Book Title: Sambodhi 2013 Vol 36
Author(s): Jitendra B Shah
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 299
________________ Vol. XXXVI, 2013 'धम्म' एक मात्र तारणहार : पुस्तक की समीक्षा 291 धर्म है (अहिंसा परमोधर्मः), रत्नत्रय अर्थात् सम्यक्-श्रद्धा, सम्यक्-ज्ञान, सम्यक्-चारित्र धर्म है । जिससे निःश्रेयस की सिद्धि (उपलब्धि) और अभ्युदय हो वह धर्म है। जो प्रजा का धारण (रक्षण) करता है, वह धर्म है (धर्मो धारयते प्रजाः), समभाव में धर्म है आदि । जहाँ तक मेरी जानकारी है मुझे ऐसी एक भी ऐसी परिभाषा नहीं मिली जो यह कहती हो कि ईश्वर को सृष्टिकर्ता या नियन्ता मानना धर्म है। सदाचरण धर्म है - यह सभी भारतीय धर्मों की सामान्य मान्यता है । यदि प्रो. बन्दिस्ते ने धर्म को नैतिकता से अभिन्न माना है, तो उनकी वह मान्यता उचित है, और बुद्ध ऐसे धर्म के प्रवर्तक हैं । किन्तु उनका यह कहना भ्रान्त है, कि बद्ध ने किसी धर्म (Religion) का प्रवर्तन ही नहीं किया। उन्हें यह भी मानना होगा कि मात्र नैतिक आचरण, वह भी किसी भय या प्रलोभन वश या मात्र कर्तव्य-बुद्धि किया गया है - धर्म नहीं है। धर्म में भावना और आस्था का तत्त्व भी है। नैतिक मूल्यों के प्रति आस्था के अभाव में किया गया, नैतिक आचरण भी धर्म नहीं है। धर्म में सदाचरण के साथ आस्था और भाव प्रवलता आवश्यक है। बुद्ध ने प्रज्ञाशील और समाधि युक्त या, आष्टांगिक मार्ग रूप जिस धर्म का उपदेश दिया था, वह मात्र बौद्धिक नैतिकता (रेसनल मारलिटी) नहीं है। प्रो. बन्दिस्ते की पुस्तक "Dhamma only our saviour" का तृतीय अध्याय है – “How and why did the Buddha Reject God" अर्थ - भगवान बुद्ध ने ईश्वर का निषेध क्यों और कैसे किया ? भारतीय दर्शनशास्त्र का एक सामान्य विद्यार्थी भी यह जानता है, कि भगवान बुद्ध के काल तक एक भी ऐसा धर्म और दर्शन नहीं था कि जो ईश्वर को सृष्टिकर्ता मानता था । जब बुद्ध के सा दर्शन ही नहीं था तो फिर उन्हें उसका निषेध करने की क्या आवश्यकता थी। बुद्ध के समक्ष जो वैदिक एवं औपनिषदिक (प्राचीन उपनिषदों का) चिन्तन था, उसमें तथा सांख्य, योग, जैन, आजीविक आदि दर्शनों ने ईश्वर का जगत कर्तृत्व माना ही नहीं । यहाँ तक कि प्राचीन मीमांसक और वेदान्ती भी ईश्वर को जगतकर्ता एवं नियन्ता नहीं मानते थे । बुद्ध ने जगतकर्ता एवं नियन्ता ईश्वर का निरसन किया, यह मात्र काल्पनिक एवं परवर्ती अवधारणा है, यह बौद्धिक भी नहीं है। भारत में सर्वप्रथम न्याय-दर्शन में, जो भारतीय दर्शन जगत का सबसे छोटा शिशु है, और उसके प्रभाव से परवर्ती हिन्दू धर्म में यह अवधारणा विकसित हुई है । पश्चिम में ईश्वर कर्तृत्ववादी जो धर्म विकसित हुए हैं, वे बुद्ध से लगभग ६०० वर्ष बाद (ईसाई धर्म) और १२०० वर्ष बाद (इस्लाम) पैदा हुए हैं। ईश्वर कर्तृत्ववाद का इतिहास अधिक प्राचीन नहीं है । अत उनका यह अध्याय धर्म-दर्शन के इतिहास की अनभिज्ञता का ही सूचक है। प्रो. बन्दिस्ते जब यह लिखते है कि Denial of God implies freedom of man, तो वे सम्यक् कहे जा सकते हैं, किन्तु हमें यह भी विचार करने को विवश होना होगा कि यदि मनुष्य के समक्ष कोई आदर्श चरित्र (Ideal man of Morals) नहीं होगा, तो मानव चरित्र और मानवीय मूल्यों का विकास थम जायेगा - यह सत्य है कि भारतीय श्रमण धर्मों ने मनुष्य को ईश्वरीय दासता से मुक्त रखा, किन्तु उन्होंने बुद्ध, अर्हत् या तीर्थंकर के रूप में उच्च मानवीय मूल्यों की साकार प्रतिमाओं को उपस्थित कर एक अति मानवीय व्यक्तित्व को खड़ा भी किया है । प्रो. बन्दिस्ते का कथन उस सीमा तक उचित है कि बुद्ध ने मानव को अपनी सच्ची मानवता की शिक्षा दी, किन्तु उनके द्वारा बुद्ध का एक सामान्य मानव Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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