Book Title: Sadyavatsa Kathanakam
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
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हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम् तेषु पुनरेक आहुर्मन्त्रिणा मुधैवैष उत्पातो विहितः ।
यतः -
एके सत्पुरुषाः परार्थघटनाः स्वार्थं परित्यज्य ये । सामान्यास्तु परार्थमुद्यमभृतः स्वार्थाविरोधेन ये । तेऽमी मानुष-राक्षसाः पर-हितं स्वार्थाय निघ्नन्ति ये
ये निघ्नन्ति निरर्थकं पर-हितं ते के न जानीमहे ।। १२८ यद्वा -
सुयणो कह लहइ सुहं जत्थ खलो सामि-कत्र-पडिलग्गो । तत्थ पहुस्स य दोसो खलाण पुण एरिसो मग्गो ॥ १२९ जं नत्थि जं चन हुअं नहु होही जं च जं न लक्खे वि ॥ तं चिय जंपंति तहा पिसुणा नहु सव्वसारिच्छा ॥ १३० खल-जण-सह-संगेणं पडंति सुयणाण मत्थएऽणत्था ॥
दहवहवयणकयवरा, हरयनिही बंधणं पत्तो ॥ १३१ तथा केऽपि -
वाच्छायतां वहसि किं सहकारवृक्ष निःशेष लोक कमनीय समृद्धि सार । प्राप्ते वसन्त समये तव सा विभूतिर् भूयो भविष्यतितरामचिरादवश्यम् ॥ १३२ गयवर गंगुणि अग्गलउ चंडहरं निवसंति । जउ पहुतउ देसंतरि तुह सिरि चमर ढलंति ॥ १३३ हंसा जिहि गय तिहि गया महि-मंडणा हवंति ।
छेहु ताहं सरोवरहुँ जे हंसहि मुच्चंति ॥ १३४ इत्यादि वदन्तोऽश्रु-पूर्ण-नेत्राः संप्रेष्य वलितास्ते । मार्गे सदयवत्सस्य चलतः शकुनावली वरीयसी भवति । वधूस्तत्फलं पृच्छति । पतिः कथयति -
धम्मलाभ भणती जइ, साहुणि संमुह आइ । तउ जाणि सावलि सही, तूसई तिभुवन-माइ ।। १३५
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