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संपादकीय श्रीमद् राजचंद्र (कृपालुदेव) ने कहा है कि जीवन की सहज स्थिति होने को ही श्री वीतराग भगवान ने मोक्ष कहा है। ऐसी स्थिति प्राप्त करनी है, जिसके लिए लोगों ने अथक प्रयत्न किए हैं। जैसे कि मुझे कर्म खपाने हैं, मुझे कषाय निकालने हैं, मुझे राग-द्वेष निकालने हैं, मुझे त्याग करना है, मुझे तप करना है, ध्यान करना है, उपवास करना है और वह मार्ग भी गलत नहीं है लेकिन जब तीर्थंकर भगवान हाज़िर रहते हैं तब उनके अधीन घर, व्यवहार, सब परिग्रह छोड़कर लोग भगवान की शरण में पहुँच जाते थे और भगवान की आज्ञा का आराधन करके केवल ज्ञान प्राप्त करके मोक्ष में चले जाते थे।
क्रमिक मार्ग का रिवाज़ ही है कि जितने परिग्रह छोड़ते जाओगे उतनी ममता छूटती है, कषाय छूटते हैं, वैसे करते-करते क्रोध-मानमाया-लोभ को खत्म करते-करते, जब अहंकार में क्रोध-मान-माया-लोभ का एक भी परमाणु नहीं रहता तब वह शुद्ध अहंकार केवल आत्मा में अभेद होकर पूर्णता प्राप्त करता है। वह चौथे आरे में (संभव) हो जाता था।
परम पूज्य दादाश्री ने ऐसी खोज की, कि इस काल में मन-वचनकाया का एकात्म योग खत्म हो गया है। बाह्य द्रव्य और अंतर भाव की एकता टूट गई है। तो इस काल में राग-द्वेष, कषायों को निकालतेनिकालते खुद का दम निकल जाता है। तो अन्य क्या उपाय है ? मूल आत्मा सहज है, शुद्ध ही है, अज्ञानता की वजह से यह व्यवहार आत्मा असहज हो गया है। जिससे प्रकृति, मन-वचन-काया असहज हो गए हैं। इसलिए व्यवहार आत्मा को ऐसा शुद्ध स्वरूप का ज्ञान दो जिससे वह खुद सहज हो जाए। उसके बाद प्रकृति को सहज करने के लिए पाँच आज्ञा दी, आज्ञा में रहने से धीरे-धीरे प्रकृति सहज होती जाएगी।
। जैसे कि तालाब में पानी स्थिर हो और यदि उसमें एक पत्थर डालें तो पानी में तरंगें उठने से उसमें हलचल हो जाएगी। अब यदि पानी को स्थिर करना हो तो क्या करना पड़ेगा? फिर से पत्थर डालेंगे
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