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Vol. XXXVI, 2013 प्राकृत आगम साहित्य : एक विमर्श
109 जहाँ तक प्रश्नव्याकरणदशा का प्रश्न है, इतना निश्चित है कि वर्तमान प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु न केवल स्थानांग में उल्लिखित विषय-वस्तु से भिन्न है, अपितु नन्दी और समवायांग की उल्लिखित विषय-वस्तु से भिन्न है। प्रश्नव्याकरण की वर्तमान आस्रव और संवर द्वारा वाली विषय-वस्तु का सर्वप्रथम निर्देश नन्दीचूणि में मिलता है। इससे यह फलित होता है कि वर्तमान प्रश्नव्याकरणसूत्र नन्दी के पश्चात ई. सन् की पांचवी-छठी शती के मध्य ही कभी निर्मित हुआ है। इतना तो निश्चित है कि नन्दी के रचयिता देववाचक के सामने यह ग्रन्थ अपने वर्तमान स्वरूप में नहीं था । किन्तु ज्ञाताधर्मकथा, अन्तदृद्दशा और अनुत्तरौपपातिकदशा में जो परिवर्तन हुए थे, वे नन्दीसूत्रकार के पूर्व हो चुके थे, क्योंकि वे उनके इस परिवर्तित स्वरूप का विवरण देते हैं । इस सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा मैंने अपने एक स्वतन्त्र लेख में की है जो आगम-साहित्य, सम्पादक डॉ. के. आर. चन्द्रा, अहमदाबाद में प्रकाशित है ।
इसी प्रकार जब हम उपांग साहित्य की ओर आते हैं तो उसमें रायपसेणिसुत्त में राजा पसेणीय द्वारा आत्मा के अस्तित्व के सम्बन्ध में जो प्रश्न उठाये गये हैं, उनका विवरण हमें पालित्रिपिटक में भी उपलब्ध होता है । इससे यह फलित होता है कि औपपातिक का यह अंश कम से कम पालित्रिपिटक जितना प्राचीन तो है ही । जीवाजीवाभिगम के रचनाकाल को निश्चित रूप से बता पाना तो कठिन है, किन्तु इसकी विषय-वस्तु के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि वह ग्रन्थ ई.पू. की रचना होनी चाहिए । उपांग साहित्य में प्रज्ञापनासूत्र को तो स्पष्टतः आर्य श्याम की रचना माना जाता है । आर्य श्याम का आचार्यकाल वी.नि.सं. ३३५-३७६ के मध्य माना जाता है। अतः इसका रचनाकाल ई.पू. द्वितीय शताब्दी के लगभग निश्चित होता है। - इसी प्रकार उपांग वर्ग के अन्तर्गत वर्णित चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति और जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-तीन प्रज्ञप्तियाँ भी प्राचीन ही हैं । वर्तमान में चन्द्रप्रज्ञप्ति और सूर्यप्रज्ञप्ति में कोई भेद नहीं दिखाई देता है। किन्तु सूर्यप्रज्ञप्ति में ज्योतिष सम्बन्धी जो चर्चा है, वह वेदांग ज्योतिष के समान है, इससे इसकी प्राचीनता स्पष्ट हो जाती है। यह ग्रन्थ किसी भी स्थिति में ई.पू. प्रथम शती से परवर्ती नहीं है । इन तीनों प्रज्ञप्तियों को दिगम्बर परम्परा में भी दृष्टिवाद के एक अंश-परिकर्म के अन्तर्गत माना जाता है । अतः यह ग्रन्थ भी दृष्टिवाद के पूर्ण विच्छेद एवं सम्प्रदाय-भेद के पूर्व का ही होना चाहिए । . छेदसूत्रों में दशाश्रुत, बहत्कल्प और व्यवहार को स्पष्टतः भद्रबाहु प्रथम की रचना माना गया है । अतः इसका काल ई.पू. चतुर्थ-तृतीय शताब्दी के बाद का भी नहीं हो सकता है। ये सभी ग्रन्थ अचेल परम्परा में भी मान्य रहे हैं । इसी प्रकार निशीथ भी अपने मूल रूप में तो आचारांग की ही एक चूला रहा है, बाद में उसे पृथक् किया गया है। अतः इसकी प्राचीनता में भी सन्देह नहीं किया जा सकता। याकोबी, शुबिंग आदि पाश्चात्य विद्वानों ने एकमत से छेदसूत्रों की प्राचीनता स्वीकार की है। इस वर्ग में मात्र जीतकल्प ही ऐसा ग्रन्थ है, जो निश्चित ही परवर्ती है । पं. दलसुखभाई मालवणिया के अनुसार यह आचार्य जिनभद्र की कति है। ये जिनभट विशेषावश्यकभाष्य के कर्ता हैं। इनका काल अनेक प्रमाणों से ई.सन् की सातवीं शती निश्चित है । अत: जीतकल्प का काल भी वही होना चाहिए । मेरी दृष्टि में पं. दलसुखभाई की यह मान्यता निरापद नहीं है, क्योंकि दिगम्बर परम्परा में इन्द्रनन्दि के छेदपिण्डशास्त्र
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