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सुषमा कुलश्रेष्ठ
श्रीकृष्ण के मुख पर क्रोध से टेढ़ी हुई, शत्रुओं के नाश को निरन्तर सूचित करने वाली भृकुटि ऐसी प्रतीत होती थी मानो शत्रुओं के नाश की सूचना देने वाला धूमकेतु नामक तारा आकाश में उदित हुआ हो । श्रीकृष्ण के मुख पर जो क्रोध दिखाई दे रहा था, वही साध्य की सिद्धि के लिए उनका औक्य हैं ।
बस्न
फलप्राप्ति न होने पर उसके 'वन' कहते हैं ।' द्वितीय सर्ग में मन्त्रणा करना, अन्त में राजसूय यज्ञ तैयारी तथा इन्द्रप्रस्थ-प्रस्थान 'यत्न' श्रीप्त्यांशा
लिए किये गये त्वरायुक्त व्यापार को श्रीकृष्ण का बलराम तथा उद्धव के साथ में जाने का निश्चय करना, जाने की अवस्था है ।
(विघ्न) की आशकाओं से आक्रान्त हो किन्तु प्राप्ति अवस्था को 'प्राप्त्याशा' कहते हैं । शिशु० काव्य में चतुर्दश से एकोनविंश सर्ग तक यह अवस्था है । युधिष्ठिर का राजसूय यज्ञ - सम्पादन, यज्ञान्त में श्रीकृष्ण की व्यग्रपूजा, उनकी अग्रपूजा से कुछ शिशुपाल का भीष्म एवं श्रीकृष्ण के प्रति कटूक्तियों का प्रयोग करना, शिशुपाल का युद्धार्थ सेना तैयार करना, शिशुपालपक्षीय राजाओं के पहले से होने वाले नानाविधि अपशकुन, शिशुपाल के वाग्मीदूत का श्रीकृष्ण के समक्ष श्लेष द्वारा द्वयर्थक वचन-प्रयोग, शिशुपाल- दूत के वचनों से श्रीकृष्ण सभा का क्षुब्ध होना, शिशुपाल को सेना का युद्ध के लिए पूर्णरूपेण तैयार होना, श्रीकृष्ण सेना और शिशुपाल - सेना का तुमुल युद्ध तथा दोनों सेनाओं के राजाओं का परस्परं द्वन्द्व युद्ध 'प्राप्त्याशा ' अवस्था है । यहाँ फलप्राप्ति की सम्भावना उपायों तथा अपायों से घिरी हुई है । शिशुपाल का भीष्म एवं श्रीकृष्ण के प्रति कटूक्ति-प्रयोग फलप्राप्ति की सम्भावना को बल प्रदान करता है । शिशुपालपक्षीय राजाओं के पहले से होने वाले अपशकुन भी इसके सूचक हैं कि शिशुपाल का शीघ्र ही अन्त होगा । नियतासि
जहाँ प्राप्ति की सम्भावना उपाय और अपाय
की सभावना हो, उस
अपाय के दूर हो जाने से जहाँ पर फलप्राप्ति पूर्णरूप से निश्चित हो, उसे
१. दशरूपक - प्रयत्नस्तु तदप्राप्तौ व्यापारोऽतित्वरान्वितः । १ । २०
२. दशरूपक - उपायापायशाभ्यां प्राप्स्याशा प्राप्तिसम्भवः । १ । २१