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उस तत्त्व की प्राप्ति कर ले, अगले जन्म पर छोड़ेगा तो अनंत जन्म लेने पड़ेंगे, ज्ञानी की श्रद्धा में एक भी भव नहीं. वह एक क्षण भी ठहरना नहीं चाहता, असमर्थता से चाहे अनेक जन्म धारण करने पड़े।
इस प्रकार आ० कुंदकुंद व अमृतचंद्र के समान किसी ज्ञानी को ऐसी दिव्य देशना को मुन कर यदि इसे यह सनझ में आए कि आज तक मैंने बड़ी भूल की थी जो संसार शरीर भोगों को तरफ तो मुंह किया हुआ था और भगवान आत्मा को पीठ दी हुई थी और परमात्मा बनने का ये निर्णय कर अपनी तत्व सम्बन्धी रुचि में तीव्रता लाए तो कषायों में और मंदता पड़, प्रायोग्पलब्धि की प्राप्ति हो और फिर इसका आत्मा के अनुभव का पुरुषार्थ जाग्रत हो । यहाँ तक चार लब्धि हुई, पांचवी करपलब्धि तो तब होगी जब यह अपने को अपने में खोजेगा तब स्वानुभव होगा स्वानुभव ही सम्यग्दर्शन है. वही मम्बग्ज्ञान है, वहीं मोक्ष का माग है, वही सब कुछ है ।
जाव का कैसे वह सौभाग्य जगे ? कैसे इसको स्वानुभव हो ? इसका मार्ग यही है कि काई आत्मानुभवो गुरु यदि सुलभ हो तो उसके उपदेश से सम्पूर्ण वस्तु तत्व को जान कर (गुरु होना चाहिए अनुभवी हो । क्योंकि जो स्वयं उस मार्ग न गया हो वह दूसरे को मार्ग क्या दिखाएगा) और यदि ऐसा गुरु प्राप्त न हो तो स्वयं ही अध्यात्म ग्रंयों का खव अभ्यास कर उनसे आत्मा के बारे में जान कर अपने भीतर यह आत्मा को देखे । गुरु की इस सम्बन्ध में बड़ी महत्ता है क्योंकि वह जीवंत शास्त्र है, कहीं भी कुछ छोटी सो भो भूल या रुकावट यदि है तो वह हाथ पकड़ कर झट रोक देगा, पर फिर भी ऐसा गुरु यदि उपलब्ध न हो पाए तो भ० कंदकंद को वाणी का तो जोव को सहारा है हो । आत्मा के बारे में पूरी जानकारी अध्यात्म ग्रंथों से हो जाएगी और स्वानुभूति का तरीका भी इसे ज्ञात हो जाएगा वह इसकी बदि में खूब अच्छी तरह बठ जाए कि वस्तु तत्त्व यही है, इसी प्रकार है, दूसरा नहा है और दूसरा प्रकार हो भी नहीं सकता फिर उसके बाद ये अपने अन्दर ही जहाँ वह है उस चैतन्य को देखने का पुरुषार्थ करे, वह देवों का देव इसके भीतर ही विराज रहा है, कहीं बाहर नहीं मिलेगा, भीतर ही ये देख, उसे ढूंढे तो उसको प्राप्ति अवश्य होगी क्योंकि वहाँ वह आप है ही। दो वातों का ज्ञान तो इसे दिया जा सकता है-आत्मा के बारे में ज्ञान एवं स्वानुभव के मार्ग का ज्ञान, पर अनुभव का पुरुषार्थ इसे स्वयमेव ही करना है।