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सागरमल जैन
SAMBODHI
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व्यक्तित्व को भी ऊँचा उठाया गया है, वह न तो राम के वनवास की मांग करती है और न उनके स्थान पर भरत के राज्यारोहण की। वह अन्त में संन्यास ग्रहण कर मोक्षगामी बनती है न केवल यही, अपितु सीताहरण के प्रकरण में भी मृगचर्म हेतुं स्वर्णमृग मारने के सीता के आग्रह की घटना को भी स्थान न देक़र राम एवं सीता के चरित्र को निर्दोष और अहिंसामय बनाया गया है । रावण के चरित्र को उदात्त बनाने हेतु यह बताया गया है कि उसने किसी मुनि के समक्ष यह प्रतिज्ञा ले रखी थी कि में किसी परस्त्री उसकी स्वीकृति के बिना शील भंग नहीं करूँगा । इसलिये वह सीता को समझाकर सहमत करने का प्रयत्न करता रहता है, बलप्रयोग नहीं करता है । पउमचरियं मांस भक्षण के दोष दिखाकर सामिष भोजन से जन-मानस को विरत करना भी जैनधर्म की अहिंसा की मान्यता के प्रसार का ही एक प्रयत्न है । ग्रन्थ में वानरों एवं राक्षसों को विद्याधरवंश के मानव बताया गया है, साथ ही यह भी सिद्ध किया गया है कि वे कला-कौशल और तकनीक में साधारण मनुष्यों से बहुत बढ़े - चढ़े थे । वे पाद विहारी न होकर विमानों में विचरण करते थे । इस प्रकार इस ग्रन्थ में विमलसूरि ने अपने युग में प्रचलित रामकथा को अधिक युक्तिसंगत और धार्मिक बनाने का प्रयास किया है ।
विमलसूरि की रामकथा से अन्य जैनाचार्यों का वैभिन्य एवं समरुपता
विमलसूरि के पउमचरियं के पश्चात् जैन रामकथा का एकरूप संघदास गणि (छठी शताब्दी) की वसुदेवहिंडी में मिलता है । वसुदेवहिंडी की रामकथा कुछ कथा-प्रसंगों के संदर्भ में पउमचरियं की रामकथा के भिन्न है और वाल्मीकि रामायण के निकट है। इसकी विशेषता यह है कि इसमें सीता को रावण और मन्दोदरी की पुत्री बताया गया है, जिसे एक पेटी में बन्द कर जनक के उद्यान में गड़वा दिया गया था, जहाँ से हल चलाते समय जनक को उसकी प्राप्ति हुई थी । इस प्रकार यहाँ सीता की कथा को तर्कसंगत बनाते हुए भी उसका साम्य भूमि से उत्पन्न होने की धारणा के साथ जोड़ा गया है। इस प्रकार हम देखते है कि संघदासगण ने रामकथा को कुछ भिन्न रूप से प्रस्तुत किया है। जबकि अधिकांश श्वेताम्बर लेखकों
विमलसूर का ही अनुसरण किया है । मात्र यही नहीं यापनीय परम्परा में पद्मपुराण के रचियता रविसेन (७वीं शताब्दी) और अपभ्रंश पउमचरियं के रचयिता यापनीयस्वयम्भू (७वीं शती) ने भी विमलसूरि का ही पूरी तरह अनुकरण किया है । पद्मपुराण तो पउमचरियं का ही विकसित संस्कृत रूपान्तरण मात्र है 1 यद्यपि उन्होंने उसे अचेल परम्परा के अनुरूप ढालने का प्रयास किया है ।
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आठवीं शताब्दी में हरिभद्र ने अपने धूर्ताख्यान में और नवीं शताब्दी में शीलंकाचार्य ने अपने ग्रंथ ‘चउपन्नमहापुरिसचरियं' में अति संक्षेप में रामकथा को प्रस्तुत किया है । भद्रेश्वर (११वीं शताब्दी) की कहावली में भी रामकथा का संक्षिप्त विवरण उपलब्ध हैं। तीनों ही ग्रन्थकार कथा विवेचन में विमलसूरी की परम्परा का पालन करते हैं । इन तीनों के द्वारा प्रस्तुत रामकथा विमलसूरी से किस अर्थ में भिन्न है यह बता पाना इनके संक्षिप्त रूप के कारण कठिन है । यद्यपि भद्रेश्वरसूरि ने सीता के द्वारा सपत्नियों के आग्रह पर रावण के पैर का चित्र बनाने का उल्लेख किया। ये तीनों ही रचनाएँ प्राकृत भाषा में है। १२वीं शताब्दी में हेमचन्द्र ने अपने ग्रन्थ योगशास्त्र की स्वोपज्ञवृत्ति में तथा त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र में संस्कृत भाषा में रामकथा को प्रस्तुत किया है । त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र में वर्णित रामकथा का स्वतन्त्र रूप से
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