचारिक, ६. चन्द्रवेध्यक, ७. देवेन्द्रस्तव, ८. गणिविद्या, ९. महाप्रत्याख्यान, १०. वीरस्तव, ११. ऋषिभाषित, १२. अजीवकल्प, १३. गच्छाचार, १४. मरणसमाधि, १५. तित्थोगालिय, १६. आराधनापताका, १७. द्वीपसागरप्रज्ञप्ति, १८. ज्योतिषकरण्डक, १९. अंगविद्या, २०. सिद्धप्राकृत, २१. सारावली और २२. जीवविभक्ति।
इसके अतिरिक्त एक ही नाम के अनेक प्रकीर्णक भी उपलब्ध होते हैं, यथा -
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