Book Title: Sadyavatsa Kathanakam
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PARSVA FOUNDATION SERIES NO. 5 हर्षवर्धन - गणि-कृतं सदयवत्स कथानकम् SU संपादक डॉ. (श्रीमती) प्रीतम सिंघवी प्रकाशक पार्श्व इन्टरनेशनल शैक्षणिक और शोधनिष्ठ प्रतिष्ठान अहमदाबाद Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम् संपादक डॉ. (श्रीमती) प्रीतम सिंघवी Page #4 --------------------------------------------------------------------------  Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PĀRSVA FOUNDATION SERIES NO. 5 GENERAL EDITORS : H. C. BHAYANI N. J. SHAH N. M. KANSARA हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम् संपादक डॉ. (श्रीमती) प्रीतम सिंघवी प्रकाशक पार्श्व इन्टरनेशनल शैक्षणिक और शोधनिष्ठ प्रतिष्ठान अहमदाबाद १९९९ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Harshvadhran-gani-kşta Sadayvatsa-kathānakam Edited by Dr. Pritam Singhvi © P. Singhvi First Edition 1999 Price : Rs. 60-00 Publisher : Dr. S. S. Singhvi Managing Trustee Pārśva Internation Educational and Research Foundation, 4-A, Ramya Apartment, Opp. Ketav Petrol Pump, Polytechnic, Ambawadi, Ahmedabad-380015 Phone : 6562998, 6749220 प्राप्तिस्थान : सरस्वती पुस्तक भंडार ११२, हाथीखाना, रतनपोल, अहमदाबाद-३८० ००१ 1 : 5356692 Printed by : Krishna Graphics Kirit H. Patel 966, Naranpura Old Village, Ahmedabad-380 013 * (Phone : 7484393) Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ General Editor's Forword One Part of the academic undertakings by the Pārśva Educational and Research Foundation is to Publish Jain texts that are unpublished so far and research studies in Jainism, Prakrit and allied Indological areas. Accordingly we are Publishing herewith Harşavadhan-gai-ksta Sadayvatsakathānakam edited by Pritam Singhvi. We thank the Author to make the work available for being published in this Series. Page #8 --------------------------------------------------------------------------  Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदयवत्स-कथानक भूमिका प्रस्तुत संपादन हर्षवर्धनगणि कृत "सदकवत्स चरित्र सर्व प्रथम इ.सन्. १८५३ में हीसलाल हंसराज की ओर से जामनगर (सौराष्ट्र, मुजासत) से प्रकाशित किया गया था। हीरालालजी ने कौनसी हस्तप्रति के आधार पर इसका पाठ दिया है उसके बारे में कुछ बताया नहीं है। और आपने संपादन के अंत में उन्होंने स्पष्ट रूपा से कहा है कि मूल कृति के पाठ में उन्होंने अपनी इच्छा से फेरबदल किया है। (“आ मंथनी मूलपाया अस्तव्यस्त होबाथी तेम्पा बनतो सुधारो की ते श्री जामनगर निकासी पंडित श्रावक हीसलाला हंससके स्कपरता श्रेषमाटे पोलाना श्री जैन भास्करोदय छापाखानाम्नां छापी प्रसिद्ध कर्षो छ।' पृष्ट १७६) इससे स्पष्ट होता है कि खास करके जैत पाठकों के लिये दान की महिमा करने वाली एक कथा प्रस्तुत करने के लक्ष्य से यह कृति प्रकाशित की गई थी। इसके पाठ की प्रामाणिकता. नहीं मानी जा सकती। बाद में यह हीसलाला हंसराज का “सदयवत्सचरित्र के पाठ का आधार लेकर पं. मतिसागर ने १९३२ में 'सदैयवत्सकुमारचरित्रम्' नामक एक कृति प्रकाशित की है। यह भी हर्षवर्धनगणि का हीरालाल हंसराज प्रकाशित 'सदयवत्सचरित्र' को आधार लेकर नये ढंग से कथा लिखी गई है। इससे स्पष्ट होता है कि हर्षवर्धन मणि की रचना का मूल पाठ अब तक प्रमाणभूत रूप में प्रकाशित नही हुआ है। यहाँ हमने जो उस कृति का पाठ संपादित करके दिया है वह उसका मूल पाठ है। यह जेसलमेर के आचार्य गच्छ के हस्तप्रतभंडार की एक प्रतकी प्रतिलिपि है। प्रतिलिपि सद्गत जिनविजयजी मुनि की निगरानी में विजयचन्द्र ने तैयार की थी। हस्तप्रत का समय वि.सं. १५२८ है । उसमें ८वां पत्र नहीं है। अमृतभाई भोजक ने हमें यह कापी सुलभ कराई । यह प्रति प्राचीन होने से हमने संपादित की है। वार्डर के Indian Kavya Literature Vol. 6, (1992) P. 123. में सदयवत्स-कथा के बारे में कहा गया है - Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ _ 'In Jaina tradition [3279] we have a different version of Sudraka's (or Sadayavatsa's) life, as a son of a king of Malva (in Ujjayini, Should Prabhuvatsa be Vikramaditya ? ) who marries Sātavāhana's daughter. Though banished (wrongly) and a gambler he is befriended by a goddess because of his self-sacrificing heroism and also by bandits in possession of the science, thus he succeeds in all his adventures, eventually becomes emperor and also wins the fortune of king Nanda. At last he meets the sage Kālika, keeps the 'accomplishment' and will attain release in a future life.' 'सदयवत्स चरित्र' के संपादन में श्रद्धेय भायाणी सा. से मुझे काफी मार्गदर्शन मिला तथा पूर्व परंपरा के संदर्भ में मैंने उनका लेख भी दिया है उसके लिये मैं हृदय से आभार मानती हूँ। इस पुस्तक को प्रकाशित करने के लिये पार्श्व शैक्षणिक और शोधनिष्ठ प्रतिष्ठान (अहमदाबाद) प्रति मैं हार्दिक आभार प्रकट करती हूँ। क्रिश्ना ग्राफिक्स, अहमदाबाद को सुन्दर छपाई के लिये धन्यवाद देती हूँ। . प्रीतम सिंघवी Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम् । धर्माज्जन्म-कुले शरीर-पटुता सौभाग्यमायुर्बलं धर्मेणैव भवन्ति निर्मल-यशोविद्यार्थसम्पत्तयः । कान्ताराच्च महाभयाच्च सततं धर्मः परित्रायते । धर्मः सम्यगुपासितो भवति हि स्वर्गापवर्ग-प्रदः ॥ १ स च धर्मश्चतुर्धा - दानं सुपात्रे विशदं च शीलं तपो विचित्रं शुभ-भावना च । भवार्णवोत्तारण-सत्तरण्डं धर्म चतुर्धा मुनयो वदन्ति ॥ २ नो शीलं परिपालयन्ति गृहिणस्तप्तुं तपो न क्षमाः आर्त-ध्यान-वशाद्ग(?धुः)तोज्ज्वलधियस्तेषां क्व सद्-भावना । इत्येवं निपुणेन हन्त मनसा सम्यामया निश्चितं नोत्तारो भव-कूपतोऽस्ति गृहिणां दानं विना कर्हिचित् ॥ ३ अतः सर्वथाऽपि मुख्यं दानम् । तच्चपञ्चधा अभयं सुपत्त-दाणं, अणुकंपा उचिय-कित्ति-दाणं च । दोहिंवि मुक्खो भणिओ, तिनि अ भोगाइयं दिति ॥ ४ आद्य-दान-द्वयस्य मोक्ष-हेतुत्वात्मुरव्य-धर्मांगत्वेना त्राभय-दाने पात्र-दाने च सदयवत्स-कथा॥ [१] अष्टादश लक्ष-द्विनवति-सहस्त्र-प्रमाण-ग्रामाभिरामो मालवक-देशोऽस्ति । अतिप्रचंड-वैरि-वृन्दैरप्यग्राह्याति-विषम-मण्डप-महादुर्ग-मण्डित-मध्य-प्रदेशो, विषम-दुर्भिक्षसंत्रस्त-जनता संरक्षण-पितृगृहोपमः । तत्र सर्व-नगर-प्रधानोज्जयिनी नाम पुरी । प्राकार-परिखा-कूप-कासाराराम-राजिता । बाल-कोलाहलाकीर्णा-सौध-देवकुलाकुला ॥ ५ अगण्य-पुण्य-सम्पूर्णैः सज्जनैर्भूषितान्तरा। केन वर्णयितुं शक्या सा पुरी विस्मयावहा ॥ ६ कूटमेकमपि त्याज्यं स त्रिकूट त्वसाविति । स-कलंका ध्रुवं लंका मेने यन्मानवैर्न कैः ॥ ७ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम यत्र च - विस्फुरत्-कन्दला वल्ल्यः सरोगा हंस-सारसाः । विरुद्घाः शाखिनः सर्वे न च लोकाः कदाचन ॥८ तस्यां पुरि प्रभुवत्सो नाम राजा राज्यं करोति । नमन्-नृपति-संघातैः सेव्यमान-पदाम्बुजः । प्रजा-वात्सल्यवान् दानी परोपकृतिकारकः ॥९ यस्य परोपकारित्वं सम्पूर्ण वर्ण्यते कथम् । वैरिणोऽपि समे येन, प्रापिताः स्वर्ग-सम्पदम् ॥ १० तस्य राज्ञी महालक्ष्मी माऽऽत्म-रूपोपहसित-समस्त-सरसुन्दरी-सौन्दर्या । तस्याः पुत्रः सदयवत्सो रूप-सौभाग्य-लावण्यादि-बहुगुण-युतो द्विसप्तति-कला-कुशलो विनयौदार्यादिगुणैः सर्वं परं रञ्जयामास । परं द्यूत-क्रीडा-रसिको बाल्यादपि । अति-चूतव्यसनं दोष- निधानमिति पित्रानेकोपदेशैः शिक्षितोऽपि स न मुञ्चति यतः शशिनि खलु कलंकः कण्टकाः पद्म-नाले जलधि-जलमपेयं पण्डिते निर्धनत्वम् । दयित-जन-वियोगो दुर्भगत्वं सुरूपे धनपति-कृपणत्वं रत्नदोषी कृतान्तः ॥ ११ क्रमेण स यौवनं प्रापः । इतश्च तस्मिन्नवसरे नव-लक्ष-ग्रामाभिरामे महाराष्ट्र-देशे गोदावरी-तटिनी-तटे दक्षिणापथमण्डनं समस्ति प्रतिष्ठानं नाम पुरं नगरम् । यत्र स्वर्णमय-दण्ड-कलशाभिरामाः पञ्च-शतानि दशाधिकानि जिन-प्रासादा अभ्रङ्कषा विराजन्ते । अन्य-देवतायतनानि सहस्राधिकानि । यत्र कोटीश्वराणां विंशति-सहस्त्राणि ॥ सुमेरोराहतानीव शृङ्गाणि कनकोत्कराः । गृहस्योपरि दृश्यन्ते, यत्र दारिदय-तस्कराः ॥१२ यत्र द्विपञ्चाशद्-वीराणां शूद्र-कोकिलादीनां स्थानम् । चतुःषष्टि-योगिनीनां निवासास्पदम्। पुरेऽत्र प्रति-सामन्त-प्रणत्युन्नत-विक्रमः । सालवाहन-भूपोऽस्ति, जैनो निर्जित-शात्रवः ॥ १३ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम् तस्य सर्वान्तःपुर-पुरन्ध्र-प्रधानभूता कमलावती नाम राज्ञी । तस्याः प्राण-प्रिया सावलिङ्गी नाम्नी पुत्री बहु-पुत्रोपरि जाता, स्वरूप-निर्जित-रम्भाऽअखिल-जन-नयन-कुरङ्गवागुरा पितृ- भ्रातृ-चितालादकारिणी। यस्याः पदाङ्गुष्ठ-नखौ मुखं च बिभर्ति पूर्णेन्दु-चतुष्टयं या । कलाश्चतुःषष्टिरूपैतु वासं, तस्यां कथं सुश्रुवि नाम नाऽस्याम् ॥ १४ तस्याः पाणि-ग्रहण-निमित्तं स्वयंवर-मण्डपो राज्ञा कारितः । तत्र बहु-राजकुमारा आकारिताः सन्तो मिलिताः । तच्छ्रुत्वा प्रभुवत्स-राज्ञे मन्त्रि-प्रभृतिभिः रुक्तम् । देवान्ये राजकुमाराः स्वयंवर-मण्डपे गताः । युष्मत् कुमारस्याकारणायाद्यापि कोऽपि जनो नागतोऽस्ति ततः कुमारं स्वयमेव प्रेषयत । राजाह-उत्तमाः प्रौढे-तावन्मेलापकेऽनाकारिताः कथं गच्छन्ति । यतः अनादतः प्रविशतिह्यपृष्टो बहु भाषते । अदत्तमासनं भेजे स पार्थ पुरुषाधमः ॥ १५ मा उत्सुका भवन्तु । स्थिरा लक्ष्मीः । (अत्र कथा ।) अत्राऽऽगमिष्यति जनः इति वदत एव राज्ञोऽग्रे दूत आगात् । तेनोक्तम्-देव सदयवत्सकुमारा कारणायाहं प्रेषितोऽस्मि राज्ञा श्रीसालवाहनेन । ततो राज्ञा कुमारो मन्त्रिभिः सह प्रेषितो बहु-सैन्य-युतः । राज्ञा मन्त्रिणे उक्तं यदयं कुमारो व्ययार्थं मार्गयति तत् सर्वं समर्पणीयमस्य । कृपणत्वं न करणीयं । दान-शौण्डे मेलापके मिलिते कार्पण्यं महदपकीर्तये स्यात् । यतः औदार्य-गुण-युक्तेषु कृपणो नैव शोभते । भद्र-जाति-गजेन्द्रेषु यथा गर्दभ-मंडलम् ॥ १६ राज्ञेत्थं शिक्षितोऽपि मन्त्री कृपणः कुमाराय स्तोक स्तोकमेवादाद् दानादि-व्ययार्थम् । यतः । ऋणादपि महान् कम्पो दानस्याऽवसरे भवेत् । भीमः सङ्कुचितो गात्रे दान-दातव्य-शङ्कया ॥ १७ गोग्रहे कौरव-हृत-गो-'[धना]हारार्थं गच्छन् हर्षादुल्लसद्गात्रो भीमः सन्नाहं गृह्णाति, परं देहे नाऽऽगच्छति । अपरे पाण्डवा व्याकुलीभूताः कृष्णं विज्ञापयन्ति-भीमदेहे सन्नाहो नागच्छति किं करिष्यति। कृष्णः प्राह-धीरा भवत । ततः कृष्णो ब्राह्मण-वेषेण दान-मार्गणाय तमयाचत्। भीमस्तदा दातव्य-वस्त्वभावात् खेदात् संकुचित-गात्रोऽभूत् । सन्नाहो देह आगाद् । Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सत्यवत्स-कमानकम विष्णुः स्वं प्रकटचके। यद्या राजकुले व्ययो याति भाण्डागास्किस्तु दुर्वलो भवतीति न्यायः । तेन स कुमासे मनसि दूनोऽपि तत्र न किमप्यचीकचत् । यतः अर्ध-सम्प्रासि-काले क. स्कनैः कलहायते । तदचा प्रश्यते नूनं प्रतिक्षा तस्य हीयते । १८ कुटुम्ब-समकायेन यत् कार्य कियते सुनम् ।। कालेन भवति प्रयस्तत् परिणाम-सुन्दरम् । १९ कुटुम्ब-कलहे न स्यात् कदा कार्य महागुणम् । अचिव कालेन भवेत् बद्दु स-दायकम् ॥ २० विग्रह खत कुलेन नोचितो मोदतेोऽपरिकल-कल्फ-पादप । कान ख-भरेण सिहयो(२) प्रीतिमेति न बने कोचट ॥ २१ स्त्र मतः सामान्य माम्यादिभिर्गुणैः सर्क-राज-समुदार्य स्वामित्वा तस्याट सावलि बाट सदपवत्स-पाणिग्रहणमाको यतः यस्या योऽस्ति को भावी पूर्व-कर्म-प्रभावतः । स एव भवति प्रायो नात्र कार्या विचारणा ॥ २२ साधा जो जस्स कर बडिओ संबडइस दूरसोवि सो तस्म । कच्चति विशा-मिरि-संभका वि सरसो करिणो ॥ २३ सालवाल-राजा हस्त-मोचने बहु-गज-तुमादि दत्तम् । तदनन्तर-सो. बहु-कोटिधन-व्यमान ताव स्व-नाम संस्थापः कमेणा स्क-पारमाजमामः । साझा प्रवेश-महोत्सवयके। अनुरूप-भान्वितः पितृ-बहुमानर सुखेन साज्य लीलामनु भावति । अन्यवातिधूतासक्तत्वेनास्थाने बहु-कल्या व्यास करणाद् दूनेन राज्ञा कुमासय शिक्षा प्रदायि - बल्स नो वेल्सि कि राज्यं बहु-कार्य-निरन्ताम् । स्वाक-कारण-व्यग्र-परिवार-समावृतम् ॥ Ra? Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम् सावधानतया चिन्त्यं करण्डस्थ-भुजंगवत् ॥ नियन्त्रणीयं कपिवद् गुणैः शाखान्तरं व्रजन् ॥ २५ फलित-क्षेत्रवन् नित्यं रक्षणीयं प्रयत्नतः । नव्याराम इव स्थित्या सेचनीयं मुहुर्मुहुः ॥ २६ अनीति-जल-कल्लेलैः शैलमुच्चैः क्षणाद् ध्रुवम् । व्यसनाख्यो नदी-पूरः पातयेद् राज्य-पादपम् ॥ २७ एतदेव हि पाण्डित्यं यदायादल्पको व्ययः । अत्रोदाहरणंदृष्टं स्पष्टं मुनि-कमण्डलुः ॥ २८ नित्यं कृत-व्ययः स्वैरं मेरुरप्यपचीयते । तेजस्वीव गते वित्ते नरोऽङ्गार-समो भवेत् ॥ २९ बन्धुर्बन्धुर-धीस्तावत् तावद् भार्या मनोनुगा । सर्वः कलकलस्तावद् यावद् द्रव्य-समागमः ॥ ३० निर्द्रव्यं च नरं नूनं संत्यजन्त्यनुजीविनः । मुञ्चन्ति विहगाः सद्यस्तडागमिव निर्जलम् ॥ ३१ अद्य-श्वो वा तवैवायं राज्य-भारोऽवतिष्ठते । तनिर्वाहक्षमं विद्वन् सधारण-गुणान् श्रय ॥ ३२ दाने द्यूतेऽत्याऽसक्तिर्दोष एव । सर्वं युक्त्यैव क्रियमाणं गुणायान्यथाऽनर्थाय । यथा तरु-दाहोऽतिशीतेन, दुर्भिक्षमति-वर्षणात् । अतिधूताच्च निर्वित्तः अति कुत्राऽपि नेष्यते ॥ ३३ यतः एको रविरति-तेजा अति-शूरः केसरी वने वासी । अति-विपुलं खं शून्यमति-गम्भीरोऽम्बुधिः क्षारः ॥ ३४ अति दानाद् बलिर्बद्धो ह्यति-दर्पण रावणः । अति-रूपाद्धता सीता ह्यति सर्वत्र वर्जयेत् ॥३५ तथा जिहिं न मुणिज्जइ देवगुरु, जिहिं नवि कज्ज अकज्ज । तणु-संतावण कुगइ-पह, कुण तिणि जूअ रमिज्ज ॥ ३६ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम रक्षणीयः सदा दक्षैः पुरेऽपि व्यसनी वसन् । पापानां व्यसनं मूलं पापं दुःख-ततिरिव ॥ ३७ धर्मस्याव्यसनं मूलं धर्मः सर्व-सुख-श्रियाम् । व्यसनैः सुखमिच्छन्ति मूढाः शैत्यमिवानलात् ॥ ३८ सर्व-व्यसन-मुक्तेषु युक्तेषु सुकृतोत्सवैः । पुरुषेषु त्वया तात रचनीया रतिस्ततः ॥ ३९ सत्सङ्गात् पूज्यता भवेद् । यतः शिरसा सुमनःसङ्गाद् धार्यन्ते तन्तवोऽपि हि । तेऽपि पादेन मृद्यन्ते पटेषु मल-संगतः ॥ ४० इत्यादि-शिक्षा प्रतिपद्य प्राह कुमारः-तात राज्ञां लक्ष्मीरअनन्ता । किं गण्यते । राजाचे-एवं-राज्ये चेद् बहु हेम स्यात् तदा महिष्याः शृङ्खला विधीयते । तैलं बहु चेत् तदा गिरयः स्निह्यन्ते। अमृतं बहु तदा पाद-शौचं विधीयते । एवं युक्तया वारितोऽपि न तिष्ठति। प्रतिवक्ति च - सुवर्णैः पटकूलैश्च शोभन्ते वारयोषितः । पराक्रमेण दानेन राजन्ते राज-नन्दनाः ॥४१ अनुकले विधौ देयं यतः परयिता हि सः । प्रतिकूले विशेषेण यतः सर्वं स नेष्यति ॥ ४२ दातव्यं भोक्तव्यं सति विभवे संचयो न कर्तव्यः । पश्येह मधुकरीणां संचितमर्थं हरन्त्यन्ये ॥ ४३ राजा पुनः प्राह द्यूत-पोषी निज-द्वेषी, धातु-वादी तथाऽलसः । आय-व्यय-मनालोची यस्तद्गेहे वसाम्यहम् ॥ ४४ इति दारिद्य वचनम् ॥ गुरवो यत्र पूज्यन्ते धान्यं यत्र सुसंचितम् । . अ-दन्त-कलहो यत्र तत्र शक्र वसाम्यहम् ॥ ४५ इदं लक्ष्मी-वचः । इत्यादि-वाक्-प्रपंचैर्निरुत्तरीकृतेन राज्ञा रुष्टेन स स्वसौधाद् बहिष्कृतः । यतः Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम् द्यूतं यो यम दूताभं हालां हालाहलोपमाम् । । पश्येद् दारान् यथाऽङ्गारान् स भवेद् राज-वल्लभः ॥ ४६ प्रोक्तः प्रत्युत्तरं नाह विरुद्ध प्रभुणा च यः । न समीपे हसत्युच्चैः स भवेद् राज-वल्लभः ॥४७ ततोऽस्य माता तं शिक्षयति-वत्स पितुः सम्मुखमुत्तरं न दीयते । यतः पढम चिय गुरु-वयणं मम्मुर जलणु व्व दहइ भण्णंतं । परिमाणे पुण तच्चिय मुणाल-दल-सीयलं होइ ॥ ४८ किं बहुणा विणओ च्चिय अ-मूल-मंतं जए वसीकरणं । इह-लोय पार-लोइय-सुहाण मण-वंछिय-फलाणं ॥ ४९ तथा च - अर्थ-पतौ भूमि-पतौ बाले वृद्धे तपोऽधिके विदुषि । योषिति मूर्खे गुरुषु विदुषा नैवोत्तरं देयम् ॥५० मातृ-पित्रातुराचार्यातिथि-भ्रातृ-तपोधनैः । वृद्ध-बालाबला वैद्यापत्य दायाद-किंकरैः ॥ ५१ स्वसृ-संश्रित-सम्बन्धि-वयस्यैः सार्धमन्वहम् । वाग्-वग्रहमकुर्वाणो विजयेत जगत्-त्रयीम् ॥ ५२ ॥ ततो मुख्य-सौधाद् बहिः स्थितः सभार्यः तदा तन्माताऽपि सुत-निष्कासन-दूना तत्पार्श्व एवास्थात् । वधू-पुत्र-सहितायास्तस्य राजा व्ययं पूरयति । कुमारो नगर-मध्य द्यूतादिस्थानेषु रमते। व्यसनं कस्य सुत्यजम् । हारितं धनमिभ्येभ्यो मार्गयित्वा ददाति । तेऽपि च बहु-प्रत्यर्पण-वाक्येन राजकुमारत्वेन पश्चादप्यस्यैव राज्य-सम्भावन-सेव्यतया च ददन्ति । दत्तं धनं चटति तदा चटतु नो चेत् तदा यात्विति दीर्घसूत्रिणः प्रयच्छन्ति तस्मै । यतः स्वामी सम्भावितैश्वर्यः सेव्य-गुणान्वितः स च । सुक्षेत्र-बीजवत् कालान्तरेऽपि स्यान्न निष्फलः ॥ ५३ एवं समाधिमतोऽस्य दिनानि व्रजन्ति । इतश्च तत्र पुरे कोऽपि विप्रो महादेव-नामा ज्योतिर्विद्याविदां मुख्यः कर्मवशाद् दारिद्येण पीडितोऽस्ति । Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम् दग्धं खाण्डवमर्जुनेन विपिनं दिव्यद्रुमैर्वासितं दग्धा रावण पालिता हनुमता दिव्या च लङ्कापुरी । दग्धः पञ्चशरः पिनाकपतिना लोकत्रयी-वल्लभो दारिद्रं जन-दुःख-दायि यदि नो दग्धं तदा किं कृतम् ॥ ५४ जाई विज्जा रूवं तिन्नि-वि निवडंतु कंदरा-विवरे । इक्को-वि हवउ अत्थो जेण गुणा पायडा हुंति ॥ ५५ ।। इत्यादि-प्रकारै दैवोपालम्भान् सृजति । एकदा तद्भार्यया प्रोक्तम्-स्वामिन् तव विद्याः कस्मिन्नर्थे समेष्यन्ति । विद्याभिः सर्वत्र पुष्कलानि धनानि प्राप्यन्ते । __यतः विद्वत्त्वं च नृपत्वं च नैव तुल्यं कदाचन । स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते ॥ ५६ अतोऽहं ब्रवीमि विद्याहीनः पुरुषः पशुरेव । यतः आहार-निद्रा-भय-मैथुनानि सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम् । ज्ञानं विशेषः खलु मानुषाणां ज्ञानेन हीनाः पशवो मनुष्याः ॥५७ अतोऽहं ब्रवीमि-त्वमियद्विद्यापारङ्गतोऽपि किमेवं दारिद्य-पीडां विषहसे । विज्जा-धणू जेहि घरि, ताह अहीणुं काई । नितु दूडइ नितु दूडिसि, इवि सूकिसि मुआइ ॥५८ विप्रेणोक्तम्-प्रिये, त्वं सत्यं ब्रूषे, परंहं किं करोमि व गच्छामि । बह्मनयनेऽपि गृहं दुष्पूरम् । सा वक्ति -नाथ गृहं कदापि किं पूर्णं भवति । यतः अग्निविप्रो यमो राजा समुद्र उदरं गृहम् । सप्तैतानि न पूर्यन्ते पूर्यमाणानि नित्यशः ॥ ५९ ततो भार्याऽब्रवीत्-अस्मिन् पुरे दाने कर्ण-समो नृपतिविद्यावद्दारिद्रा चूर्णीकरोति । - तत्र गत्वा तं द्रव्यं मार्गय । यतो ब्राह्मणानां याचनं न लज्जाकारि । कोटीश्वरोऽपि याचमानो न लज्जते विप्रजनः । Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम् यतः विप्रेष्वाजीविका सृष्टा दानि-दानेन वेधसा । तेन तद्ग्रहणे नैव लज्जते ब्राह्मणो नृप ॥ ६० तथा च स्वप्नेऽपि याचमानो विप्र-जनो भ्रमति भूतले सततम् । यो यत्करणे रसिकः प्रायः स्वप्नेऽपि तत् कुरुते ॥ ६१ विप्रः प्राह – तत्र गमनेन किं । यतः - विकटाटव्यामटनं शैलारोहणमपांनिधेस्तरणम् । क्रियते गुहाप्रवेशो पिहितादधिकं कुतस्तपि ॥ ६२ पुनः सा प्राह - उद्योगिनं पुरुष सिंहभुपैति लक्ष्मीद् दैवं हि दैवमिति कापुरुषा वदन्ति । दैवं निहत्य कुरु पौरुषमात्मशक्त्या यत्ने कृते यदि न सिध्यति कोऽत्र दोषः ।। ६३ इत्यादिवाक्यैस्तत्प्रेरितः स राज-सभां गतो नव-ग्रहाणामाशीर्वादमदात् । यथा मार्तण्डस्तारानाथः क्षोणीसूनुस्तनुश्चेन्दोर्वागीशो दैत्याचार्यच्छयापुत्रो राहुः केतुर्नक्षत्रैरश्विन्यायैस्तारा सङ्गैः स्वामि-युक्तैः कल्याणं वो नित्यारोग्यं लक्ष्मीमायुः कुर्वन्तु । ततो राज्ञा पृष्टः - कुतो देशात् समागता यूयम् । स आह - अत्रैव पुरे वसन्नस्मि। पुननृपतिराह—इयन्ति दिनानि । नाजग्मुर्भवन्तः । विप्रोऽवदत्-न-स प्रकारः कोऽप्यस्ति येनेयं भवितव्यता । छायेव निज-देहस्य, लङध्यन्ते जातु नो नरैः ॥ ६४ कर्मणामर्गला लग्ना पापमद्य क्षयं गतम् ॥ भाग्येन दर्शनं जातं तवाद्यैव महीपते ॥ ६५ पुनः प्रोवाच राजा - द्विजराज मम किं दूषणम् । विप्रः प्राह- देव तव कि दूषणम् । यतः - नोलूकोऽथ विलोकते यदि दिवा सूर्यस्य किं दूषणम् पत्रं नैव यदा करीर-विटपे दोषो वसन्तस्य किम् । 2 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम् वर्षा नैव पतन्ति चातक-मुखे मेघस्य किं दूषणम् यत् पूर्वं विधिना ललाट-लिखितं तन्माजितुं कः क्षमः ॥६६ राजाऽवदत् - कामपि शास्त्र-वार्ता वेत्सि । सोऽवोचत्-देव किमपि पृच्छ यथा स्वयमेव ज्ञास्यसि । यतः - पातु वो निकष-ग्रावा मति-हेम्नः सरस्वती । प्राज्ञेतर-परिच्छेदं वचसैव करोति या ॥ ६७ यद्वाऽनेकप्रकारा विद्याः उपकाराय या पुंसां न परस्य न चाऽत्मनः । पत्र-संचय-संभारैः किं तया भार-विद्यया ॥ ६८ अनुष्ठानेन रहिता पाठ-मात्रेण केवलम् ।। रञ्जयत्येव या लोकं किं तया शुक-विद्यया ॥ ६९ गोप्यते या श्रृतज्ञस्य मूर्खस्याग्रे प्रकाश्यते । न दीयते सुशिष्येभ्यः किं तया शुष्क-विद्यया ।। ७० परोत्कर्ष समाच्छाद्य विक्रयाय प्रसार्यते । या मुहुर्धनिनामग्रे किं तया पण्य-विद्यया ॥ ७१ न तीर्यते ययाऽघोरः संसार-मकराकरः । नित्यं चिन्तासु बन्धिन्या किं तया मोह-विद्यया ॥ ७२ न विवेकाञ्चितां बुद्धि न वैराग्यमयं मनः । संपादयति या पुंसः किं तया कष्ट-विद्यया ॥ ७३ पर-मात्सर्य-शल्येन व्यथा संजायते यथा । सुख-निद्रापहारिण्या किं तया शूल-विद्यया ।७४ पर-सूक्तापहारेण स्व-सुभाषित-वादिना । स्वोत्कर्षः स्थाप्यते यस्याः किं तया चोर-विद्यया । ७५ लोभः प्रभूत-वित्तस्य रागः प्रव्रजितस्य च । न यया शान्तिमायाति किं तया शोक-विद्यया ॥ ७६ गृहे चैव प्रगल्भेत सभायां न प्रवर्तते । प्रतिभासयतो याति किं तया दोष-विद्यया ॥७७ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम् यया भूपतिमादृत्य परेषां गुण-निन्दकः । दान-मानोन्नति हन्ति किं तया द्वेष-विद्यया ॥ ७८ रसायनी जरा-जीर्णश्चिर-रोगी यया भिषक् । धातु-वादी दरिद्रश्च किं तया हास्य-विद्यया ॥ ७९ परोपतापः क्रियते-वश्यादि-करणैर्यया । यंत्र-तंत्रानुसारिण्या किं तया काक विद्यया ॥ ८० कंठस्था या भवेद् विद्या सा प्रशस्या सदा बुधैः । या गुरौ पुस्तके विद्या तया मूढः प्रतार्यते ।। ८१ । अहं तु स्व-कंण्ठस्थया विद्ययात्रैवावस्थितस्त्रजगद-वार्ता वेद्मि । परं ज्योतिःशास्त्रे विशेषेणाधीत्यस्मि । ज्योतिःशास्त्रोक्त ग्रह-चार-वक्रीति-वारोत्पातावस्था, आगामि-संवत्सर - भाव-नष्ट जन्म-वर्तन-चन्द्र-सूर्योपराग-तन्मानभूत-भावि-काल-स्वरूप-ज्ञान नष्ट-वस्तुप्रकटनादि मम किमप्य-नावेद्यं नास्ति । मम सर्वज्ञ इति प्रसिद्धिं जनो वक्ति । एतदतिरेकवचनमाकर्ण्य राजा मनसि चुकोप-अहो कियान् गर्व-पर्वतोऽसौ । असारस्य पदार्थस्य प्रायेणाडंबरो महान् । नहि स्वणे ध्वनिस्ताद्दग याद्दक्कांस्ये प्रजायते ।। ८२ यद् वा उत्क्षिप्य टिट्टिभः पादमास्ते भंग-भयाद् भुवः । स्व-चित्त-कल्पितो गर्वः कस्य न विद्यते भुवि ।। ८३ ततो राजाह-हे विप्र, अन्यत्र-भवा वार्तास-तिष्ठतु । किं ताभिरज्ञात-स्वरूपाभिः। कामपि मम पुर आसन्नां वार्ता भविष्यन्ती कथय । तावता राज्यस्यालं करणं जयमंगलाभिधः पट्ट-गजेन्द्रस्तत्र राज्ञः प्रणामार्थमग्रे समागात् । शास्त्रे गजानामायुर्वर्ष-शतं श्रूयते । नृपतिना तदायुरेव पृष्टम् । तेन लग्नमवलोक्य प्रोचे-देव, वक्तव्य-सदृशं नास्ति । राजाह-कुतः । स वक्ति-राज्ञोऽप्रीतिकरणात् । राज्ञोऽप्रीतिकरणे महानुपद्रव आत्मनोत्पादितः स्यात् । जो पव्वया सिरसा भित्तु मिच्छे सुत्तं च सीहं पडिबोहये जो । जो वाहये सत्तिय गो-पहारं ? एसोवमायायणया(?) गुरुणं ॥८४ एवं को वयणे ते वाणं (१) इत्यादि । राज्ञोचे-कथय यथा-दृष्टम् । विप्रेणाक्तम्शृणु आगामि-दिनेऽस्य गजस्य प्रहर-द्वय-समये मरणं भविष्यति । ततोऽनाहत-वचनेनाभीष्टगज-वियोगवचनेन च राजा रुष्टः । सभाजनैश्च निंदितो विप्रः कारागृहे क्षिप्रस्तं तद्-रक्षका जना Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम मुक्ताः । जना हसंति सर्वे-अहो दैवज्ञेन गज-मरणं ज्ञातं, परमात्मनः कारागृह-पतनं न ज्ञातम्। यतः गगने गणयति गणकश्चन्द्रेण समागमं विशाखायाः । अन्यासक्तां गृहिणीं कथमपि मूढो न जानाति ॥ ८५ राजा वक्ति-यदि कूटं भविष्यति तदाऽस्य हृदये ललाटे च डम्भान् दापयिष्ये विप्रस्यावध्यत्वात् । राज्ञा गजेन्द्र-रक्षार्थं यत्नः कारितो । गज-वैद्याश्चाकार्य दर्शितः । तैरुक्तंदेव अस्य गजस्य वपुनिरामयं समस्ति । नहि कोऽप्युपघातः तेन नानाहारैः पोष्य एव । ततो लोह शृङ्खलाभिनिगडित आलानस्तम्भे बद्धः । रात्रिर्व्यतीयाय सुखेन । प्रभाते तत्रागानृपः । पृष्ठा गज-स्वरुपं हस्तिपकाः । तैरुक्तं-देव, सुखी गजः प्रहरोऽतिचक्रमे । ततो द्वितीय -प्रहरे गजो मदेनोन्मत्तो बभूव । आलान-स्तम्भमुन्मुल्य शृङ्खलाः खण्डशः कृत्वाऽऽषाढ-मासोन्नतसजल-जलदवद् गर्जन् हस्तिशालातो निस्ससार। पुरे निरङ्कशो भ्रमति । हट्टाट्टालानि पातयति । चतुष्पथे सौगन्धिक-हट्टस्तत्र-कर्पूर-कस्तूरिकागुरु-सुगन्ध-तैल-प्रमुख-वस्तूनि तथो वलितानि यथा तेषां लवोऽपि न लभ्यते । घृत-हट्टेषु घृत-तैल-भाजनानि तथा ढोलितानि यथा घृततैलानां नद्यवहत् । दोसी-हट्टेषु जल-कर्पट-पट्टकूल-शाटिकादि-वस्त्राणि तथोल्लालितानि यथैकच्छायमभूत्पुरम् । नैस्तिक-हट्ट-वस्तु पुग-सञ्चयैस्तदुत्क्षिप्तैश्चतुष्पथं दन्तुरमजनि । ताम्बूलिकपत्रसंचया गजेन सर्वत्र प्रसारिताः । नश्यद्भिौकैः कलकलमयं पुरमजनिष्ट । इत्थं सर्व-प्रकारेण पुरं निस्सारं कुर्वन् ब्राह्मण-पाटके गजो जगाम । तावता कस्यापि विप्रस्य भार्या सीमन्त-भवनेन महोत्सव-पंच-शब्द वाद्य-निनाद-पूर्वं पति-गृहाच्छशुर-गृहं गच्छत्यस्ति । इतः स गजस्तत्रेवागात् । तं गजं प्रत्यक्ष-यम-दूतमिव दृष्ट्वा परिजनो मरणभय-त्रस्तो दिशोदिशं ननाश । सा बाला गर्भ-भाराच्छाटिका-मुकुटदि-बहु-नेपथ्यभाराच्च नष्टुमशक्ता गजेन गृहीत्वा दन्त मुशलोपर्यधारि। हाहाकारोऽभूत् । तावत् तत्पतिर्बुम्बारवं कुर्वन मुखतो हंहं ब्रुवन् सदयवत्सकुमाराग्रे निर्गतः, तदुच्चैः क्रन्दन्स वक्ति-अहो सुभटा यो मम गृहिणी रक्षति तस्य हार-कुण्डलाद्याभरणानि ददाम्यपरमपि पारितोषिकमर्पयामि । अहो ! सुभट-कुल-मण्डनं कोऽप्यस्ति । मात्रा पीडित-जन-रक्षा-करण-क्षमःकोऽपि जनितोऽस्ति । ततो द्यूत-स्थान-स्थेन कुमारेण पृष्टं-कि जातम् । स तत्स्वरूपमाह । सदयश्चिन्तयति : किं पौरुषं रक्षति येन नार्तान् किं तद्धनं नार्थिजनाय यत्स्यात् । सा का क्रिया या न हितानुबन्धा किं जीवितं साधु-विरोधि यद् वा ॥