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सुषमा कुलश्रेष्ठ शिशुपाल के शरीर से निकलकर तेज के श्रीकृष्ण के शरीर में प्रवेश का वर्णन है। सन्धियाँ
एक प्रयोजन में अन्वित कथाशों के अवान्तर सम्बन्ध को सन्धि कहते है। उपर्युक्त पांच अर्थप्रकृतियों तथा पांच कार्यावस्थाओं के सम्बन्ध (संयोग) से कथानक के विभाग होने पर क्रम से पांच सन्धियाँ निष्पन्न होती हैं। 'सन्धि' शब्द का अर्थ है-सन्धान करना या ठीक रूप में लाना। किसी कथानक के मुष्टु निर्वाह के लिए उसका भागों में विभक्त किया जाना आवश्यक है । इससे कथानक का सधान ठीक रूप में हो जाता है । आचार्य अभिनवगुप्त ने 'सन्धि' शब्द की निर्वचन के साथ सुन्दर व्याख्या की है-'एवं या एता. कारणस्य अवस्थास्तत्सम्पादकं यत्कर्तुरितिवृत्तं पञ्चधा विभक्तं त एव मुखप्रतिमुखगर्भविमर्शनिर्वहणाख्या अन्वर्थनामानः पञ्चसन्धयः इतिवृत्तखण्डाः सन्धीयन्त इति कृत्वा ।"
जहाँ अनेक अर्थ और रसों के व्यञ्जक 'बीज' (अर्थप्रकृति) की उत्पत्ति 'भारम्भ' नामक अवस्था के सयोग से हो, उसे मुखसन्धि कहते है। शिशु० के प्रथम सर्ग में जहाँ 'बीज' और आरम्भ का संयोग हैं, मुखसन्धि है । शिशुपाल के वधरूप बोज का वपन नारद द्वारा श्रीकृष्ण के सम्मुख प्रस्तुत किये गये इन्द्र-सदेश में हुआ है । श्रीकृष्ण तथा नारद के संवाद में मुखसन्धि के प्रायः सभी अङ्गों का सुन्दर निर्वाह हुआ है। प्रतिमुख
जहाँ मुखसन्धि में निवेशित फलप्रधान उपाय का विकास 'बिन्दु' और प्रयल के अनुगम द्वारा कुछ लक्ष्य तथा कुछ अलक्ष्य हो , उसे प्रतिमुख सन्धि कहते हैं शिशु० के द्वितीय सर्ग का कांश प्रतिमुख सन्धि है। १. दशरूपक-अन्तरैकार्थसम्बन्धः सन्धिरकान्वये सति । १ । २१ २ दशल्पक-अर्थप्रकृतयः पञ्च पञ्चावस्थासमन्विताः ।
यथासख्येन जायन्ते मुखायाः पञ्चसन्धयः १।२२।०३ ३. ध्वन्यालोकलोचन-पृ० ३३८ ४. दशरूपक-मुख बीजसमुत्पत्तिर्नानाथरससम्भवा ।
मानि द्वादशैतस्य बीजारम्भसमन्वयात् ॥१।२४-२५ ५ दशरूपक-लक्ष्यालक्ष्यतयोमेइस्तस्य प्रतिमुख भवेत् ।
विन्दुप्रयत्नानगमादनान्यस्य त्रयोदश ॥१३.