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जन के मानस को आप्लावित कर रही हैं। पूज्य दादा-सा एक श्रावक थे, गृहस्थ थे, किन्तु आपश्री तो अनिकेत आर्यारत्न हैं, वीतराग भगवान के अनुशासन से आबद्ध, आगमज्ञा, शास्त्रमर्मज्ञा, योगसाधिका, विदुषीवर्या आदि अनेकानेक शुभ सम्बोधन आपके लिए अक्षरशः उचित प्रतीत होते हैं।
अस्सी वर्ष से अधिक आयु में भी प्रवर्तिनी म.सा. के मुख-मण्डल पर जिस आभा और चैतन्य के दर्शन होते हैं वह एक सबल प्रेरणास्रोत है । दर्शन से स्वतः ही धार्मिक वृत्ति जागृत हो उठती है, आध्यात्मिक भाव विकसित होते हैं तथा विकार स्वतः ही तिरोहित होने लगते हैं। प्रायः हम सोचते हैं। कि, यह कैसा प्रभाव है ? तो उत्तर मिलता है यह प्रभाव है सतत साधनारत ज्ञानार्थ, सत्यार्थ, मोक्षार्थ समर्पित उस शुचि भावों की दिव्यमूर्ति का। कहते भी तो हैं, जहाँ धर्ममंगल की स्थापवा होती है, अहिंसा, संयम, तप की त्रिवेणी बहती है, वहां देव भी आकर नमन करते हैं। यह भी सच है कि सच्चे साधकों का जहाँ वास होता है, वहाँ स्वर्ग स्वतः ही निर्मित हो जाता है। वहाँ न रोग रहता है न शोक, न जरा न मृत्यु, न दुःख न विषाद। वहाँ तो रहते हैं-सत, चित् और आनन्द ।और, ऐसा ही आनन्द मिलता है हमें प्रवर्तिनी श्रीजी के सामिप्य-सान्निध्य में ।
हमारे पिताश्री की महती उत्कंठा थी कि पूजनीय बाबा सा. सेठ गुलाबचन्द जी लूणिया की कृतियों को संग्रहीत कर प्रकाशित कराया जावे। पिताजी के दिवंगत हो जाने के बाद मेरे मन में महत्वपूर्ण ग्रन्थ के प्रकाशन की योजना प्रस्फुटित हुई। हमने भुआ सा. महाराज के सान्निध्य में योजना रखी तथा निवेदन किया-बाबा सा. और पिताश्री की भावनाओं के अनुरूप आपने धर्म-दर्शन एवं आध्यात्म के क्षेत्र में अनेक गौरवपूर्ण कीर्तिमान स्थापित किये हैं। आपकी उज्ज्वलता के प्रकाश से हमारे जीवन में परिवर्तन घटित हुए हैं। हमें स्वतः प्रेरणा हुई है कि समस्त जैन समाज द्वारा आपका अभिनन्दन किया जावे तथा एक अभिनन्दन ग्रन्थ का प्रकाशन हो। किन्तु अपना ही अभिनन्दन जान हमारे आग्रहपूर्ण निवेदन को आपने सरलता के साथ अस्वीकार कर दिया। और कहा-मेरा अभिनन्दन करने की क्या आवश्यकता है ? मैंने कौन सा ऐसा महान कार्य किया है ? इस प्रकार कई बार कहा और बोले-दादा सा. की रचना अवश्य ही प्रकाशित होनी चाहिए। परन्तु हमारा विचार दृढ़ रहा और मैंने उनकी प्रमुख शिष्या शशिप्रभा श्रीजी म. के सन्मुख विचार रखे, उन्होंने हमें स्वीकृति दी। जिससे हमें हार्दिक प्रसन्नता हुई।
हमें यह भी प्रसन्नता है कि मेरे प्रस्ताव को खरतरगच्छ संघ के धर्मप्राण श्रावक महानुभावों ने सहमति प्रदान की तथा पूर्ण सहयोग का आश्वासन दिया। हम पू. प्रमुखा श्री शशिप्रभा श्रीजी म. सा व श्रावकवृन्द के प्रति आभारी हैं।
हमारी इच्छा है कि प्रतिनी श्रीजी का अभिनन्दन समारोह सम्पूर्ण जैन समाज के लिए एक महत्वपूर्ण एतिहासिक अवसर बने। आपकी प्रेरणा पाकर जैन समाज एकता की दिशा में चरणन्यास करे तो यह अवसर सार्थक हो उठेगा।
इस ग्रन्थ के प्रकाशन में सहयोगी एवं सम्पादक मण्डल के सदस्य श्री सुरेन्द्र बोथरा, श्री भंवर लालजी नाहटा, म. श्री विनयसागरजी, डॉ. नरेन्द्र भानावत श्री मदनलाल शर्मा, श्री महेन्द्र जैन का मैं हृदय से आभार प्रकट करता हूँ जिन्होंने विभिन्न खण्डों के निबन्धों के संग्रह, संशोधन एवं कार्य को तत्परता से पूर्ण करवाने में अथक परिश्रम किया।
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