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Vol. XXXVI, 2013
प्राकृत आगम साहित्य : एक विमर्श
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में आज भी इनका अर्धमागधी स्वरुप उपलब्ध है, जिसे आधार मानकर प्रो. के. एम. चन्द्रा ने आचारांग के प्रथम अध्ययन का मूलपाठ निर्धारित किया है । वास्तविकता यह है कि श्वेताम्बर मान्य आगमों की जो विविध वाचनाएँ या सम्पादन समाएँ हुई उनमें भाषागत परिवर्तन आये हैं। प्रथम पाटलीपुत्र और द्वितीय खण्डगिरि की वाचना में चाहे इनका अर्धमागधी स्वरूप बना रहा हो, किन्तु माथुरी वाचना में इन पर शौरसेनी का प्रभाव आया, जिसके कुछ मूलपाठ आज भी भगवती आराधना की अपराजितसूरि की टीका में उपलब्ध है। किन्तु वल्लभी की वाचना में ये मूलपाठ महाराष्ट्री प्राकृत से बहुलता से प्रभावित हुए है। मात्र यही नहीं हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण को आधार मानकर जो भी हस्तलिखित एवं मुद्रित ग्रन्थों में इसके पाठ निर्धारित हुए वे महाराष्ट्री प्राकृत से प्रभावित है। फिर भी उनकी महाराष्ट्री भी अर्धमागधी
और शौरसेनी से प्रभावित है, अत: उसे विद्वानों ने जैन महाराष्ट्री प्राकृत कहा है। इसी प्रकार अचेल धारा की दिगम्बर और यापनीय परम्परा के आगम तुल्य ग्रन्थों की भाषा भी अर्धमागधी से प्रभावित होने के कारण जैन शौरसेनी कही जाती है । आगमों की विषय-वस्तु सरल है
आगम साहित्य की विषय-वस्तु मुख्यतः उपदेशपरक, आचारपरक एवं कथापरक है । भगवती के कुछ अंश, प्रज्ञापना, अनुयोगद्वार जो कि अपेक्षाकृत परवर्ती है, को छोड़कर उनमें प्रायः गहन दार्शनिक एवं सैद्धान्तिक चर्चाओं का अभाव है। विषय-प्रतिपादन सरल, सहज और सामान्य व्यक्ति के लिए भी बोधगम्य है। वह मुख्यतः विवरणात्मक एवं उपदेशात्मक हैं। इसके विपरीत शौरसेनी आगमों में आराधना
और मूलाचार को छोड़कर लगभग सभी ग्रन्थ दार्शनिक एवं सैद्धान्तिक चर्चा से युक्त है। वे परिपक्चदार्शनिक विचारों के परिचायक हैं । गुणस्थान और कर्मसिद्धान्त की वे गहराईयाँ, जो शौरसेनी आगमों में उपलब्ध है, अर्धमागधी आगमों में उनका प्रायः अभाव ही है। कुन्दकुन्द के समयसार के समान उनमें सैद्धान्तिक दृष्टि से अध्यात्मवाद के प्रतिस्थापन का भी कोई प्रयास परिलक्षित नहीं होता । यद्यपि ये सब उनकी कमी भी कही जा सकती है, किन्तु चिन्तन के विकास क्रम की दृष्टि से विचार करने पर स्पष्ट रूप से यह फलित होता है कि अर्धमागधी आगम साहित्य प्राथमिक स्तर का होने से प्राचीन भी है और साथ ही विकसित शौरसेनी आगमों के लिए आधर-भूत भी। समवायांग में जीवस्थानों के नाम से १४ गुणस्थानों का मात्र निर्देश है, जबकि षट्खण्डागम जैसा प्राचीन शौरसेनी आगम भी उनकी गम्भीरता से चर्चा करता है। मूलाचार, भगवती आराधना, कुन्दकुन्द के ग्रन्थ और गोम्मटसार आदि सभी में गुणस्थानों की विस्तृत चर्चा है । चूँकि तत्त्वार्थ में गुणस्थानों की चर्चा का एवं स्याद्वाद-सप्तभंगी का अभाव हैं, अतः वे सभी रचनाएँ तत्त्वार्थ के बाद की कृतियाँ मानी जा सकती हैं ।
आगम साहित्य की विशेषता (अ) तथ्यों का सहज संकलन
अर्धमागधी आगमों में तथ्यों का सहज संकलन किया गया है अतः अनेक स्थानों पर सैद्धान्तिक . दृष्टि से उनमें भिन्नताएँ भी पायी जाती है । वस्तुतः ये ग्रन्थ अकृत्रिम भाव से रचे गये हैं और उनके
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