८६ कुमारोऽधावत । रे मातंग ब्रह्म-स्त्री-हत्या-कारक मातंग मुञ्चैनाम् । गजो न मुञ्चति तां बहु प्रकारैः खेदितोऽपि । ततः क्रुद्धेन कुमारेण खड्ग-घाताद् गज-शिरश्छित्त्वा बलान्मोचिता। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम् १३ नगरं स्वस्थं बभूव । राजाऽप्युरु पुरोपद्रव-निवर्तना द्धृष्टः सन् कुमारं सच्चक्रे । पुर- जनोऽपि कुमार- पौरुष-गुण-हृष्ट: कुमार- सहितं राजानं मौक्तिक- हारादिभिर्भेटनक प्रदानेन प्रपूजयति । ततो विशेषेण पुत्रस्य सन्मानं करोति नृपः । ततो ज्योतिर्वित् कारागृहान्निष्कारय प्रपूजितः । तञ्ज्ञान चमत्कृतेन राज्ञा ग्रामादि-दान प्रदानेन संतोषितः यतः मातेव रक्षति पितेव हिते नियुङ्क्ते कान्तेव चाभिरमयत्यपनीय दुःखम् । कीर्तिं च दिक्षु वितनोति ददाति लक्ष्मीं, किं किं न साधयति कल्पलतेव विद्या ॥ ८७ ॥ कन्या- जीवित-दान- हृष्टास्तन्मातृ पक्ष- सम्बन्धिनो विप्र-जना एकावली - हारादिना तत्कुमारं वर्धापनं कृत्वा प्रपूजयन्ति । सा बाला तु स्व-हस्तेन शेषां भृत्वा तिलकं चकर्ष मौक्तिकाक्षतपात्रेण वर्धापयति च कुमारं । तदनन्तरं राजा तदैव कुमारे युवराज-पदं दत्त्वा सुखेन राज्यं करोति । इतश्च मन्त्रीश्वरश्चिन्तयति-यदि कुमारस्येयन्मानं राज्ञोबभूव तदा मम सूत्रं विनष्टं । यतो मयाऽयं पूर्वं पाणिग्रहणा - वसरे धन-मार्गणानर्पणतः कोपितोऽपमानितोऽस्ति । ततोऽधुना तद्वैर निर्यासनं करिष्यति । यतः यतः घातः शुन इवाज्ञस्य - विस्मर्येत क्रमान्तरे । सिंहस्येव न वीरस्य कदापि पर-सम्भवः ॥ ८८ तथा च - प्रियं वा विप्रियं वापि सविशेषं परार्पितम् । 'प्रत्यर्पयन्ति के नात्र दृष्टान्त उर्वरा खलु ॥८९ अतोऽयं प्रसन्नोपेक्षणीयः । - य उपेक्षेत शत्रुं स्वं प्रसरन्तं यथेच्छया । रोगं वाऽऽलस्य- संयुक्तः स शनैस्तेन हन्यते ॥९० तथा चाटु-वचस्तया ममापराध इयन्ति दिनान्यनेन स्वभिरक्षितो बहुवालनाय यतोऽसौ राजनीतिवेत्ता । यथाः Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ तथा च हर्षवर्धन - गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम् वहेदमित्रं स्कन्धेन यावत् काल - विपर्यय: आगते तु निजे जाले भिन्द्याद् घट मिवाश्मनि ॥ ९१ जिम जिम केसरी पाय उहट्ठइ जिम जिम विसहर नउली वट्टइ । दीण - वयण जइ जंपइ सूरउ ते उ डबक्कउ देसिइ पूरउ ॥ ९२ तेनाधुना मम दिवसो रुष्ट इव दृश्यते । यतः दीहा रुट्ठा तं करइ जं वइरी न करंति दीह पलट्टइ रावणह पत्थर नीरि तरंति ॥ ९३ भवतु । परं संजातमपि राज-मानं टालयामि निज- बुद्धया । यतः यतः यस्य बुद्धिर्बलं तस्य निर्बुद्धेस्तु कुतो बलम् । वने सिंहो मदोन्मत्तः शशकेन निपातितः ॥ ९४ कथा प्रसिद्धा एतावता स्वबुद्धि-वैभवात्- कुमार निष्कासनोपायो दृष्टस्तेन । अति-मलिने कर्तव्ये भवति खलानामतीव - निपुणा धीः । तिमिरेऽपि कौशिकानां रूपं प्रतिपद्यते दृष्टिः ॥ ९५ ततो माष-पूरितं लोह-स्थालं स्थापितोपरि-प्रौढेङ्गालकं कृष्ण-दुकूल-युगल-सहितं राज्ञ उपदीचकार मन्त्री । तदपूर्वं दृष्ट्वा राजाऽप्राक्षीत् मन्त्रिन् किमतत् । स आह- देव एते लोका उपदाः कुर्वीत । ततोऽहमपि तामकार्षम् । राज्ञोचे - ईद्दक् प्राभृतकं क्वाऽपि न दृष्टं । मन्त्री प्राह-हे राजन् तवाधुनेद्दगेव प्राभृतं विलोक्यते । राजाऽऽह - कस्मात् । मन्त्री वक्ति वैद्य गुरुश्च मन्त्री च यस्य राज्ञः प्रियंवदः । शरीर - धर्म - कोशेभ्यः क्षिप्रं स परिहीयते ॥ ९६ सुलभाः पुरुषा राजन, सततं प्रिय वादिनः । अप्रियस्य च पथ्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभः ॥ ९७ अप्रियाण्यपि पथ्यानि ये वदन्ति नृणामिह । त एव सुहृदः प्रोक्ता अन्ये तु नाम- धारकाः ॥ ९८ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम् ___ अतः कठोर वचनं ब्रवीमि । हे राजन् ! सकल-राज्य-सारो जयमङ्गलो गजः । सोऽपि कुमारेणैक-स्त्री-मात्र-कृते हतः , त्वं तु तस्यापि कुमारस्य मानं ददासि । कोपं-करण स्थाने यौवराज्य-पदं दत्से । वैरि-जयोऽनेनैव गजेन । यतः स सुधीर्यस्य भूमिः स्याद् यस्याश्वास्तस्य मेदिनी । विजयी यस्य मातङ्गा यस्य दुर्गः स दुर्जयः ॥ ९९ ईदग् गज-रत्नं चतुरङ्ग-चमू-मण्डनम्, अतः परं तेषां वैरिणां गृहेषूत्सवा भवन्तः सन्ति । देव स गजः कुत्रत्यो योऽवसरेऽवसरे मद-मत्तो न भवति । परमेवंविधं गज-रत्नं यत्र तत्र किं तिष्ठति । विपुल-भाग्यवतामेव गृहे तिष्ठति । एवमल्पे कार्येऽस्य हनने का युक्तिः । परं विनाशकाले विपरीतबुद्धिर्भवति । यतः - न निर्मिता कैर्न च दृष्ट-पूर्वा । न श्रूयते हेममयी कुरङ्गी । तथापि तृष्णा रघु-नन्दनस्य विनाश-काले विपरीत-बुद्धिः ॥१०० इत्यादिवचनं ब्रुवति सूचीतस्तथा कर्णे पीडितो यथाऽति-कर्ण दुर्बलत्वेन राजा तद्वचन-पद्धति सत्यामेव मन्यमानः क्रुद्धः कुमारस्य देश-निष्कासनमादिशति । यतः दुर्बल-कन्ना वंक-मुहा खंधग्गला स-रोस जेता गुण तुरंगमह तेता माणस-दोस ॥ १०१ अ-कर्ण-दुर्बलः शूरः कृतज्ञः सात्विको गुणी । वदान्यो गुणरागी च प्रभुः पुण्येन चाऽऽप्यते ॥ १०२ अथवा पाषाण-जाल-कठिनोऽपि गिरिविशाल: सम्पिद्यते प्रति-निशं वहता जलेन । कर्णोपजाप-वचनैः परिपीड्यमानः को वा न याति विकृति दृढ-सौहदोऽपि ॥ १०३ प्रातः कुमारं प्रति राजाऽऽह - अरे ! गज-रत्नमानय । नो चेत्-त्यज मे देशं । कुमारः प्रोचे ओम इत्युक्त्वा प्रणम्य च निर्गत: सभामध्यात्तदैव । तेजस्वी तर्जनं न सहते । चिन्तितवांश्च। देशान्तर दिद्दक्षाऽपि पूर्यतां मम संम्प्रति । भूपतिरपि जानातु स्वसूनो....भिमतम् ॥ १०४ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ हर्षवर्धन - गणि-कृतं सदयवत्स - कथानकम् माणि पणट्ठइ जइ न तणु तो देसडा चइज्ज । मा दुज्जण-कर- पल्लविहिं देसिज्जंतु भमिज्ज ॥ १०५ परं विषादभाङ् ना भूत् । यतः सम्पदि यस्य न हर्षो विपदि विषादो रणे च धीरत्वम् । तं भुवनत्रयतिलकं जनयति जननी सुतं विरलम् ॥ १०६ ॥ - तत्स्वरुपं मन्त्रिणश्चेष्टितं च मातुरग्रेऽकथयत । माता पुत्र- विदेश गमन - वार्तया पीडिताऽश्रुपूर्णनेत्रमाह - वत्स त्वं राजानं पादयोः पतित्वा प्रसादय । यतः उत्तमानां कोपः प्रणामान्तो भवति । कुमारो वक्ति- मातरहं प्रसादयामि परं तथापि न प्रसादं यास्यति । यतः निमित्तमुद्दिश्य हि यः प्रकुप्यति ध्रुवं स तस्यापगमे प्रसीदति । अकारणाद् द्वेष - परो हि योऽत्र कथं नरोऽसौ परितोषमेति ॥ १०७ मात्रोचे - वत्स सत्यं वक्षि | जलधेरपि कल्लोलाश्चापलानि कपेरपि । शक्यन्ते यत्नतो रोद्धुं न पुनः प्रभु-चेतसम् ॥ १०८ अहं किञ्चित् कथयित्वा विलोकयामि । ततः सा राजानमेकान्ते वक्ति - देव एकोऽपराधः सुतस्य सोढव्यः । यतः दोषेणैकेन न त्याज्यः सेवकः सुगुणाधिपैः । धूम - दोष- भयाद् वह्निः किमु केनाप्यपास्यते ॥ १०९ इत्यादिबहूक्तेऽपि नाऽमन्यन राजा तद्वचनं । ततः सा प्राह-दे . यदेवं प्रागल्भ्येन नार्हत्येव वक्तुं महिलाजनः। स्त्रियो हि सविनया अल्प - भाषिण्यः सलज्जा परं शोभन्ते, धार्यं तु तासां वचनीयतामेव वहति, परमतीवार्त्तागृहीतयैवैवमभिहितं मया । एवमुक्त्वा निर्गता । तत: कुमारं प्रत्यम्बा कथयति-यदि त्वं यास्यसि तदाहमपि सार्धमागमिष्यामी इति वदन्ती कुमारेण वारितापि न तिष्ठति वक्ति च महिलाण होइ सरणं पई व पुत्तो व जीवलोगम्मि । पइ - पुत्त - विरहियाओ, **..**...** ॥ ११० पुत्र आह- अहं शीघ्रमागत्य तीर्थमिव तव पादौ निश्चयेन नमस्करिष्यामि । यतः Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम् तीर्थानामष्टषष्टिा प्रोक्ता स्मृतिषु भारत । तेषु भागीरथी श्रेष्ठा ततोऽपि जननी मता ॥ १११ अष्टपष्टिश्च तीर्थानि त्रयस्त्रिंशच्च देवताः । षडशीति-सहस्त्राणि मातुः पादे वसन्ति च ॥ ११२ व्यासेनाप्युक्तं वासु महारिसि इहु भणइ, जइ सुइ-सत्थु पमाणु । मायह चलण मंताहं, दिवि दिवि गंगा-न्हाणु ॥ ११३ अतस्त्वं पूज्याऽत्रैव तिष्ठ । विदेश-भ्रमण-भू-शयन-पाद-सञ्चरणादि दुःखं मम साध मा सहस्व । तव सार्धं ममाऽपि पाद-बन्धन-दुःखमिति पर्यवसाय सा संस्थापिता । परं मनसि पीडिता वक्ति - वत्स इक्केण विणा पियमाणसेण सब्भाव-नेह-सहिएणा । जण-संकुला वि पुहवी पुत्तय सुत्र व्व पडिहाइ ॥ ११४ ततो मात्रा प्रत्यूषे कुमारः प्रातराशं कारितः । यतः सुधा-मधु-ज्योत्सना-मृद्वी ? [कादिभ्यः] शर्करादपि । वेधसा सारमुद्धृत्य विहितं जननी-मनः ॥ ११५ मङ्गलार्थमखण्ड-तर-सहितं दधि भोजितं । कर्पूर-पूर-चूर्णादि-युतं पत्र-बीटकं ददौ । मातरं प्रति प्रणामं [कृत्वा] वधू-सारा-करणं चऽतिदिश्य यावन् निर्गतस्तावता पत्नी पतिमन्वेव निर्गता । कुमारेण च वारिताऽपि । सुकुलीना सा कथयति-कुलस्त्रियः प्राणाः पत्यधीनाः । देशान्तरे गते जीवन्त्यपि मृता। लोकान्तरे तु पत्यौ अनुम्रियते। नो चेच्छृङ्गारादि मुञ्चति । उच्यते तथा - शशिना सह याति कौमुदी,सह मेघेन तडिद्विलीयते । प्रमदाः पति-वर्मगा इति, प्रतियत्नं हि विचेतनैरपि ।। ११६ पुनः नर-पाखइ नारी-तणइ लागइ कोडि कलंक। आगइ एक मई सासहिउं मुखि ...**...** ॥ ११७ माय-बाप-बंधव-बहिन मोटी पीहर-वेडि। सहकारणिइं परिहरी कंत न मूकउं केडि ॥ ११८ जे सुर-नर-साखिइं करी बापिइं बंधाविउ [देह] ॥ सावलिंगि ते इम भणइ ते किम छूटइ छेह ॥ ११९ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम आपत्काले हि संप्राप्ते यन् मित्रं मित्रमेव तत् । वृद्धि-काले तु संप्राप्से दुर्जनोऽपि सुहृद् भवेत् ॥ १२० सा सती या हिया भर्तुः सम्मुखे दिवसेऽनुगा । तनुच्छायेव धैर्येण, प्रतीपेऽस्मिन् पुरो भवेत् ॥ १२१ सरसीव पयः पूर्णे, **..** समं भवेत् । नैःस्वै स्व-परयोर्भेदः शुष्केऽस्मिन् मुञ्चतीव यत् ॥ १२२ । पङ्गुमन्धं च कुब्जं च कुष्ठाङ्गं व्याधि-पीडितम् । आपत्सु विगतं नाथं न त्यजेत् सा महासती ॥ १२३ इति तदुक्ति-युक्तिं श्रुत्वा कुमारः पुनरुवाच - अहं गिरिकन्दरारण्यानिषु भ्रमिष्यामि त्वं तु कथं भ्रमिष्यसि । साऽऽह । वल्लभ देहस्य छाया किमन्यत्र तिष्ठति तथाऽहमपि । तथा चोक्तं - रणं पि होइ वसियं जत्थ हियय-वल्लहो जणो वसइ । पिय-रहियाणं वसियं पि होइ अडवीइ सारिच्छं । १२४ ततस्तस्याः सार्थागमन-निश्चयं निशम्य सार्थेन चालनायानुमेने कुमारः । ततः सावलिङ्गी श्वश्रू प्रति-हे मातः ! कदाचित्त्यक्त वधू-धर्मो ममापराधो मर्षणीय इत्यभिधाय पादयोः पपात । ततश्च पत्यनुगमनायाऽनुमन्यस्वेति मुत्कलाप्य पत्या सार्धं चचाल । सवधूक-कुमार-चलनानन्तरं माता - हियडा फाटि पसाउ करि जीविय काई करेसि । पिय-माणुस-विच्छोहियां, केतां दुक्ख सहेसि ॥ १२५ इत्यादि वारं वारं रोदिति । क्रमेण सखीभिर्वारिता च । कुमार सम्प्रेषणायाऽनुगच्छन्तः स्वजनाः प्रोचुः-अहो दुरात्मना मन्त्रिणा कीद्दक् चेष्टितं । यतः - पात्रमपात्रं कुरुते, दहति गुणान् स्नेहमाशु नाशयति । अमले मलं प्रयच्छति दीप-ज्वालेव खल-प्रकृतिः ॥१२६ केऽप्याहू राजा कथमेवं निष्कासनं करोति । केऽप्याहुः आयुषो राजचित्तस्य, पिशुनस्य धनस्य च । खलस्नेहस्य *** नाऽस्ति कालो विकुर्वतः ॥ १२७ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम् तेषु पुनरेक आहुर्मन्त्रिणा मुधैवैष उत्पातो विहितः । यतः - एके सत्पुरुषाः परार्थघटनाः स्वार्थं परित्यज्य ये । सामान्यास्तु परार्थमुद्यमभृतः स्वार्थाविरोधेन ये । तेऽमी मानुष-राक्षसाः पर-हितं स्वार्थाय निघ्नन्ति ये ये निघ्नन्ति निरर्थकं पर-हितं ते के न जानीमहे ।। १२८ यद्वा - सुयणो कह लहइ सुहं जत्थ खलो सामि-कत्र-पडिलग्गो । तत्थ पहुस्स य दोसो खलाण पुण एरिसो मग्गो ॥ १२९ जं नत्थि जं चन हुअं नहु होही जं च जं न लक्खे वि ॥ तं चिय जंपंति तहा पिसुणा नहु सव्वसारिच्छा ॥ १३० खल-जण-सह-संगेणं पडंति सुयणाण मत्थएऽणत्था ॥ दहवहवयणकयवरा, हरयनिही बंधणं पत्तो ॥ १३१ तथा केऽपि - वाच्छायतां वहसि किं सहकारवृक्ष निःशेष लोक कमनीय समृद्धि सार । प्राप्ते वसन्त समये तव सा विभूतिर् भूयो भविष्यतितरामचिरादवश्यम् ॥ १३२ गयवर गंगुणि अग्गलउ चंडहरं निवसंति । जउ पहुतउ देसंतरि तुह सिरि चमर ढलंति ॥ १३३ हंसा जिहि गय तिहि गया महि-मंडणा हवंति । छेहु ताहं सरोवरहुँ जे हंसहि मुच्चंति ॥ १३४ इत्यादि वदन्तोऽश्रु-पूर्ण-नेत्राः संप्रेष्य वलितास्ते । मार्गे सदयवत्सस्य चलतः शकुनावली वरीयसी भवति । वधूस्तत्फलं पृच्छति । पतिः कथयति - धम्मलाभ भणती जइ, साहुणि संमुह आइ । तउ जाणि सावलि सही, तूसई तिभुवन-माइ ।। १३५ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम देवता काऽपि तुष्यति । बाला स्वंगि अलंकरी, कोरे वस्त्रि कुमारी । तउ जाणहि सुंदरि सही, निश्चिइ लाभइ नारी ।। १३६ मार्गे कन्या-पाणिग्रहणं भवति । तरु अरि वाम तेतिर लवइ वड-तडि शिवा खंति । तउ जाणहि सुंदरि सही रिद्धि अनेकि वरंति । १३७ संड सारस खर तुरी डावा लाली हुंति । एकइं काजिइं नीकल्यां कज्ज सयाई करिति ।। १३८ वामगि वायस उतरइ सावड हुइ श्वान । सावलिंगि जाणे सही पगि पगि मिलई निधान ॥ १३९ अधूरा पहिलइ पहरि जांगल जिमणां जाई । तउ जाणहि सुंदर सही पमिलई सजण सयाइं ।। १४० जउ उट्ठ खर डावइ स्वरि करी जिमणइ जाइ । सावलिंगि जाणे सही सगपणि कलह कराइ ।। १४१ डाबी छीक धाह जिमणी वारुणी आलउं मांस । सावलिंगि जाणे सही सफल मणोरह तास ॥ १४२ हय सपलाणउ संमुहउ जल गर्जित: गजराज । सावलिंगि जाणे सही रन्नि भमंतां राज ॥ १४३ पत्नी पुनः पृच्छति - नाथ क्व यास्यसि । स आह बहवो देशाः सन्ति गमनार्हाः। पत्नी प्राह तत्सत्यं - बाल-राज्यं भवेद्यत्र द्वैराज्यं यत्र वा भवेत् । स्त्री-राज्यं मूर्ख-राज्यं च यत्र स्यत् ितत्र नो वसेत् ।। १४४ कुदेशं च कुमित्रं च कुसम्बन्धं कुसौहृदम् । कुभायाँ च कुपुत्रं च दुरतः परिवर्जयेत् ॥ १४५ तिणि देसडइ न जाईइ जिणि अप्पणउ न कोइ । सरि सरि मारग हीडीइ वत्त न पूछइ कोइ ॥ १४६ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम् कुमारः प्रवक्ति - कोऽति-भारः समर्थानां किं दूरं व्यवसायिनाम् । को विदेशः सविद्यानां कः परः प्रिय-वादिनाम् ॥ १४७ को धीरस्य मनस्विनः स्वविषयः को वा विदेशः स्मृतो यं देशं श्रयते तमेव कुरुते स्वीयं गुणोपार्जितम् । यद् दंष्ट्रा-नख-लाल-प्रहरणः सिंहो वनं गाहते, तस्मिन्नेव हत-द्विपेन्द्रसलिले तृष्णां छिनत्त्यात्मनः ॥ १४८ जइ गुण हुइ तउ लब्भइ ठाणउं केण किओ केसरि वण-राणउ । अप्पउ अप्पह महिम चडावइ, हत्थी तूर किम दंडह आवइ । १४९ भार्या ब्रूते - एवं सत्यपि मम पितृ-गृहे प्रतिष्ठान-पुरे गम्यते तदा वरं । मम पिता तव राज्य-श्रियं दास्यति । यतः - तुङ्गात्मनां तुङ्गतमाः समर्था मनोरथान् पुरयितुं न नीचाः । धाराधरा एव धराधराणां निदाघ-दाहोपशमे न नद्यः ॥ १५० इति श्रुत्वा कुमारः प्राह - नैवेयं वचनपद्धतिः सत्या । यतः - वियलिय-कला-कलाओ चंदो सूरस्स मंडलं पत्तो । निस्सरिओ तारिसओ गय-विहवे को समुद्धरइ ॥ १५१ बज्झ ता कार झभेवि किरि चंद परवासइ लोइ । धण-हीणउ मित्ताण हरि मा जाइज्जउ कोइ ॥ १५२ गहणं कलंक-कुसणं डीणिम चंदिम ? हरणं कयंत चंदस्स । हरि-हर-धनंतरि बन्धवेहि कि होइ पक्नेणं ।। १५३ पुनः श्वशुरसमीपे न यामि यतः - वरं मृत्युवरं भिक्षा वरं सेवाऽपि वैरिणाम् । दैवाद्विपदि जातायां श्वशुराभिगमो न तु ॥ १५४ तथाः - उत्तमाः स्वगुणै ख्याता मध्यमास्तु पितुर्गुणैः । अधमा मातुलैः प्रोक्ताः श्वशुरैश्चाऽधमाधमाः ॥ १५५ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम तावदेव पुमान् श्लाघ्यस्तावदेव गुणाश्रयः । नैव यावत् पर-मुखं प्रेक्ष्यते स्वात्मनः कृते ।। १५६ जिणि दिणि पर-मुह जोईइ छंडिवि निअ-विवसाउ । सो दिवसउ मत उग्गमउ निसि-उच्छउ म विहाउ ॥ १५७ स पुनश्चिन्तयति-अस्या वचनं प्रमाणं भवतु, यत इमां सावलिङ्गी पितृ-गृहे मुक्त्वाऽहं मुत्कल-पादः स्वेच्छया पृथिवीं विलोकयामि ।। यतः - विद्या वित्तं शिल्पं तावन्नाप्नोति मानवो नूनम् । यावद् भ्रमति न भूमौ देशाद्दे देशान्तरं हृष्टः ॥ १५८ नानाश्चर्यमयीं पृथ्वी यो न पश्यति भारत । निज-पत्याग्रहात्-कानि कौतुकानि स वक्ष्यति ॥ १५९ इति विमृश्य प्रतिष्ठान-पुर-मार्गे चचाल । सदयो गच्छंश्चिन्तयति च-या सावलिङ्गी प्राक् सुखासनं विना नाचालीत् साऽधुना पाद-चारेण चलति । पूर्वे मेघा मनस्विन्या मुखमपि नावलोकयन्त, अधुना तातस्य रोषणे च स्व करैः सूर्यस्तां ताडयति । ईदृशे कष्टेऽस्याः कीद्दशी मुखच्छायेति विलोकनायेव रविः सम्मुखोऽभूत । अनया हन्त पूर्वं पाटल-शीकर-वासिततुषारोपम-जलैस्तृष्णा मूलतोऽप्युच्छेदिता तदीर्ध्या-रुष्टा पिपासा स्वावसरं प्राप्यैनां पीडयतीव मार्गे क्षार-भूमिमये छाया-जल-रहिते रण्ण । आगते सावलिंगी तृषाक्रान्ताऽपि पति दुःखभवन-शङ्कया जलं न मार्गयति, परं प्रकारान्तरेण पृच्छति, सावलिङ्गी-सामि कुरंगा रण्ण-थलि जल-विणु किम जीवंति । सदय : - हीउ सरोवर प्रेम-जल नयणें नीर पीयंति । १६० सदयस्तच्चित्तज्ञः प्राह-किं तव तृड् बाधते । साऽऽह-बाढं । इति श्रुत्वा चिन्तयति सः निव-धूया सुकुमारा तिण्हा-छुह-पीडिआ-निविड-तावे चंकमणं चरणेहिं ही ही विहिविलसिअं विसमं ॥ १६१ नूनं शफरीव जलाभावे इयं मरिष्यति । ततो जलं विलोकयामि । तावदग्रे दूर एकां प्रपां पश्यति । शीतल -जल-भृतकलश-पूर्णा वृद्धा स्त्री प्रपापूरिका (? पालिका) । ततस्तां दृष्ट्वा सन् दयिः तत्रैव मुक्त्वाऽग्रे शीघ्रं गत्वा जोत्कार-पूर्वं मातर्मे जलं देहि । मम भार्या तृषाक्रान्ता मार्गे पतिताऽस्ति ! वृद्धाऽऽह- देवी-हरसिद्धेः प्रपेयं । अत्र पुण्यं च पापं च सममेव । कुमारः पृच्छति- कथं । वृद्धा वदति-वत्स योऽत्र यावत्-प्रमाणं स्वरुधिरं प्रयच्छति Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम् तस्य तावज्जलं दीयते नाधिकं यतो नेयं पुण्यार्थं प्रपा किन्तु रुधिरार्थं । कुमारः प्राह-वरं रुधिरमल्येनापि चेल्लभ्यते न तदा दुष्करम् । यतः खीर-समुदं रण्णं पइसिज्जइ हुअवहम्मि जालाए । अंगम्मि होइ मरणं किं दुलहं अइ-सिणेहस्स ॥ १६२ दहि मे जलकरकं । करकं भृत्वा चलिता स्त्री । सदयः प्राह-मेऽर्पय करकम् । त्वं वृद्धत्वेन शीघ्रं गन्तुमक्षमा । सा तु क्षमते न विलंबम् । त्वं तिष्ठ । साऽऽह-अहमेव पायिष्यामि। ततः कुमारः शीघ्रतरं व्रजति-साऽपि वेगेन चलन्ती कुमार-पाद-पाणी प्रहरन्ती स्कन्धे चटितेव पृष्ठतो गच्छति । सदयश्चिन्तयति-वृद्धेयं मम मिलितैवाऽऽगच्छति किमेतत् । तावद्वतः पत्नीपार्श्वम् उक्तं च-तव कृते जलमानीतं । स्त्रिया करको दत्तः । सा मुख-प्रक्षालनपूर्वं जलं पपौ । स्वस्थाऽजनि । ततो वृद्धा रुधिर-करकं मार्गयति । ततः कुमारेण स्वां नसां उत्पाट्य तत्कर्षणं चक्रे । परं न निस्सरति । देहे कासिकाऽपतत् । विषण्णचित्तः स प्राहमातरहं स्व-शिर-श्छेदं कृत्वा तव रुधिरं ददामि । कदाचिन्मदभाग्यान निस्सरति तदा मम भार्या-पार्वे न याच्यम् । निस्सहायाऽबलेयं मोच्या । वृद्धा प्राह-एवमस्तु । ततो यावच्छिरसि खङ्ग वाहयति तावत् सा वृद्धा चलत्-कुण्डला प्रत्यक्षीबभूव । भो असम-साहस मा साहसं कुरु । अहमुज्जयिनीपुर्याः प्रतिष्ठान-पुरस्य चाधिष्ठात्री हरसिद्धिर्नाम देवी । उज्जयिनीतो युष्मत्-पुण्यानुभावात्-त्वत्-साहाय्यार्थं तव सार्धमागता । तव सत्त्व-परीक्षार्थं च महा-क्षाररणं मयैव विकुर्वितम् । महातपात् तव पल्यास्तृड्भरान्मुखशोषश्च, प्रपाऽपि च कृता । दृष्टस्त्वं सात्त्विक-शिरोमणिः स्व-वाचा-पालन-शूरः । मया ज्ञातं त्वं कलत्राय रुधिर-मूल्येन जलं गृह्णनसि,यत आर्ता दुष्करमप्यङ्गीकुर्वन्ति स्नेहभाजः । परं कार्य सिद्धे तदङ्गीकृतं तृणवद्वणयन्ति प्रायो निःसत्वाः । उपाध्यायश्च वैद्यश्च प्रतिभूर्भुक्त-नायिका । सूतिका दूतिका चैव सिद्धे कार्ये तृणोपमाः ।। १६३ त्वं त्वापत्स्वपि वाक्य-पालकत्वाद्वीरः । यतः - जे आवईसु धीरा विहवम्मि अगव्विया अमच्छरिणो । पर-वसणेसु सहाया ते पुरिसा पुहवि-लंकरणं ॥ १६४ तेन तुष्टाऽस्मि । वरं वृणु । स प्राह-देवि तव दर्शनेनैव कृतार्थः संपन्नो मार्गये न किमपि। देवी प्राह-न मोघं देवदर्शन । ततो द्यूताधिकरसः प्राह-देवि यदि तुष्टा तदा मम Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम छूते सङ्ग्रामे च जयं देहि । ततः सा पाशक-द्वयं कपदिकां कङ्कारालोह-क्षुरिकां चार्पयामास। पाशकतः सर्पादिघ्न(?) द्यूते कपर्दिकातः कपर्दक-छूते जयः । क्षुरिकातो वैरि-लक्ष-रणे जय इत्युक्त्वा ऽप्यस्मिन् (कस्मिन्नपि) दुष्कर-कार्ये मां स्मरेरित्युदित्वा रुवं तिरोदधे देवी । ततः सुखेन व्रजंश्चिन्तयति-अहो देव्या मम वस्तु-द्वयमपूर्वं दत्तं दारिद्य-हारि राज्य-प्रदायि च । यतः - इक्षु-क्षेत्रं समुद्रश्च पाषाणामाकरोऽहो (?) प्रसादो देव-भूतानां, सद्यो हन्ति दरिद्रताम् ।। १६५ मार्गे पत्नी पृच्छति-किमेतच्छोणित-वचनं कुमारो वक्ति-वारि शोणितमूल्येनानीतं न मुधा । पत्नी प्राह-त्वयेत्थं जल-मानीतं । हा धिङ्मां पत्यनर्थकारिणीमिति स्वां निनिन्द । तथा प्राह-देवेत्थं कष्टेन कस्माज्जलमानीतं । कुमारः प्राह स्नेहो न ज्ञायते देवि, प्रणामेन तदुक्तिभिः । ज्ञायते तु क्वचित् कार्ये सद्यः प्राण-प्रदानतः ॥ १६६ तदनन्तरं बुभुक्षिता तृषिताऽपि न किञ्चिदपि मार्गयति । एवं सम-स्नेही मार्गे गच्छतः । चंदो धवलिज्जइ पुण्णिमाए, तह पुण्णिमा वि चंदेण । सम-सुह-दुक्खाई जये पुत्रेण विणा न पामेति ॥ १६७ एवं क्रमेण गच्छताऽग्रे रम्यं काननं दद्दशे ।। पूगाशोक-कदम्ब-चूत-बकुलाः खजूरिकादि-गुमास् चंचत् पुष्प-फलौघ-पल्लव-युताः शाखोपशाखान्विताः । यत्रान्तर्जलवापिका जल-भृता पद्मावली-शोभिता क्रीडन्ति । प्रसभं चकोर-बतका हंसाः सदाराः शुकाः ॥ १६८ तत् समासन्नं जल-पूर्ण सरोऽस्ति । तच्च - कलहंस-कलकल-जलकुर्कुट-संङ्कलम् । छबत्कारैः सुकल्लोलैः पालि-भग्नैः सुशोभितम् ॥ १६९ सोपानैः परितो बद्धं पद्मिनी-खण्ड-मण्डितम् । सेतु-युक्तं जलापूर्ण राजते यत् सरोवरम् ॥ १७० तत्र संजात-मज्जनाभिलाष: कान्तया सह कुमारो जल-क्रीडां विधाय पाल्युपरि सहकार-वृक्षस्याति-सुपक्व-फलैः कृत-प्राण वृत्तिस्तच्छायायामुपविशति । तददूरे स्वर्ग-भवन शोभं श्रीयुगादीश--प्रासादं पश्यति । मण्डप-श्रेणिस्तम्भ-परम्परा स्थित-शालभञ्जिका-सुवर्णकुंभ-द्वासप्तति-देवकुलिकाभिरामम् । Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम् ततश्चिन्तयति-निश्चितं जैन-प्रासादोऽयं नहि शैवादि प्रासादस्तेषु बहु-मण्डप-भवनदेवकुलिका-श्रेणि-शोभाभावात् । अत सानन्दं तत्र देवनत्यर्थं गतो मध्ये स्त्रैण - कलकलं श्रुत्वा जालिकान्तरे विलोकयति । प्रासादान्तः स्त्री-राज्यमिव दृष्ट्वा सदयः पत्नी प्राह- अहं। मध्ये कथं व्रजामि । केवल-स्त्री-मध्ये मम गमनं नार्हति । त्वं व्रज । मुख्या काऽत्र किमर्थं वा तिष्ठन्तीमा इति ज्ञात्वा देवं च नत्वा समागच्छेति । सा भर्तुरादेशं प्राप्य मध्ये जगाम । तत्र काश्चन वीणा-नाद-पूर्वं गायन्ति । केसर-चन्दन-पूरित-कच्चोलक-कराः काश्चन देवं पूजयन्ति । तास्वेका लीलावती नामाऽबला स्वरुप-सौभाग्य- रञ्जित-रम्भा श्रीजिनाग्र उपविष्टा ध्यानं करोति । सावलिंगी तत्समासन्ना पञ्चाङ्ग-प्रणामेन श्रीयुगादीश्वर-देवं नत्वा स्तौति । नान्यं वदामि न भजामि न चाश्रयामि नान्यं शृणोमि न यजामि न चिन्तयामि । लब्ध्वा त्वदीय-चरणाम्बुजमादरेण श्रीवीतराग भगवन् भज मानसं मे ॥ १७१ इति । ततः सावलिङ्गी ध्यानस्थां बालामुवाच-सखि वन्दे । तदा सावलिङ्गी नवीनां सुरुषां वैदेशिकी ज्ञात्वा ध्यानं मुमोच - यतः - अभिनव-जनावलोके, विदेश-वार्तादि-कौतुक-प्रश्ने । देशाचार-विचारे कस्य मनो नोत्सुकीभवति ॥ १७२ ध्यानकर्ती हस्त-योजनेन सावलिङ्गी वन्दित्वा पृच्छति - हे सखि त्वं कुत आगता। कथमेकाकिनी सावलिङ्गी प्राह-अहं मालवकदेशादुज्जयिनीत आगता । न चाहमेकाकिनी । मम सार्थोऽस्ति यो भवे भवे स एव भूयात् । सावलिङ्गी पुनस्तां पृच्छति-का त्वं । किमत्र शून्यारण्य-गत प्रासादे ध्यान-लीना स्थिताऽस्ति । ततः सा प्राह-मद्वाः शृणु । इतः पञ्च कोशे द्वारपुर्यस्ति । भारती-स्पर्धया यत्र, लक्ष्मी प्रतिगृहं स्थिता । यद्वाऽति सुगुणं चक्रे, श्रीराश्लिष्यति तं खलु ॥ १७३ तत्र धरवीरो नाम नपतिर्यत्करे लग्नाऽसिलता-वधर्बहवैरिकान गहन्त्यपि नाऽसतीभावमाप्नोति । तस्य धारिणी नाम पट्ट-राज्ञी । तस्याः पञ्च-पुत्रोपरि जाताऽहं लीलावती नाम पुत्री । यौवनस्था पितुर्वर-विषय-चिन्ता-शल्य-प्रदा बभूव । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम . यतः - जणयं दुरंत-चिंता - पारावारम्मि खिवइ वढुंती । इक्का वि धुवं कन्ना ससल्ल-हिययं कुणइ निच्चं ॥ १७४ अन्यदा राज-सभायां राजा स्थिताऽहं बन्दि-जन-मुखात् प्रभुवत्स-राज-सुतस्य सदयवत्सस्य रूप-सौभाग्य-शौर्यादि-गुण वर्णना-प्रपञ्चम श्रौषंम् । ततो मया मनसि चिन्तितंयदि स एवंविध गुण-पात्रमस्ति तदा स एव वरो मेऽस्त्विति । षण्मासान्त स्तत्प्राप्ति-कृतनिश्चयाऽत्र स्थिताऽस्मि, यत इदं कामिक-तीर्थं, अस्य देवस्याधिष्ठायिकैः पूरित-सर्व-जनाशंउक्तं च - ओषधीनां च मन्त्राणां, सत्य-भक्तेः सुपर्वणाम् । असाध्यं नाऽस्ति लोकेऽत्र यद् ब्रह्माण्डस्य मध्यगम् ॥ १७५ यदि षण्मास-मध्ये सदयवत्सो मिलति तदा स । मे वरोऽस्तु । नो चेत्तदाऽत्र काष्ठभक्षणं करोमि । अद्य तु षष्ठमासस्यैकोनत्रिंशत्तम दिनम् । स तु मम न मिलितः स्वकर्मदोषतः । यतः - समीहितं यन्न लभामहे वयं प्रभो न दोषस्तव कर्मणो मम । दिवाऽप्युलूको यदि नावलोकते तदा स दोषः कथमंशुमालिनः ॥ १७६ पत्ते वसंतमासे- रिद्धि पावंति सयल-वणराई । जं न करीरे पत्तं ता किं दोसो वसंतस्स ॥ १७७ सार्थं सती लीलावती ससंभ्रमा पृच्छति । यतो यावान् संभ्नमस्तावान् स्नेहः । आचारः कुलमारव्याति देशमाख्याति भाषितम् । संभ्रमः स्नेहमारव्याति, वपुराव्याति भोजनम् ॥ १७८ सोऽत्र कथमागतः सावलिङ्गी प्रोवाच-तवाराधनतुष्टेन देवेन पितुः कोपमुत्पाद्य तव पाणिग्रहणार्थमत्रानीतः। अत्र केवल xx... xx .....xx. ..... xx ... xx .... xx. ... xxx गिरिभिर्न समुद्रैः ॥ १७६ ततो व्याकुलचित्तेन कुमारेण रात्रौ हरसिद्धिः स्मृता | साऽगत्य प्रोचे-मा चिन्तां कुरु । प्रातर्बहु स्वर्ण दास्य इत्युक्त्वा गता सा। प्रातर्नुपपुत्रा भगिनीपतिना सह द्यूतेन क्रीडयित्वा Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम् स्वहस्त-कलया तं निर्जित्यास्य पार्वेऽपरवस्त्वभावात् तत् -खङ्गमेव गृह्यते, पश्चादस्मत्पादयोः पतित्वा मार्गयिष्यति तदाऽर्पयिष्यते नाऽन्यथेत्यादि हास्यकरणार्थं तत्राऽऽययुः । तैः प्रणामकरण-पूर्वमुक्तो-द्यूतेन क्रीड त्वामस्माभिः सह । कुमारः प्राह-एवमस्तु । परं पण-मोचने वस्तु किमस्तु । तेऽप्याहुः तवः खङ्गमस्माकं सुवर्णं पण-मोचनेऽस्तु । सदयो मनस्यचिन्तयदेतशालका हास्यकरणार्थमागताः सन्ति । मम तु जय एव भावी । एते जिता अपि सुवर्ण नार्पयिष्यन्ति । हास्येनोत्तारयित्वा मोक्षयन्ति । तेन हस्तगतमेव सुवर्णं करोति । अतोऽवक् । तर्हि स्वर्णमस्मत्पाद्येऽत्र मुञ्चत । तैस्तथाकृते देवी-वरदानानुभावाद् द्यूते स्वर्णकोट्यो जिता बन्धुमोक्ष xx xx xx चतुरेण कुमारेण ___ तदा राजकुमारेण हृष्टोऽसौ । तदा ते राजकुमाराः स्वयं धृष्टा हास्यकरणं मस्तकेऽपतन इति चिन्तयन्तो मौनभाजोऽभवन् । धूर्तो घृष्ठो हि मौनभाग् गृह्णाति स्वर्णकोटीर्दाक्षिण्यान्न मुञ्चति। यतः - उल्लोचं प्रीति-दानं च, द्यूत-द्रव्यं कुशीदकम् । सुभाषितं च चौर्यं च, सद्यो गृह्णन्ति पण्डिताः ॥ १८० तेन स्वर्णेन सदयः प्रीणयति मार्गण-गणं । यतः - यैश्च दत्तानि दानानि, पुनातुं च ते क्षमाः । शुष्कोऽपि हि नदी-मार्गः खन्यते सलिलार्थिभिः ॥ १८१ राजा जामातृसहितः स्वपुरीमागात् । स्थापितो जामाता कियन्ति दिनानि । एकदा राजा जामातृ-सहितो राजवाटिकायां व्रजन् वन-मध्ये श्रीधर्मघोषसूरीश्वरान् परिच्छद-युतान् दृष्ट्वा वन्दनाय गतो । वन्दिता गुरवः । यतो यतीनां प्रथममाद्येयं धर्मातिथिर्जनेषु धर्मोपदेश-प्रदानमिति गुरुभिर्धर्मोपदेशोऽदायि तथा - वाञ्छा सज्जनसङ्गमे परगुणे प्रीतिगुरौ नम्रता, विद्यायां व्यसनं स्व-योषिति रतिर्लोकापवादाद्भयम् । भक्तिश्चार्हति शक्तिरात्म-दमने संसर्ग-मुक्तिः खले, येष्वेते निवसन्ति निर्मल-गुणास्तैरेव भूर्भूषित॥ १८२ पुण्यादेव समीहितार्थ-घटना नो पौरुषात् प्राणिनां, यद् भानोभ्रंमतोऽपि नाऽम्बर-पथे स्यादष्टमः सैन्धवः । स्वस्थानात्पदमेकमप्यचलतो विन्ध्यस्य चाऽनेकशो, जोड्यन्ते मद-पालिताः शुभ-यश:-श्री-लम्भिनः कुम्भिनः ॥ १८३ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'चा हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम अपि लभ्यते सुराज्यं, लभ्यन्ते पुरवराणि रम्याणि । नहि लभ्यते विशुद्धः, सर्वज्ञोक्तो महाधर्मः ।। १८४ दारि द्याट्ट-समा धर्माः, परे स्वल्प-फल-प्रदाः । कुत्रिकापण-तुल्यस्तु, जिन-धर्मः सतां मतः ॥ १८५ . स्वल्पोऽपि जिनधर्मो विहितो मृगाङ्कस्येव परम-सौख्य हेतुः । तथा हि मृगाङ्क-पद्मावती -कथा पूर्वे वाराणस्यां पूर्यां व्यवहारि-धुर्यो जिनदत्त-श्रेष्ठी जिन-धर्म-वासित-सप्त-धातुः । श्रीकान्ता तस्य सहचारिणी सुशीलादिगुण-श्रेणि-विभूषित-गात्रा पुत्रं विना दुःखपूर्णा । तां दृष्ट्वा प्राह-प्रिये किं तेऽद्य श्यामाननं दृश्यते । सा प्राह- स्वामिन्नपरं कारणं किमिति पुत्ररत्नं विना । श्रेष्ठी प्राह-दुःख-करणेन किंम् । पुण्येनैव समीहितसिद्धिः । यतः - रम्येषु वस्तुषु मनोहरतां गतेषु रे चित खेदमुपयासि वृथा किमेवम् । पुण्यं कुरुष्व यदि तेषु तवास्ति वाञ्छा पुण्यं विना नहि भवन्ति समीहितार्थाः ॥१८६ तेन पुण्यं कुरु । ततः श्रेष्ठी सभार्य : श्री जिन-पूजनादि नित्यं करोति । तेनान्तरायकर्म क्षयं जगाम । एकदा रात्रौ कला-पूरित-पूर्ण-मृगाकं श्रीकान्ता स्वप्ने ददर्श । प्रातः श्रेष्ठिनेऽकथयत्। सोऽपि पुत्र-जन्म-फलं प्रोचे । साऽपि हृष्टा पुण्याधिकं पुरुषं गर्भ बभार। नवमासैर्जन्माभूत् । एकादशमे दिने स्वप्नानुसारेण मृगाङ्क इति नाम चक्रे पिता । एक एव पुत्रस्तेनाऽप्यति-वल्लभः । कालेन कला-ग्रहण-योग्योऽभूद् उपाध्यायार्पितः । तत्रैव पुरेऽहंदास-व्यवहारी जैनः । शीलवती च पत्नी । पद्मावती पुत्री बहुपुत्रोवरि जाता । साऽतिरूप-निजित-सुरसुन्दरी-रूपा । साऽपि लेख-शालायां मुक्ता । द्वावप्येक-शालायामुपाध्यायपार्श्वे पठतः । प्रज्ञाप्रकर्ष-चमत्कृत-जन -हृदयौ मिथो-मैत्री-भाजौ यां सुखभक्षिका-मानयतस्तौ मिलित्वा भक्षयत एवं प्रीति-परौ स्तः। एकदा पद्मावती पट्टिका-मञ्जनाय गृहे गच्छन्ती पट्टशालास्थेन पित्राऽऽकारिता पृष्टा तत्र पाठं पठिता च । हृष्टेन पित्रा नवतिः कपर्दका नापाकरूपत्वात् प्रीत्याऽपिताः । ततः स्व-वस्त्राञ्चले बद्धवा लेखशालायां गता, उत्तरीय-वस्त्रं त्यक्त्वा घोटके संस्थाप्य हस्तलेखं लिखति । मृगाठून तद्वस्त्रं दृष्ट्वा ते गृहीताश्छोटयित्वा तस्या अकथयित्वैव । पूर्वं च प्रीतिभावात् । तैः सुखभक्षिकामानीय भक्षिता द्वाभ्यां । क्षणान्तरे पद्मावत्या ते स्वकपर्दाः सम्भालितास्तस्मै दर्शनाय । न दृष्टाः । पृष्टं च क्व मे कपर्दकाः । मृगाङ्केनोक्तं मया गृहीत्वा सुखभक्षिकाऽऽनीताऽऽवाभ्यां भक्षिता च । सा प्राह-आः मया तैराभरणानि चिकीर्षितान्यभूवन । तेन पृष्ट-मेतैः कथममूल्यान्याभरणानि भवन्ति । सोचे। एकया बुद्धिमत्या पञ्च-व्रीहिभिर्मूटकशतानि व्रीहीणां कृतानि । ततस्तेन चिन्तितम्-मया कपर्दा Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम् गृहीताः परमेतस्या अरोचमाना अभूवन । तन्न भव्यं कृतं मया । नवीना आनाय्याऽर्पयति। सा न गृह्णति । कालेन विस्मृतिं गतम् । द्वयोरपि परस्परं प्रीतिस्तथैव परं सहृदये भक्षित इवास्थात् । कालेन पठित्वा तावुत्तीर्णो । एकस्मिन्न्दिने तेनैवोपाध्यायेनानयोर्विवाहार्थं तत्पितरः पृष्टाः । तैरुक्तं-वर-कन्ययोस्ताद्दक्-प्राप्त्यभावेनैव स्थिताः स्म । उपाध्यायेनोक्तं-यदि कुरुत तदा वर-कन्यानुयोगं वरतरमहं कथयामि । तैरुक्तं-यूयमेव मेलयत । उपाध्यायेन तयोः पित्रोः कथयित्वा पूर्व-प्रीति-सादृश्यादि-सप्त-गुण कथनान्मृगाङ्क-पद्मावत्यो-विवाहो मेलितः । महता महेन तदुत्सवोऽप्यजनि। तथैव प्रीतिरभूत् एकदा मित्र-गोष्ट्या स्वधनोपार्जन-विचारैर्मुगाङ्को मित्रैः सह सिंहलद्वीप-गमनाय पित्रोविज्ञप्तिमकरोत् । तेऽप्याहुः सृतं तव धनोपार्जनेन । एक एव त्वमस्माकं सुतः। पुराऽपि धन-संख्या नाऽस्ति तव । गृहे सुखं भुंझ्व निश्चिन्ततया । स चाऽतीव विदेशं जिगमिषुर्बाढं नित्यशोऽकथयत् । तैश्चिन्तितम-एषन स्थास्यति । ततोऽनुज्ञातस्तैः क्रयाणकैर्वाहना न्यष्टादश पूरयामास । ततो भार्या-मुत्कला पिता । सा वक्तिदेहच्छायावदहमन्वायास्यामि । पत्योक्ता-तव विदेशे दुष्करं । सा वक्ति-जीवितव्यं वा मरणं वा व्यसनं वा यद्भवति तद्भवतु तथापि सार्धमागमिष्यामि । बहु पर्यवसापिताऽपि न स्थिता। सार्धं च चचाल । स्वजनाः कियन्तं पन्थानं जल-पथेन संम्प्रेष्य पश्चाद्वलिताः । वाहनानि सुवात-प्रेरितानि समुद्र-मध्ये बहु-योजन-शतानि जग्मुः । अन्तर्वीपागमे पाञ्जरीस्थेन नरेणोक्तम् जलादि-ग्रहण-योग्यो द्वीप आगतोऽस्ति । लोकैरुक्तम्-उत्तीर्यन्तामुत्तीर्यन्ताम् । ग्रहीष्यते जलादिकं। वाहनानि नाङ्गरित्वा जना उत्तीर्णाः । मृगाङ्कोऽपि पत्नी-सहित उत्तीर्य द्वीप-विलोकनं कुर्वन् दूरे जगाम । लोकास्तटाके स्नान-धोवन-परा अभूवन् । मृगाङ्को लता-मण्डपे गत्वा स्थितः सुप्तः । पत्नी सुप्ता निद्राणा च । तावता पूर्व-भव-कर्मवशान्मृगाङ्केण गूढ-रोषेण चिन्तितम्मुञ्चाम्येनामत्रैव। ते कपर्दास्तद्वस्त्राञ्चल-ग्रन्थे बद्धवा चिट्ठडिकां लिलेख यथा-अत्र स्थितेतैः कपर्दैराभरणानि कारर्ये । पूर्वचिकीर्बुद्धये । इति लिखित्वा प्रच्छन्नमुत्थाय त्वरित-पदैरागच्छन लोकैः पृष्टः । किं किं। स रुदन्निवदन् भार्या राक्षसद्वीपेऽत्र राक्षसैक्षिता । यूयं नश्यत नश्यत। ततो लोका भय-भ्रान्ताः शीघ्रं प्रवहणानि पूरयित्वा चेलुः । समागताः शोकं कुर्वन्मित्रैः पर्यवसिताः । ततो बह्वी-वेलानन्तरं सा पद्मावती जजागार। पतिं न पश्यति । सर्वत्र विलोकयति वक्ति च-हे समुद्र ममवैरिवद्-भूत त्वन्मध्य एव पतित्वा प्राणान्त्यजामि । इति विचार्य पतनाय स्व-वस्त्रं दृढीकरोति । तावता ग्रन्थिः करे लग्नाः चन्तितम्-एष कीद्दग । ग्रन्थिः । छोटित्वा विलोकयेयम् । सप्तनवतिः कपर्दा दृष्टाश्चिट्ठडिका च वाचिता । तत्र लिखितं वज्रातिपात-सदृशं व्यतिकरं ज्ञात्वा चिन्तयति - हा धिक् ! पुरुषाणां कीदृग-गूढ-दीर्घ-रोषित्वं । अन्तर्गृढ निबद्धहृदयाः प्रायो नरा मानिनः तत्सत्यमेव। कस्य कालस्योक्तं कस्मिन् काले स्मृतिपथे समानीतं । इयन्ति दिनानि हृदये कथंधृतं । Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम अथवा देहो हिययंवाणि तिण्णि वि चिय निट्टराणि पुरिसाणं । हय-विहिणा विहियाई न याणिमो के हिं वि दलेहिं ॥ १८७ xxx . . . . xxx, दलेहिँ अइ निठुरेहिं निम्मवियं । तत्तो अवसेसेहिं कुलिस पि हु निम्मियं मन्ने ॥१८८ ततः साऽपि मानवत्यहङ्कृतितश्चिन्तयति त्वं राजा वयमप्युपासित-गुरु-प्रज्ञाभिमानोन्नत इति । तन्मनोदुःखं निवार्य साहसमवलम्ब्य चिन्तयति-अयं विस्मृतानत्य- ज्ञात्वैव त्यक्ता । नमस्कारौ प्रतिष्ठाप्य - उपसर्गाः क्षयं यान्ति छिद्यन्ते विघ्न-वल्लयः । मनः प्रसन्नतामेति पूज्यमाने जिनेश्वरे ॥१८९ इति ध्यानेन भक्त्या पुष्प-फलैः प्रपूजयति । धर्म-ध्यान-परा स्वकर्म-विपाकं चिन्तयति। जइ पइसइ पायाले ॥ १९० कि मुससि ॥ १९१ हसंतो हेलपा ॥ १९२ धम्मेण विणा जइ चिंतिआई ॥ १९३ इत्याधुपदेशैः स्वं संधीर्य पापं निर्जरयति । समुद्र-तटे षट्पूलकमालां कृत्वा प्रौढवंशाग्रे बध्नाति । समुद्रान्तः-पतितं चिह्नमिति । रात्रौ वृक्षाग्रे मालकं कृत्वा स्वपिति श्वापदभयेन । फलाहारैर्दिनान्यतिवाहयति । इतश्च सिंहस्थल-द्वीपतः पद्मनाभ-सार्थवाहस्य सप्त वाहनानि तन्मार्ग आजग्मुः । तद्धवज-चिह्नं दृष्ट्वा लोकैरुक्तम्-कोऽप्यत्र मनुष्योऽस्ति । अत्राऽऽनीयते । अन्यथा जल-पथे क्षेमं न स्यात् सांयात्रिकाणाम् मुख्य-व्यवहारिणा जनाः प्रेषिताः । तानागतान् दृष्टवा भयातुरा चिन्तयति-ममैते किं करिष्यन्ति । तैरुक्तं मा भैषीः । तवाऽऽनयनायागताः स्म । तत आनीय व्यवहारिणे दत्ता । पृष्टं स्वरूपम्-तेन । तया पोतभङ्गाद्युक्तं न पतित्यजनं । भोजनमोदकादि दत्तम् । एकान्तरापवासान् xxx तद्रूपमोहितः स तां प्रार्थयति-त्वत्पतिस्तु समुद्रे मग्नः ततस्त्वं मम गृहस्वामिनी भूत्वा सुख-सर्वस्वं भुक्ष्व । सा न शृणोति । तदनन्तरं स्वदेह-कान्ति कृशतायै क्षपण-द्वयेन भुङ्क्ते । स प्रत्यहं प्रार्थनेन । तामुद्वेजयति । ततः सा जिन-पूजानन्तरं वक्ति- हे श्री ऋषभ, दुष्कर्म-चूरक तव पूजाका ममेद्दगदुःख विध्वंसय । इति स्मरन्त्यास्तस्याश्चक्रेश्वरी प्रादुरभूत । देवी प्राह-वत्से तव शील-प्रभावेण जिन-भक्त्या च तुष्टाऽऽगता । तयोक्तम्-मम शीलरक्षा स्यात्नथा कुरु । ततस्तया वातप्रयोगेण तस्य सप्त वाहनानि भग्नानि । पद्मावत्या फलकं प्राप्तम् । दिनत्रयीं कल्लोलैः प्रेरिता जलधो स्थिता । मत्स्यैरुपद्रुताऽपि देवतया समुद्रपतिताऽपि नोद्धृता । त्रिदशैरपि Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्षवर्धन - गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम् प्रतीकारो न भवति पापकर्मणम् । ततो जल-गजेनोल्लाल्य नभोङ्गणे क्षिप्ता । पतन्तीं वैताढ्यसुखनूपुरवासिना मणिकुण्डली - नाम्ना विद्याधरेश्वरेण गृहीत्वा स्वगृहे नीत्वा सहस्र - पाकक-तैलाद्यभ्यङ्गेन तद्देहं सज्जीचकार । मनोज्ञाहारै रूपं प्रादुरभूत् । सोऽपि तां तताविध रूपां दृष्ट्वा रागान्धः प्रार्थयति-मन्यस्व माम् । विद्याधरीवृन्द प्रणतपादा x x x x भुङ्क्ष्वत्यादि वागुक्तिभिः । यतः - नवि अत्थि नवि य होही, सो जीवो तिहुयणम्मि सयलम्म । जो जोव्वण मणुपत्तो, वियार - रहिओ सया होइ ॥ १९४ मांसं मृगाणां दशना गजानां, चर्म द्विपारे: सुफलं तरूणाम् । वित्तं नराणां वपुरङ्गनानां, गुणाधिका वैर-करा भवन्ति ॥ १९५ सा तं प्रतिबोधयति : ३१ वरमिह समुद्द-पडणं आजम्म-निक्कलंकं लज्जिज्जइ पमयाले ॥ कं चातं ॥ १९८ इत्यादि वाक्यैःस्त्वं मे तातो जीवितदानात् । तवाऽनेका रम्य - रूपा भार्याः सन्ति । किं मम प्रार्थनया । पादयोः पतित्वाऽ होऽहं तव पुत्री । पुत्र्या यद्यद्विधीयते तत्तत्कुरु । इति विनय-चातुर्यादि-गुण-रंजित स्तच्छील - हृष्टायास्तस्या वैराग्यवाक्यैः प्रतिबोधित - हृदयस्तां पुनः पादयोः पतित्वाऽहोऽहं तव पुत्रीत्वेन प्रपन्नवान । स वक्ति-वत्से स्त्री राद्धं धान्यम् । क्षणविनश्यति । सा वक्ति- तव पितुः प्रसादेन सर्वं रुचिरं भविष्यति । ततो विद्याधरेणौषधिद्वयं दत्तं तस्यै । एकेन रूप-परावर्तो द्वितीयेनेष्टार्थ-सिद्धिः । तथाऽदृशीकरणाञ्जनं विघ्नहरमङ्गुलीयकं च । एकदा तया विद्याधराग्र आमूल-चूलं स्व-स्वरूपं प्रोक्तं पतिमोचनादि । अतो मां सिंहल - द्वीप - मार्गस्थ - पुरे मुञ्च, यथा तस्य तत्राऽऽगतस्य स्व- बुद्धि-वैभवं दर्शयामि । तेन तत्र वेलाकूल - पुरे सुंसमार - पुरे मुक्ता, ओषधि - बलेन नर-रूपं विधाय पुरान्तर्गतो दिव्य- नेपथ्यधरो हट्ट मार्गे गच्छन् नेकच्यवहारिणो हट्टे गत्वोपविष्टः । वार्तालापैः प्रमुदितेन व्यवहारिणा भोजनाय निमन्त्रितः । पुरषेणोक्तमहं कियत्कालं तिष्ठासुरस्मि तेन रन्धनी - गृहं दर्शयत यथा तत्र कियन्ति दिनानि सुखेन तिष्ठामि । श्रेष्ठिना तथा कृते समागत इत्युक्त्वा प्रणामं चकार यच्छीलवता पुंसा स्त्रियं दृष्ट्वा त्रिधा नात्रक - सम्बन्धो गणनीयः । वृद्धां प्रति माता समानवयसं प्रति भगिनी लध्वीं प्रति सुतेति । तया पुत्रत्वेनाऽङ्गीकृतः साहसाङ्कः स्वनाम दधौ रूपेण कलाभिश्च सर्वं पुरीलोकं विर- मापयति । एकदा तेन तस्याग्र उक्तं द्युम्नं गृहाणैक तालवृन्तमानंय वर्यतरं पञ्चविधवर्णकं च । तया तथा कृते स तदेव नगरं करि तुरग - शाला - हट्ट -श्रेणि जलण - पवेसो अ सत्थ-धाओ अ । न सील - रयणं नियं भग्गं ॥ १९६ १९७ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम राजभवन-गढ-मठ-प्रासादादियुतं स्वकलया तत्र वीजणके लिलेख जन-वित्त-चमत्कारकारकं । वृद्धायाः प्रोक्तं मातरयं तालवृन्तो नगर-मध्य अष्टोत्तर-शत-रूप्य-टबै व्यतितव्यो न न्यून-मूल्येन । यदि कोऽपि न गृह्णाति तदा पश्चादानेयः । तया तथा कृते कोऽपि न गृह्णातिमुधाऽल्पकार्ये को धन व्यय करोति । राजसभायां वार्ताऽभूत । नरवर्मराज आह- नगरस्य लज्जेयं यनगरद् वस्तु पश्चाद्याति । स्वभाण्डागारिण उक्तं-त्वया स तालवृन्तस्तदुक्तमूल्येनानेयः । तेन ताद्दग्-मूल्येन गृहीत्वा राज्ञेऽपितो । राजा तं तालवृन्तं तथाविधं दृष्ट्वा चमत्कृतः प्रोचेएतत्-तालवृन्त-चित्रकरमानय । तेन सा वृद्धा तत्र राजभवन आनीता । राज्ञा पृष्टा सा-केनेदं चित्रकर्म कृतं । सा वक्ति-ममाङ्गजेन । राजाऽऽह-इयन्ति दिनानि स न प्रादुरभूत् । सोचेअधुनाऽऽगतो जिपमानितोऽङ्गजः । राजाऽऽह-सोऽत्रप्रेष्यः । तया ओमिति भणित्वा गृहे गतया स प्रेषितो राजजनेन सह राजभवने गतो नृपसमीपे । पृष्टं राज्ञा कलाविज्ञानं । तेनोक्तं-किमेतत् ततो राज्ञापूजितो मानितः । प्रत्यहमत्र त्वयाऽऽगन्तव्यमिति निश्चय-कारापणपूर्वं स विसर्जितः। नित्यं तत्र गमने राजा तुष्टस्तदुक्तशास्त्रविचार विनोदवार्ताभिः । एकदा हृष्टेन राज्ञोक्तं-अन्यत् किमपि वेत्सि । सोऽवक चतुः षष्टिः कलाः स्त्रीणां द्विसप्ततिः पुंसां च कला वेद्मि । यद्वा तन्नाऽस्ति यन्न वेदि । ततो नृपतिराह-मम x x x x सा न गृहणाति । कालेन विस्मृत्य गतम् । द्वयोरपि परस्परं प्रीतिस्तथैव । परं सहृदये भक्षित इवाऽस्थात् । ततः कालेन पठित्वा ताम वध्यायत । ततः स छन्दो-लक्षण-तर्क- धनुर्वेद-नृत्य-दण्डायुधादि सर्वमध्यापितवांस्तां स्तोकैदिनैः । तुष्टो नृपः प्राह-दश ग्रामा उपदीक्रियते ते । यद्दीयते तत् स्तोकं तथाऽपि दशग्रामादिकं किमपि गृहाण । स न गृहणाति । नृपः प्राह-मुधा ओलग-कारापणं न यशसे मम । बहूक्ते स वक्ति- एवं चेततदा देश-दाण-मण्डपिकां देहि । सा राज्ञाऽर्पिता । कागदे लिखितं-वर्षत्रयं यावत् कोऽप्यपरो ने गृहणाति । यस्य तु दाणं मुञ्चामि xxxx तस्य सर्वस्वं गृह्णामि । तथा राज्ञा रावा कस्यापि न श्रोतव्या। एवं कृते सति स देशधनिक इवाऽजनि बहुपरिवारयुतश्चाऽभूत । वर्षद्वयेन बहुकोटयो धनस्यार्जिताः । ततः स्त्रीयोग्यान्याभरणानि पुरुषयोग्यान्याभरणानि च नामाङ्कितानि कारयामास । इतश्चैकदा राज्ञः पुत्री सुरसुन्दरी द्रूपं दृष्ट्वा काम-राग-ग्रहिला तत्-पाणिग्रहणायाग्रहपराऽभूत । राज्ञा तज्ज्ञात्वा विवाह-करणाय स मण्डपिकाधिपः प्रार्थितः । परं स्व-स्त्री-रूपत्वेन न मन्यते स्वं च न प्रकटयति । अतिकदाग्रहेण त्वग्रेतनमेकं xxxx विचार्य मानितं पाणिग्रहणम् । पर मधुनाऽष्टादश-तीर्थ-यात्रा-करणे ममाऽभिग्रहोऽस्ति । तत् करणानन्तरं पाणिग्रहणं करिष्य इत्युत्त्वा पर्यवसापयति राजादीन। ___ इतश्च तृतीय-वर्षस्य षण्मासेषु गतेषु मृगाङ्कोऽपि सिंहलद्वीपतो बहुकोटि-मितानि धनान्यर्जयित्वा तत्रागांत् नाङ्गरितानि वाहनानि । तत्र तटे। दाणमदत्त्वाऽग्रतश्चलितुं न शक्नुवन्ति । ततो नृपं नत्वा मण्डपिकाधिपतिपाइँजगाम । तेन मृगाङ्क उपलक्षितः स्वपतिःमृगाङ्केन नररूपत्वात्स नोपलक्षितः । मृगाङ्केनोक्तम्-अस्माकं दाणं वालयित्वा वाहनानि मुत्कलानि कुरु Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम् ३३ यथाऽग्रतश्चल्यतेऽविलम्बेन । मण्डपिकाधिपेन बाढमादर-परेण भोजनानन्तरं तटे गतास्ते सर्वेऽपि वाहन- वस्तु-जातं विलोकयन्ति । उक्तं च - सत्यं यदि वदिष्यथ तदाऽर्धदाणेन छुटिष्यथ । स्तोकेऽपि कूट-कथने समूलं यास्यत्यत्र लिखितं समस्ति । तेन सत्यमेव वाच्यं लिखनीयं च । एवमुक्तेऽपि ते वणिजः कथं शुद्धं लेखयन्ति । प्रायो दाण-कारापणे गृह-धन-संख्यायां च कूट-भाषका एव जनाः स्युः । तैः सर्व लिखितम् । मण्डपाधिपो धूर्ती वक्ति-पाटयन्त मदृष्टावस्त्र वाहनानि । ततः पाटितानि तद्धृदयानीव तानि । मध्येऽलिखापितानि मौक्तिकविद्रुमादीनां पेट-शतानि स्वर्ण-कलशाश्च बहवो निःसता । अपरमपि सर्व द्विगुणं च पश्यति । अर्ध-दाणग्रहणेऽपि त्वमेवं कूटं वदसीति बाढं तर्जयित्वा xxx पातितास्ते सर्वेऽपि । मृगाङ्कस्तेन बाढ मुपलम्भितो बन्धयित्वा चतुष्पथे नीत्वा नीरोत्तारः कृतो लोकसमक्षं कोष्ठके क्षिप्तः । तत्सेवकजनाः साहसाङ्काय विज्ञपयन्ति मृगाङ्क-मोचनार्थम् । एषाऽपकीर्ति र्देशान्तरे यास्यतीति राज्ञा निवेदिते कथमपि मुक्तः स स्वगृहे भोजनाय नीतः । सर्वर्वानपि साहसाङ्केन स्नानदेवार्चनादिभिस्तान् प्रमोद्य सार्थेन भोजनायोपवेशिताः । वर्यतर-भक्ष्य-भोज्यादिभिः प्रीणयति। ततो वाहनसत्कं वस्तु-जातं स्व-गृह आनाया स्थापितं । मृगाकोऽपि द्विगुण-त्रिगुणादि-दानेन मोचनाय कथयति । स वक्ति-प्राणान्तेऽपि त्वां जीवन्तं न मुञ्चामि । तद्धृदयगत-भावमजानम् मृगाङ्कः सर्वं गृहीत्वाऽस्मान्मुश्चेति वक्ति । तथापि न मुक्तः सः । ततस्ते सर्वेऽपि चिन्तापरा जाताः किंकर्तव्यतामूढाः सन्ति । तान् सर्वान् चित्रशालायां समीपे शण्णशय्यायावयशय्यासु स्वाययति सहसाङ्कः । शेष-षण्मासैमण्डपिका-लेखं निर्वालितवान् राज-समक्षं परिपूर्णप्राये मण्डपिकावधौ एकदा स्वावास-मध्ये मृगाङ्कमेकं स्व-शय्यासन- शय्यायां शाययति । वार्ताभिर्बह्वी रात्रिर्गता । मृगाङ्केनोक्तं-रङ्गवार्तायामस्माकं कथमपि मुश्चिष्यथ ? स आह-हास्येन अधुना मम पातल एक-सेर-घृत मवडायसि तदा मुञ्चामि । स तथा करोति परवशे पतितः । परं सेरघृतं यदा तिष्ठत्येष निद्राण इति विमृश्य घृतं पीतं तेन रे पापिष्ठाधमाधम ? इत्युदित्वा तजिवः । तावत् कपट निद्रासुप्तः स उत्थाय वक्ति-अहो ! व्यवहारी रात्रौ घृतं पिबति रङ्क इव । लज्जितो मृगाः श्याममुखोऽस्थात् । ततो मध्ये गत्वौषधि-वलयं मुक्तम् । स्त्री-रूपं विधाय स्वाभरणानि परिधाय बहिरागात् । प्रोक्तं तस्य-मामुपलक्षयथाः । उपलक्षिता मृगाङ्केण पद्मावती । चमत्कृतश्चिन्तयति-किमेतत् क्षणान्तरे स पृच्छति । ततः सा पादयोः पतित्वा तं क्षामयतिमया त्वं बाढं विगोपितः खेदितश्च, त्वदुक्तं मया कृतम् । मध्ये लात्वा सर्व दर्शितम् । लज्जितः स। वक्ति-कथं कथं कृतं ? सा यथावृत्तान्तं सर्वं प्राह । ततः सोऽपि तां क्षामयति-त्वं मया मुढेन जीवित-सन्देहे क्षिप्ता परं स्व-भाग्येनैव जीविताऽसि । एतन्मम किं कृतं त्वया परं दर्प उत्तारितः । प्रातस्तत्सुहृदस्तत्स्वरूपं ज्ञात्वा मृगावं धिक्कुर्वन्ति-एवं भाक्तिको स्वप्रियां मायाप्रपञ्चेन निर्मानुषे द्विपे त्यजसि । ततः क्रमेण राज्ञोऽग्रे वार्ताऽभूत-देव ! माण्डपिकोऽद्य Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम स्त्रीरूपोऽभूत। राजा पृच्छति-इंह भवे परभवे वा । ते प्राहु-इह भव एव । राजा कौतुकी तदाकारणाय स्व-मन्त्रिणं प्रेषयति । सा वक्ति-ममाऽतः परं प्राग्वदागमनं न भविष्यति । ततः स्त्रियः प्रेषिताः ताभिः सह सुखासन उपविश्य राजभवनं गता । राज्ञा पृष्टा स्वस्वरूपं मूलत आह । नृपोऽपि तबुद्धया चमत्कृतो [प-छति-] मम पुत्री तव दत्ता तत् कथं । सा वक्तितदा मम हृदये पतिरेवासीत् । एषाऽपि मम पत्ये भवतु । प्रीतिपरा मम भगिनी भविष्यति, यदि x... x...x... x... x तदा दातु । नोचेद्यथारुचि कुरु । सर्वैरुक्तम्-एष व्यवहारी धनवानस्यैव दीयतां । तस्य दत्ता सा । राज्ञा विवाहो महद्धर्या विहितो । राज्ञा तस्मै बहु दत्तमन्यदपि वरं भोजनम् स । माण्डपिकेन भार्यावचनात् षण्मासैमण्डपिकोत्तीर्णा, स्वपुरगमनायोत्साहोऽभूत् । ततो वाहन-द्रव्यैरपूर्णे राजदत्तैश्च वाहनं-पूर्णी करोति । राज्ञा स्वपुत्री च पद्मावत्यपि बहु-धन-दानेन सत्कृता । स्थलमार्गेण कटकं प्रेषितं शेषं जलमार्गेण । मृगाङ्क: स्वपुरे गतो द्वाभ्यां पत्नीभ्यां सहितः सौख्यं भुङ्क्ते । स्वोपार्जितैर्धनैर्दानादि करोति । एकदा ज्ञानवद्-गुर-त्योगे स्वं-पूर्व-भवं पृच्छति मृगाङ्को । मतिसागर-गुरुराह-पूर्वभवे धन्यपु-नामनि सामान्यग्रामे वीराङ्गदो नाम क्षत्रियो दरिद्री । वीरमती भार्या । अन्यदा ग्रामान्तरे गच्छन् वटवृक्षवडवामीषद्रक्तवां दृष्ट्वा स्वर्ण-निधि निश्चित्य खनन एक एव स्वर्णटङ्को लब्धःशेषा xx..xx..xx.. एवं चिन्तयति स-मेघेऽमोघधारेऽधिकं नाऽऽप्नोति बप्पीहः । तथा गामंतराणि देसतराणि देसंतराणि विविहाणि । हिंडंतो वि न सावइ, लच्छी तुच्छं पि निब्भायो ॥ १९७ तं लात्वा गृह आगात् । तद्दिने शालि-तन्दुल-घृत-सिता-दुग्ध- मानीय परमानं कारितं । भोजनायोपविष्टः । तावत् कोऽपि जयदत्त ऋषिरागान् मासोपवासी । भक्त्या तस्मै परमानं दत्तम् । वीर-मत्यपि हृष्टाऽनुमोदयति 1 बहुदानेऽपत्यानां नोद्धरिष्यतीति किञ्चिच्चित उद्वेगं दधौ । पत्या तु चतुरेण प्रोक्तं - मोद्वेगं कुरू । अनेनर्षिणाऽऽत्म-दत्तमेव गृहीतं नाऽन्यथा न बलेन । तव बालानामपि भविष्यति । ततः कस्मान्मनसि दूयसे । ततस्तयाऽपि भावो धृतः । द्वाभ्यां मानुष-भव-सम्बन्धि-भोग-फलं कर्माजितं । ततो मृत्वा त्वं मृगाङ्कोऽभूद्वीरमती पद्मावती । पूर्व-भव-स्नेहेनेह भवेऽपि युवयोः प्रीतिः । दानावसरे किञ्चिन् मनसि प्रद्वेषेण समुद्रान्तर्मोचन-कुटुम्बवियोग-जलहस्त्युलालनादि दुःखं सेहेऽनया । इत्यादि पुर्वभववृत्तान्तं श्रुत्वा द्वयोर्जाति-स्मृति-धर्म कृत्वा स्वर्गापवर्गश्च इति मृगाङ्क-कथा । एवं संसार-दावानल-घनावली श्रवण-स्पृहणीयां सुभाषितां च गुरु-देशनां श्रुत्वा तत्र राज्ञा सदयवत्स-कुमारेण च श्रावक-धर्मः प्रपत्रः । ततो वन्दित्वा गृहेषु जग्मुः सर्वे । राजा सदयस्य देशान् ददाति । स नादत्ते । अन्यदा चलन-समये राज्ञोऽग्रे वक्ति-अहं चलिष्यामि। अधुना तव पुत्र्यचैव तिष्ठतु । ममक्वाऽप्यवस्थाने सत्याकारणं करिष्यते । इत्युक्त्वा [मुक्ता] Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम् लीलावती पितुर्गृहे । ततश्चलन्तं कुमारं राजा वक्ति-अश्व-रथादि-सेना-युत आडम्बरवान् व्रज । यतः - नादरं कुरुते कोऽपि, निर्वेषस्य जगत्-त्रये । आडम्बराणि पूज्यन्ते, सर्वत्र न गुणा जने ।। १९८ सभायां व्यवहारेषु, शत्रु-मध्ये जनेषु च। आडम्बरेण पूज्यत्वं, स्त्रीषु राजकुलेषु च ॥ १९९ भवेत् परिभव-स्थानं, पुमान् प्रायो निराकृतिः । विशेषाडम्बरस्तेन, न मोच्यः सुधिया क्वचित् ॥ २०० वपुर-वचन-वस्त्राणि, विद्या-विनय-वैभवाः । वकार-षट्क-हीनो-हि, नरो नार्हति गौरवम् ॥ २०१ सदयः प्राह नायं वागवलासो मम चेतो हरते । एकोऽहमसहायोऽहं, कृशोऽहमपरिच्छदः । स्वप्नेऽप्येवंविधा चिन्ता, मृगेन्द्रस्य न जायते ॥ २०२ तथा - सीह सउण नवि चंदबल,नवि इच्छइ धण-ऋद्धि । एकल्लउ गयघड भिडइ, जिहां साहस तिहां सिद्धि ॥ २०३ अतो नमे सहायैः कार्यम् । ततः सावलिङ्गी-सहितश्चचाल सदयः । मार्गे गच्छन् मपि पुरुषाणां शब्दानशृणोत् । चिन्तितम्-क्व श्रूयन्ते रवाः । इतस्ततो विलोकयति । तावता क्वापि पर्वते प्रौढ-शिला-पिहित-द्वारा गुहा दृष्टा । शब्दानुसारेण तत्र गतः । शिला-पृष्ठतः केऽपि स्थिताः सन्ति । तत्र श्रूयन्ते रवा इति विमृश्य पाणिभ्यां शिला पृथक्कृता । ततोऽग्रे प्रौढसौध-समा गुहाऽस्ति । मध्ये पञ्च पुरुषाः सन्ति वार्तयन्तः । तैर्दृष्टः कुमारः सुरूपभार्यः । तैश्चिन्तितम्- शिला-मुद्रिते द्वारे कथमयं मध्य आगात् । नायं सामान्यः किं [तु] कोऽपि सल्लक्षणो राजाङ्गजो गण्यते महान् । तैः परस्परं प्रोक्तम्-यद्स्य सुरसुन्दरी-समा स्त्र्यस्ति तत एनं हत्वा स्त्री गृह्यते । एकेनोक्तम्-मेवं मुधैव किं मार्यते । उपायेन स्वयं भ्रियते तत्-क्रियते । पुनस्तैरुक्तम्-एवं साधु । वयं द्यूत-व्यसनिनो विद्यासिद्धाश्चौरा ततोऽयं प्रथममाकार्यते । धूर्तावर्जनया विश्वस्तो मस्तक-पण-घूतेन जित्वा शिरोऽस्य गृह्यते । अस्मिन् मृते त्यात्मीयैव भविष्यति इति विमृश्य तैराकारितः । प्रीति-पोषकवाग्भिः । प्रीतो गतः स तत्रोपविष्टस्तत्पावें। तैः पृष्टं-भोः पुरुषोत्तम् त्वं कथमत्रागाः अस्माकमिदं स्थानं न कोऽपि वेत्ति । कुत आगतश्च । शिला कथं पृथक्कृता । वयं पञ्चाऽपि मिलित्वा शिलां चालयितुमशक्ताः । इत्युक्ते कुमारो वक्तिअहं । दुर-देशादागतो भवतां शब्दान् श्रुत्वा कौतुकादत्रगच्छम् । Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम शिला-पृथक्करणे तु किं दुष्करं पौरुषवताम् । ते पञ्चाऽपि चमत्कृताः कथयन्तिवरमागतोः । अत्रोपविश । कौतुकं क्रियते । उपविष्टः स । तैरुक्तम्-द्युत-रमणं वेत्सि कुमार ओमिति वक्ति । तैरुक्तम्-रम्यते । स आह-वरं । परं मम पार्वे पण-मोचना/ नास्ति । तैरुक्तम् सर्वेषां मस्तकमेव पणोऽस्तु । कुमारेण चिन्तितमेते कौटिल्येनैवं वदन्ति । यतः - आकारिङ्गिःतैर्गत्या, चेष्टया भाषणेन च । नैत्र-वक्त-विकारेश्च, लक्ष्यतेऽन्तर्गतं मनः ॥ २०४ कौटिल्यं त्वेतेषां मस्तकेष्वेव पतिष्यतीति कुमारः प्राह-एवं भवतु । ततो द्यूतेन हरसिद्धि-प्रभावात् पञ्चानामपि शिरांसि जितानि । तैरुक्तम्-गृहाणास्माकं शिरांसि । ततः कुमारो वक्ति - भोः प्रायो मित्रैर्धातृ-बन्धु-वगैः सह प्रीत्या रम्यते । तेन युयं मम भ्रातृतुल्याः । यतः - सहोदर सहाध्यायी, मित्रं वा रोग-वालकः । मार्गे वाचा कृत-प्रीतिः, पञ्चैते भ्रातरः स्मृताः ॥ २०५ तेन भवतां शिरांसि कथं छिनद्मि । तेन हृष्टा जीवितदानेन वदन्ति-भो अद्य-प्रभृति यज्जीव्यते स तवैव प्रसादो । वयं तव किङ्कराः । त्वं स्वाम्यस्माकम् । वयं तु तव द्रोहं चिकीर्षवः पापिनोः । द्रोहोऽस्माकमेवोपरि पपात । यतः - द्रुह्यन्ति ये महात्मभ्यो, द्रुह्यन्त्यात्मानमेव ते । सूर्येन्द्रग्रह-द्रुग्-हुः, शीर्ष-शेषोऽभवन् न किम् ॥ २०६ तथा - सौम्ये विरूप-चिन्तायामपि स्वस्य विपद्भरः । दधि-मन्थचिकीर्मन्थः स्त्रीभिर्बद्धो निरीक्ष्यताम् ॥ २०७ कुमारः पृच्छति-कथं ममोपरि द्रोहश्चिन्तितः । तैः सत्यमेव स्व-चिकीर्षित-कृत्य मुक्तम् परमस्माकमेव तदभूत् । त्तव रक्षा दैवेन कृता यतः - बप्पईडा ! वड भूस्तरुं (?) किम राखिसि अप्पाण ? । तलि आहेडी संचरइ, झय(?)सिरि भमइ सींचाण ॥ २०८ आहेडी सरपिइ डसिउ, सर लागु सींचाण । बापईउ उडी गयउ, इम राखिउ अप्पाण ॥ २०९ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम् ३७ कुमारः पुनः प्राह-के यूयं किमत्र गुप्तास्तिष्ठथ ते प्रोचुर-वयं चौरा विद्या-सिद्धाः । अजक-आमय-मूली-सेवाल-घोराधरा-कारनामानो वयं पञ्चैवाऽत्रस्थाश्चौर्येण धनमाहृत्य विलसामः । ततः सदयश्चलति । तैरुक्तम्-हे सत्पुरुष गृहाण किमपि । स न गृह्णाति । तावत् तुष्टेनैकेनादृष्टं पद्मिनी-पत्र-वेष्टित एकः कंचुको-लक्ष-मूल्य-रत्न-मौक्तिक-खचितः फलक-खोलीआ-मध्ये क्षिप्तः । कुमारो न वेत्ति । निःसृतः सभार्यः सः । तैः प्रोक्तम्-तव किञ्चित् कार्यं महत् कष्टं वा पतति तदा - अञ्जनसिद्धि-रससिद्धि-युद्धबुद्धि-जलतारिणी-गिरिविदारिणी-वैरिदमिनीतालो-द्धाटिन्या काशगामिन्यादि बहु विद्यावतोऽस्मान् स्मरेः यतस्त्वमस्माकं परम मित्रम् । क्षीरेणात्मगतोदकाय स्व-गुणा दत्ताः पुरा तेऽखिलाः । क्षीरे तापमवेक्ष्य तेन पयसा ह्यात्मा कृशानौ हुतः । गन्तुं पावकमुन्मतेस्तदभव दृष्ट्वा तु मित्रा पदं, युक्तं तेन जलेन शाम्यति पुनमैत्री पुनस्त्वी दृशी आरम्भगुर्वी ॥२१० कमारेणोक्तोमिति । चलितश्चाग्रे एकं शून्यं पुरं ददर्श । मध्ये गतश्चतुष्पथे हट्ट-श्रेणि धन-धान्य-सम्भृतां दृष्ट्वा चिन्तयति-यदि कोऽपि मिलति तदा निर्मानुषं पुरस्वरूपं पृच्छयते। परं न पश्यति नरं कमपि । ततो राज-भवनं गतः । सन्ध्यासमये षष्ठभूमौ स्थितस्तत्र । रात्रौ पत्नी निद्रां गता । कुमारो जागति । इतश्च मध्यरात्रौ समीप-वासे काऽपि स्त्री करुणस्वरेण रोदिति । तत्स्वरूप-ज्ञानाय तत्र गतः स । तथा दृष्ट्वा पृष्टा सा-कि रोदिषि । का त्वमत्र पुरे। सा वक्ति - नाहं यस्य तस्याग्रे रहस्यं वच्मि । त्वं तु भाग्याधिकस्तेन तवाग्रे कथयामि । परमधुना रात्रिः। रात्रौ तु रहस्यं भाग्यवतोऽप्यग्रे न वाच्यं यतो नीतिशास्त्र उक्तं - दिवा निरीक्ष्य वक्तव्यं, रात्रौ नैव च नैव च । संञ्चरन्ति महाधूर्ता, वो वर रुचिर्यथा ॥ २११ कुमारेणोक्तं कथमेतत् । सा प्राह-उज्जयिनीपुर्यां विक्रमार्कस्य राजसभा-शृङ्गार-भः पंच-शत-पण्डित-मुख्यो वररुचि-नामा-पण्डितश्चतुर्दश विद्या पात्रम् । अन्यदा राज्ञा स्वक्रीडा-शुको विदग्ध-मुखमण्डन-नामोऽन्यराज्ञः पार्श्वे लेखं दत्त्वा प्रेषितो गगनाध्वना कृतकार्य: पश्चाद्वलमानः पद्मिनी पुरे कस्यापि प्रौढेभ्य-गृहवेदिका-भित्ति-भागे विशश्राम । तत्र रम्भाकारं कन्या-वृन्दं व्यलोकयत सः । तन्मध्य । एकया प्रोक्तम्-अयंशुकः श्रीविक्रमनृपस्य जीवितादपि वल्लभो विदग्धमण्डनोऽधीती नामतश्च । ततस्तद्वयस्याभिः पृष्टम्-कथं वेत्सि। साऽऽह उज्जयिन्यां मातुलस्य गृहस्थया प्राग्दृष्टः । अत्र मम पितृगृहमवन्त्यां मातुः पितृगृहं । सा हृष्टा वक्ति-अहो सुकराज आगच्छ ममोत्सङ्गमलङ्कुरु । तत उड्डीय तदुत्सङ्ग उपविष्टः । सा संवाहनां करोति तस्य कसलप्रश्नपूर्वकं-अहं तव दर्शनात् सनाथैव जीविता । Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम् यतः - पाइअ कव्वं सुविलास-कामिणी सुअण-संगमो गी। एयं रयण चउकं , संसारे निम्मियं विहिणा ॥ २१२ उवयारह उवयारडउ, सव्वउ लोलु करेइ । गुणि अणकीधइ गुण करइ, विरला, जणणि जणेइ ॥ २१३ अथ त्वं मम भाग्येन दृष्टिगोचरे गतस्तदा विक्रमराज्ञे मदीयमेकं श्लोकं कथय प्रसादं कृत्वा । यदि न कथयिष्यसि तदा स्त्री-हत्या-प्रातकं तव । शुक आह-तत् कथय । सा श्लोकं लिखित्वाऽर्पयति - पद्मं तुला रदौ रक्तो तिलकं मञ्जरीयुतम् ।। मुखे दशाङ्गुली-क्षेपः कथमेतत् वयाऽनघ ॥ २१४ एतत् समस्या-श्लोकं तयाऽर्पितं तद्वाचिकं चाङ्गी-कृत्य कीरोऽगात् । तयाऽर्पितः श्लोकस्तेन राज्ञा पण्डित-पार्वे तदर्थः पृष्टः । इतश्च तत्रैवोज्जयिन्यामहि-राजश्रेष्ठी । तत्पुत्रो धनार्जनाय बहु-हेम-टङ्कान् गृहीत्वाऽश्वारूढ एक-क्षत्रिय-जन-साहाय्यो देशान्तरे चचाल । मार्गे धन लोभात् साहाय्येनैव मारणाय स बद्धः । तेन व्यवहारिपुत्रेणोक्तं धनं गृहीत्वा मां मुञ्च । इत्युक्तोऽपि न मुञ्चति तं स दुष्टः । ततो मृत्यु-निश्चयं ज्ञात्वा बुद्धिमता तेन स्व-वैर-वालनाय पितुर्धनार्पणाय चैका सन्देशरूपा हृदयालिका प्रोक्ता तदग्रे-मम पितुरेकं सन्देशं वदेः । अप्रसिख इति । तेनाचिन्ति-एतत् कथनेन मम को दोषः । ततस्तेनाङ्गीकृतम् । कियता कालेन ततः स्वपुरमागात् । तत्पित्राद्याङ्ग मान्द्यादिना तत्पुत्रमरणमुक्तम्। 'अप्रसिख' इति सन्देश उक्तोऽस्ति। तदर्थ तु न कोऽपि पर्यवस्यति । स श्रेष्ठी राज्ञः पुरो गत्वा तां चतुरक्षरां हृदयालिकां वदति, तदर्थं राजा पञ्च-शत-पण्डित-पार्वात् पृच्छति । ते नामापि न विदन्ति । बहूनि दिनानि गतानि परं कोऽपि हियालिया द्वयस्यार्थं न वेत्ति । वररुचि-पाच मिलित्वा सर्वैर्विचारः कृतो दिनत्रयं च मागितम् । ततो विचारं कुर्वतां तेषां दिन-द्वयं गतम् । विषण्णाश्चिन्तयन्ति - कथं ज्ञायतेऽर्थः । तृतीयं दिनमगमत् । परमर्थो न ज्ञातः । यतः - प्रहेलिकां समस्यां च, निधानं हृदयालिकाम् । गर्भोत्पत्ति विपत्तिं च, नैव जानन्ति मानवाः ॥ २१५ कदाऽपि ज्ञानयोगेन, देवतानां प्रसादतः । जानन्ति मानवा नूनं, दैवतांशा भवन्ति ते ॥ २१६ प्रभाते देश-निष्कासनं भावीति दिनान्ते निर्गच्छन्ति भयातुरा:-पण्डिता वर रुचि Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम् ३९ प्रभृतयः । प्रेत-वने वट-कोटरे स्थिता रात्रौ । तत्र भूता बहवो वसन्ति । विनोदं कुर्वन्ति । एकेनोक्तम्-कल्ये पंच-शत-पण्डितानां निष्कासनं विडम्बनं भविष्यति । लघुः पृच्छति-केन हेतुना । वृद्धो वक्ति-शुकोक्तं श्लोकं चतुर-क्षरां हृदयालिकां च न बुध्यन्ते ग्रासं तु भक्षयन्ति। लघुः पृच्छति तस्य कोऽर्थोः । वृद्धः प्राह- न कथयामि । बालनारी नरेन्द्राणां, ग्रहो ग्रथिलसन्निभः । २१७ कङ्क सी-कृते बलभी-भंङ्गः । सीतया हेममृगाग्रहे रावणसङ्गरोः ॥ राज्ञो ग्रहे दुर्योधन मारणम् । ततो वृद्धो वक्ति-शृणु । 'पद्मं तुला रदौ रक्तौ पद्मपुरं' तत्र तुला वणिकपुत्री तिलकमञ्जरी नाम नृपविक्रमेऽनुरक्ता विज्ञपयति तव रदावुर्वाधोरूपौ रक्तौ ममोष्ठौ दशतः पाणिग्रहणानन्तरं चुम्बत इति भावः । मुखेन दत्ताङ्गलीक्षेपो दीनत्वं ज्ञापयति मां परिणयेति । तं श्लोकार्थं वररुचिः शुश्राव । चतुरक्षराणां चार्थो यथा - अनेन तव पुत्रस्य प्रसुप्तस्य वनान्तरे । शिखामाक्रम्य पादेन, खङ्गेन कृन्तितं शिरः ॥ २१८ इति श्लोकं च श्रुत्वा वररुचिहर्षोत्कर्षादुल्लसद्गात्रो वर-कोटरान्निर्गत्य गृहे गतः । तावता पण्डित-धरणाय पुरुषा भ्रमन्ति । केऽपि धृताः । ततो वररुचिः प्रोचे-किं ध्रियन्ते पण्डिताः । - राज्ञः प्रश्नोत्तरमहं दास्ये । तूर्यं ते नष्टाः शृगालाः । कियद् यास्यन्ति । राज्ञा तत्र पुरे गत्वा व्यवहारि-सुता तिलक मञ्जरी विवाहिता । श्रेष्ठिना पुत्र-सत्कं धनं गृहीत्वा स निगृहीतः । ततो लघु-भूतेन वृद्ध भूत-पार्वे पृष्टम्-तात पण्डित-निष्कासनं तवोक्तं नाभूत् तत् किं कारणं-अवधि-ज्ञान तो वररुचि-पण्डितस्य वट-कोटरावस्थानं ज्ञातमर्थसङ्गतिर्मदुक्ता तेन श्रुता । तेन पण्डितानां मानं चाऽजनि । तत्स्वरूपं लघोरग्रे प्रोक्तम् । तत उक्तम्-दिवा निरीक्ष्य वक्तव्यमिति । सदयोऽवगेव-एवं सत्यपि ममोत्सुकस्य कथय । ततः सा वक्ति-तदा शृणु-अहं लक्ष्मीनन्दराज्ञो निर्नाथत्वेन रोदिमि । मम त्वं नाथो भव। . सदयो वदति -भविष्यामि । लक्ष्मीमागच्छती कः पादौनिलोठ-यति । पुनस्तां पृच्छति-इदं पुरं शून्यं केन हेतुना । सा वक्ति-भोःकुमार शृणु । यदि कौतुकम् । अत्र वीरपुरे नगरे भीमसेनो नृपो लक्ष्मी राज्ञी रूप-सौभाग्यादि-निर्जित-रम्भा । इतश्च कोऽपि तपस्व्यत्र समागात् लोकरञ्जनाय । स्त्री-मुखं नाऽवलोकते । मास-क्षपण-पारणे पारणाय लोका निमन्त्रयन्ति। कम्बाधरैर्न रैराश्रयात् स्त्रियोऽपसार्यन्ते । एवं स्त्री-विडम्बनां श्रुत्वा काऽपि वेश्या-अहो ! कपट -पाटवं मर्ख-लोक-रञ्जन-विषये कियान दम्भ इति मन्यमाना तद्वोधनाय भक्तानां गृहे पारणाय गच्छन् दृष्टः । तया तावता वेत्रिभिर्वार्यमाणाऽपि नापसरत् सा । पार्श्व आगत्य तापसमस्तके Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम टुम्बकमदात् । रुष्टस्तापसो विष्णुरिति जल्पन् नानार्थं पश्चाद्वलितो वेश्याया दर्शने नानमिति कृत्वा । राज्ञा ज्ञातम् । साऽऽकारिता पृष्टं च । तत्तापसं पार्वे कृत्वा प्रोचे __आंखिइ मीचि म मीचि मन, नयणि निहाली जोइ । अणु अप्पिहिं जोइंइ, अव नर बीजउ कोइ ॥ २१९ तया राज्ञे ज्ञापितं तद्दम्भ-स्वरूपम् । राज्ञा. तत्स्वरूपज्ञानाय स्वगृहे पारणाय निमन्त्रितों! बहु-भक्ष्य-भोज्यै भोजयति । राजा ज्ञया राज्यग्रे स्थिता तालवृन्तेन वात-प्रेक्षपं करोति । तावत् तद्रूप मोहितः कामयन तच्छूकेन दृष्टः । यतः - नामापि स्त्रीति संदि विकरोत्येव मानवम् । किं पुनदर्शनं तस्या, विलासोल्लासित ध्रुवः ॥ २२० उत्थितो राजी प्रार्थयति । चलनादि करोति । ततो राज्ञी रुष्टा ब्रते-रे तापस सद्यो याहि। मुखं मा दर्शय । तथाऽपि काम-मदोन्मत्तो न विरमति । यतः - तावन् महत्त्व-पाण्डित्यं, कुलीनत्वं विवेकिता । यावज्ज्वलति नाङ्गेषु, हन्त पञ्चेषु-पावकः ॥ २२१ सिक्तोऽप्यम्बुधस्वातैः, प्लावितोऽप्यम्बु-राशिभिः । न शान्ति यात्यही चित्रं, काम-वहिनः प्रयत्न तः ॥ २२२ तावद्राज्ञी बुम्बाखं चकार । तज्ज्ञात्वा राजा तत्रागात् । अपराध-सहस्त्रेऽपि, योषिद्-द्विज-तप-पस्विषु । न वधो नाङ्ग-विच्छेदो देश-निर्वासनं वरम् ॥ २२३ इति जाननपि राजा रुष्टो विडम्ब्य तं जघान । स मृत्वा राक्षसो बभूव । पूर्व-भववैरं स्मरन् राजानं तं सावविडम्बनया हन्ति । रे रण्डे मम मारणाय त्वं पत्करोषि(इति) । राज्ञीमपि हन्ति । रोषेण नगरं शून्यं चक्रे सः । यो वासयति तस्याऽप्युद्वेगं करोति । तेन हेतुना शून्यमिदं पुरम् । अस्य शून्यत्वे स्त्र्येव हेतुः । यतः - अकीर्तेः कारणं योषिद्, योषिद् वैरस्य, कारणम् । संसार-कारणं योषिद, योषितं वर्जयेत् ततः ॥ २२४ इत्युक्त्वा लक्ष्मीस्तिरोऽभूत् । तच्छुत्वा कुमारश्चिन्तयति Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ X हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम् ये राम-रावणादीनां, सङ्ग्राम-ग्रस्त-मानवाः । श्रूयन्ते स्त्री-निमित्तेन, तेषु कामो निबन्धनम् ॥ २२५ तदा शून्य-नगर-करणे का वार्ता । परमहं सिद्धि देवी-प्रभावेणै-तदैवतं सन्तोष्यस्यानुमति च प्राप्य वासयिष्यामि । इति स्वरूपं ज्ञात्वा पत्नी-स्थाने पश्चाद्वतश्चिन्तयति अमन्त्रमक्षरं नास्ति नास्ति मूलमनौषधम् । निर्धना पृथिवी नास्ति, भाग्यमेकं हि चेद्भवेत् ॥ २२६ तथा - निरीहस्य निधानानि, प्रकाशयति मेदिनी । अङ्गोपाङ्गानि डिम्भानां, न गोपयति कामिनी ॥ २२७ ततः कियती-वेलानन्तरं वासितं ताम्रचूडै । प्रकटीभूतो रवि-रथ-सारथिर। विकसितानि कमलानि । प्रभाते जाते ततो निद्राणः । तथा कारणं विना पुण्य वतां नृणां हरिप्रिया । समायाति स्वयं याति पाद्मभाजां निजालयात ॥ २२८ प्रभात उत्थाय तत्स्थाने गत्वा विलोकयति । तावत्तामसंख्यातां लक्ष्मी । दृष्ट्वा पत्नी प्राह-अधुना बलि-पूजादि-विधानं विना न गृह्यते। अवसर आगत्य बलि-विधान-पूर्व ग्रहीष्यामि । यतः अत्वरा सर्व-कार्येषु, त्वरा कार्य-विनाशिनी । त्वरमाणेन मूर्खेण, मयूरो वायसीकृतः ॥ २२९ केनचिद्दरिद्रेण यक्ष आराधितो । यक्षस्तुष्टः । पुंसा धनं याचितम् । यक्षेणोक्तम् तव भाग्यं नास्ति । स उवाच तथाऽपि मे देहि । यक्ष आह-र्हि मद्भवने मयूरो नृत्यं करोति । एकं पिच्छं क्षेरये । तत् त्वया ग्राह्यं । कियता कालेन धनवान जातः ततः कलपकान्येकत्र मेलयित्वा भारकः कृतः । ततोऽतिलोभेन कालक्षेप-मसहिष्णुतया मयूर एव धृतः । ततो रुष्टो यक्षः । स वायसः कृतः । अग्रेतनपिच्छन्यपि काकपिच्छान्येव चाभूवन् । इति कृत्वा न किमपि धनं जग्राह स नाऽऽकुलितचित्तः । यतः Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम इत्थीइ जणइ चित्तं, न चलइ कइआ वि नेव इत्थीए । पुरिसेसु ताण रेहा, दिज्जइ सुविणे वि धीराणं ॥ २३० ततोऽग्रे चलितः सन् चिन्तयति । यतः - नगर-शतं गन्तव्यं, विज्ञान-शतानि शिक्षणीयानि । भूपति-शतं च सेव्यं, स्थानान्तरितानि भाग्यानि ।। २३१ इत्येतत् सत्यमेव । यद्वा - लच्छी न विण्हु-पासे, नवि रवीराए न चेव कामवणे । वर-पुन्न-पायवे सुपुरिसाण लच्छी सया वसइ ।। २३२ कौतुकानि विलोकयन् पञ्च-दिन-प्रायान्ते पुरमेकं प्राप्य केनापि ग्रामाधिपेन भट्टेन दृष्टः सुरूपः सुन्दरभार्यः । पृष्टं-क्व यास्यथ । कुमारेणोक्तं प्रतिष्ठानपुरे गमिष्यामि । भट्टः प्राहउत्सुरे यास्यथ । सन्ध्यासमयः प्रदोष उच्यते । द्विधाऽपि, आचारेणाऽऽकृत्या कुलगुणादि ज्ञात्वा उत्तमोऽसौकोऽपीति तस्य वासायाग्रहं करोति भट्टः कुमारेण चिन्तितम्-अग्रे क्वाऽपि स्थातव्यम् । अयं तु भट्टो ग्रामणीराग्रहेण स्थापयन्नस्ति इतिविचार्य स्थितस्तत्र सः । यतः - नयरं होइ अट्टालएहिं पायार-तुंग-सिहरेहिं । गाम पि होइ नयरं, जत्थ छइल्लो जणो वसइ ॥ २३३ तत्साधं गृहे गतः । तेन सद्भक्त्याऽऽवर्जितो मर्दन-स्नान भोजनादिभिः । रात्रौ शय्याहंसतूलिकोच्छीर्षक-पत्रताम्बूल-प्रदानादिभिश्च सत्कृतः । यतः - श्रान्तस्य यानं तृषितस्य पानं, भुक्तं क्षुधार्तस्य भयस्य रक्षा । एतानि यस्योपनयन्ति काले, तन लक्षणज्ञां प्रवदन्ति धन्यम् ॥ २३४ तथा च - द्वद्यात् सौम्यां दृशं वाचमभ्युत्थान मथासनम् । शक्त्या भोजन-ताम्बूले, शत्रावपि गृहागते ॥ २३५ किं पुनस्तादृशे सत्पुरुषे । कुमारः-सावलिङ्गी प्राह-प्रिये पश्यास्य भट्टस्य सौजन्यगुणम् । साऽप्याह- देव सज्जना एवं विध-गुणा एव सन्ति । यतः - तृणानि भूमिरुदकं, वाक् चतुर्थी च प्रीतिदा । सतामतो निरोहेषु नोच्छिद्यन्ते कदाचन ॥ २३६ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम् ४३ ____ पुनः प्राह कुमार-पञ्च-क्रोशैरितः प्रतिष्ठानपुरं समस्ति । प्रातस्त्वां निःश्रीकां पादचारेण कथं त्वत् पितृ-गृहे नेष्यामि । त्वां वस्त्राभरणरहितां । तत्र नयतो मम नीरमुत्तरति । तेन प्रतिष्ठान-पुरे गत्वा त्वत्कृते वाहन-पट्टकूलाभरणाद्यानयामि । पञ्च दिनानि लगिष्यन्ति प्रौढे तत्र पुरे । तावत्त्वमत्र तिष्ठ। तच्छुत्वा सा प्राह - नाथ तव हृदयं वज्रमयं समस्ति । किं यन्मामत्र मुक्त्वा यास्यसि । अहं क्षणमपि तव विरहे न जीवामि पञ्चदिन्याः का वार्ता । देव नारी पतिं देववत् पूजयति । तत्कृते स्वपाणानपि त्यजति । तथाऽपि नरस्य सा रोचतेऽथवा न रोचते । तस्या विरह-दुःखं मनस्यपि नानयति । प्रायः स्वेच्छयाऽन्यत्र मनो रमयति । ततः सदयो ब्रूते-प्रिये नर-ब्रुवस्यैवैतल्लक्षणं नोत्तमनरस्य । यतः स्वाधीनेऽपि कलत्रे,नीचः पर-दार-लम्पटो भवति । परिपूर्णेऽपि तडागे, काकः कुम्भोदकं पिबति ॥ २३७ उत्तमो यदि योजन-शतानि व्रजति तथाऽपि स्वप्रियां हृदयान् न विस्मारयति । यतः - निय-महिला-मुह-कमलं, पुत्त-मुहं धूलि-धूसर-च्छायं । सामि-मुहं सुपसनं, जोयण-सयये न वीसरइ ॥ २३८ यत्र सा भवति तत्रैवागच्छति । सारंवस्तु मौक्तिक स्वर्णादि सर्वं प्रिया-कर एवाऽर्पयति । स्व-मातृ-भ्रातृ-पुत्रादिषु परेषु न विश्वसिति । तैश्च सह कलिं करोति । ममाऽपि तव विरहो बाधते । परं पञ्चमदिने वाचा-बद्ध आगमिष्यामि । इत्यादिकैर्वचोभिः पर्यवसापिताऽपि ब्रूते - जइ वच्चसि वच्चतुमं, को वारइ तुज्झ नाह जंतस्स । तुह-गमणे मह मरणं, लिहियं होही कयंतस्स ।। २३९ सदयः शपथ-शतैः पर्यवसापयति । ततः साऽऽह-पञ्चम-दिने प्रहर-द्वयं यावन् मार्ग विलोकयिष्ये । ततः परं काष्ठानि । इति पणं विधाय मुक्तः । पुनः सावलिङ्गी प्रोचे-देव तत्र पुरेऽनेक द्यूतकार-धुत्तारक-चौर-ग्रन्थिच्छोटक-बक-कायस्थादिका वञ्चका बहवो वसन्ति । अतस्तत्पुरं विषमं चतुःषष्टि-योगिनीनां क्रीडा-पुरं द्विपञ्चाशद्-बीराणां निवास स्थानम् । लोका अपि स्व-स्व-संज्ञाभिर्व्यवहार-क्रियां कुर्वन्ति । बहु-बुद्धि-सनाथोऽपि मुह्यतेऽत्र । सैव वक्ति लोकोक्तिस्त्वेवं एक टक्क तिहां रात रहेवि, दुन्नि टक्क तिहां रह न करेवि । तिन्नि टक्क तिहां जम का धरणा च्यारि टक्क तिहां निश्चिइ मरणा ॥ २४० Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम कायस्थेनोदरस्थेन, मातुर्मासं न भक्षितम् । मा दयां तत्र जानीहि, तत्र हेतुरदन्तता ॥ २४१ लेखिनी-कृत-कर्णस्य, कायस्थस्य न विश्वसेत् । यमोऽपि वञ्चितो येन, गकारान्तर-रेखया । २४२ तथा च नाथ विश्वासो न कस्याऽपि विधीयते । तथा चोक्तं विवेकविलासे - विश्वासो नैव कस्यापि, कार्य एषां विशेषतः । पाखण्डिनां तथा क्रूर-सत्त्व-प्रत्यन्त-वासिनाम् ॥ २४३ धूर्तानां प्राङ्निरुद्धानां, बालानां योषितां तथा । स्वर्णकार-जलाग्नीनां प्रभूणां कूट-भाषिणाम् ॥ २४४ नीचानामलसानां च पराक्रमवतां तथा । कृतघ्नानां च चौराणां, नास्तिकानां च जातुचित् ॥ २४५ इत्यादिशिक्षामुदित्वा स्थितायां भार्यायां सदयः प्राह- ही नखिनां प्रभुणामपि ममैवंविधमेव विलोक्यते ! अहं कूटेष्वास्फालकः । एवं विधे पुरे मेऽतिलाभे । यद्यकथयिष्यः, तत्पुरं साधुलोकमेव तदा ममकुतो लाभः । ततो भट्टमाकार्य सदयेनोक्तम्-भो भट्ट अहं स्वभार्यां तव गृहे मुक्त्वा प्रतिष्ठानपुरे यामि पञ्च दिनानि । सारा करणीया । स आह मुञ्चात्र निश्चिन्तीभूय। तदा पत्नी प्रोचे-अहमेकाकिनी कथं भट्टगृहे स्थास्यामि । यतः पुस्तिका खटिका नारी, परहस्ते गता सती । नष्टा ज्ञेयाऽथवा पुंसा, घृष्टा भुक्ता च लभ्यते ॥ २४६ सदयो ब्रूते भट्ट-समक्षम्-क्षत्रिया भट्टा राजपुत्राणां बान्धवा इति लोकोक्तिर्यतो ये राजपुत्राः सङ्ग्राम-पतितास्तेषामग्नि-प्रदाता । तत्सम्बन्धी कोऽपि न स्यात्तदा तत्र तेषां भट्टाः सम्बन्धिन इति । एते च लोक-विहित प्रौढ-करणीयोन्नति-कारका वीराणां शूर-सभासु वीरचर्याप्रकटनेन यशःस्फाति कराः । तेन त्वामात्म-बान्धव-गृहे मुक्त्वा व्रजन्नस्मि । इत्यादि युवक्त्या पर्यवसाप्य तां तत्र मुक्त्वा स चलिता । गतः पुरासन-तट के जलपानार्थम् । तावता जलहारिण्यो बह्वयः समासन-तटे जलं भरन्ति । एकया पृष्टम्-एष जलं पिबति किं कारणं । परयोक्तम्-भवत्यत्रत्याप्येतन् न जानाति । यत एष आगच्छन् स्वस्त्रीं रुदन्ती वारितवान् । हस्ताभ्यां-सकज्जल नयनाश्रु-पातं लुञ्छितवान् । तदा कज्जलादिलौ स्वहस्तौ स्नेहवशान् नायं धौतंवान एतेन हेतुना ज्ञायते यदस्य नरस्य स्व-स्त्री विषये महास्नेहोऽस्ति । तत् कुमारेण श्रुतम् चिन्तितम्-अहो विलोक्यतां स्त्रीणां चातुर्यम् । ततः पुरं प्रविशतोऽस्यैक ष्टुण्टकञ्छिनभक्त:(नर Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम् कः?) सम्मुखोऽभूत । कुमारेणाचिन्ति-प्रथम-कवले मक्षिका-पात इतिवत् प्रथम-प्रवेशेऽपशकुनः । पश्चाद् वलितो विनायक-देवगृहं गत्वोपविष्टः । तावता टुण्टेन चिन्तितम् धिङ्ममे कुरूपं । लोकानामपशकुनहेतुः । अस्य कथमपि शकुनं कुर्वे । ततः स पुष्प-फल-पत्र-पूग-खाद्यादिबहु-वस्तुभिश्छब्बां भृत्वा सम्मुखो जगाम । अग्रे मुक्त्वाा प्रोक्तम्-भोः सत्पुरुष तव शकुनकृत एतदानीतं मया। वन्दस्व शकुनम् गृहाणेदम् । कुमारेण चिन्तितम् कोऽप्येष चतुरो महापुरुष आचारेणास्य कुलं महल्लक्ष्यते, येन प्रागनुपलक्षित-स्यणिपि मम हितकाम्पया शकुन-माङ्गल्य करणायैवं भक्ति-प्रति-पत्तिं विदधाति । यद्वा - पद्माकरं दिनकरो विकचं करोति, चन्द्रो विकाशयति कैरव-चक्रवालम् । नाभ्यर्थितो जलधरोऽपि जलं ददाति, सन्तः स्वयं पर हितेषु कृताभियोगाः ॥२४७ टुण्टकोऽपि चिन्तयति-योष महाकुलप्रभूतोऽस्ति तदा राज-योग्य-वस्तुषु पाणिः क्षेप्स्य त्य[न्य]था खाद्य-वस्तुषु, इतरलोकानां पर्वस्वेव (?) सद्भावा त्तेषां वस्तूनाम इति चिन्तयति तस्मिन् पुंसि कुमारः पुष्प-पूग-पत्राण्यग्रहीत् राजायोग्य त्वात् । महान्तः कस्याऽप्यभ्यर्थनां न विफलां कुर्वन्तीति । शेषं तु शकुन-हेतु वन्दित्वा पश्चादर्पितं तस्यैव । ततोऽनेन परीक्षितम्महा-भूपति-कुलादि-भवोऽसौ । नादृष्टकल्याणोः कुल (?) । कुमारेण पृष्टम्-भोस्तव सुखमस्ति । स आह-सत्पुरुष किं सुखं पृच्छसि, यतोऽहं सिंहलद्वीपाधिपतिराज्ञः सुतः सुरसुन्दरनामा । इदं पुरं । बहु-कौतुकोपेतं योगिनी-वीरादीनां स्थानमित्यादि श्रुत्वा विलोकनोत्कण्ठितः पञ्चशत-हस्ति-स्वर्ण-कोटि-युतोऽत्रागाम् । द्यूतकारैः कपटेन सर्वं गृहीतं शस्त्राणि हस्तनासादि च। अत्र द्यूतकारैः कपट नाटक-सूत्रधारैः सर्वोऽपि मुष्यत आगन्तुकादिजनो महाधूर्तोऽपि । यत: तृणच्छत्रैर्महाकूपैर्मधुलिप्तैर्महासिभिः । कितवैश्च मुखे सौम्येर्दुर्दशां को न नीयते ॥ २४८ तेन मम किं सुखं पृच्छसि । .यतः - नह घट्ठा कर पंडुरा, सज्जण दूरी हूअ । सूना देउल सेवीइ, तुज्झ पसाइ जूअ ॥ २४९ द्यूतेन धनमिच्छन्ति, मानमिच्छन्ति सेवया । भिक्षया भोगमिच्छन्ति, ते दैवेन विडम्बिताः ॥ २५० जूअ [रमेविण] जं धण-आसा, वेसा-मेहुणि जं कुल-आसा । सिर मुंडेविणु जं रूवासा, तिनि वि आसा खासा पासा ॥ २५१ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स - कथानकम् अहो भद्र ! अतः परमहं व्यङ्गितदेहः पश्चाद्वन्तुं नोत्सहे । तच्छ्रुत्वा कुमारो ब्रूते- मम द्यूतकारा एव विलोक्यन्ते । ये तु द्यूतरसं न विदन्ति तत्र कुशलेनाऽपि न भवन्ति, तेषां त्वदुक्तगुणमेवैतत् परं ममा भिष्ट-प्रदम् । यतो नाममात्रं भोजनं सविकारं, भूषणमभिमानमात्रसुखं स्त्री सुखमविश्वास - विरसं गीत-नृत्यादित्रयं पराधीनं । अध्यात्मसुखत्वं साध्यते न । संसारे सारं द्यूत-सुखं । यतोऽस्य लय- सुखं योगिनोऽपिप्रार्थयन्ति । ४६ यद् दाये द्यूतकारस्य, यत्पियायां वियोगिनः । यद् राधा-वेधिनो लक्ष्ये, तद् ध्यानं मे त्वयि प्रभो ॥ २५२ एतदाकर्ण्य सुरसुन्दरेण चिन्तितम् - अज्ञानं खलु कष्टं, क्रोधादिभ्योऽपि सर्व - पापेभ्यः । अर्थं हितमहितं वा, न वेत्ति येनादृतो लोकः ॥ २५३ पुनरुक्तं तेन - भोः सत्पुरुष, अहं तव हितं वच्मि । मां दृष्ट्वा कोऽपि द्यूतासक्तो I मा भूयात । वृद्धानां वाक्यं यो द्यूत- धातुवादादि सम्बन्धैर्धनमीहते । स मषी - कूर्चकैर्धाम, धवलीकर्तुमिच्छति ॥ २५४ - देवज रूठउ काई करइ, किमु चपेटा देइ । कइ वेसाहरि पाठवइ, कई रमाइ जूअ ( ? इ) ॥ २५५ सदयोऽवक्-सर्वं वर्यं भविष्यति । टुण्ट: प्राह- तव द्यूतकारैः प्रयोजनम्-खङ्गं विना तव पार्श्वे पश्चात् स्वामिन न किमपि । कुमारः प्रोचे - विलोकयंस्तिष्ठ कौतुकम् । इत्यादिसंवादात् प्रीतिर्मिलिता द्वयोरपि । तत उत्थाय पुरान्तर्गतावेकत्र सूर्यप्रासादे जन- मेलापककलकलं शृणुतस्तौ । सदयः पृच्छति कोऽयं जन - कलकलः । स प्राह निःस्वादोऽयं कलकलोऽभीक्ष्यते पानीयरसप्रायः । सदयो वक्ति - कथम् । सोऽवक् - श्रृणु यदि कौतुकम् अत्र पुरे श्रेष्ठ- दन्ताकस्य सुतः सोमदन्तो व्यवहार्यत्र वसति । तथा च कामसेना वेश्याऽतीव रूपसौभाग्यपात्रं चास्ति राज्ञो मान्यं पात्रम् । राजा यावती - वेलायां सभायामुपविशति तावती - वेलां सा चामराणि ढालयति । तस्या गृहे य आगच्छति नरस्त - त्पार्श्वे षोडशोत्तराणि पञ्च शतानि द्रम्मानाम् गृह्णात्येषा । एकदा [ स सोमदन्तो व्यवहारी] स्वप्ने स्वगृह आगतो दृष्टोऽनया । तेन सार्धं रेमे । प्रातर्वेश्याः सर्वामेलयित्वा वक्ति तत्स्वरूपम् । ता: प्राहु:-५१६ गृहाण तत्पार्श्वे शीघ्रं गत्वा । ततस्तयाऽक्का प्रेषिता । सा तत्पार्श्वे मार्गयति । स नार्ययति । विवादे जाते सालङ्घयति सत्यां [लोकस्ता] पर्यवसापयति, अर्धप्रदानादिना । सोमदन्तो वदति - मुधा झगट Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्षवर्धन - गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम् के कर-माद्ददामि । कूट-झगटके कथं मम पार्श्वेद् गृह्णात्येषा सूर्यप्रासादेऽत्र स कलकलः । अद्य तृतीयं दिनम् । लोकपर्यवसापयति । सा न मन्यते । कुमारः कौतुकी वक्ति - गम्यते । कौतुकं विलोक्यते । ततः समित्रः स तत्र [गत: ] सभ्या वदन्ति - एष नवीन आगच्छति । एष यद्वदति तत्करिष्यस इति अक्का यै प्रोक्तम् । सा तं नव-यौवनं दृष्ट्वा हृष्य । एष योवनमदोन्मत्तो वा वेश्यापक्षं करिष्यतीति मत्वा प्रमाणम् (?) यत् एवंविधा नरा वेश्यानुरक्ताः स्त्रीवशा भवन्ति । यदि स्थविरः कोऽपि वेश्या-पक्षं न करोति नीराग-चित्तत्वात् । अतो म एष न्यायकर्ताऽस्तु । सर्वैरपि मानितम् । ततः स आकार्योपवेशितः । कथितो झगटक- वृत्तान्त: त्वं न्यायं कुर्विति तैरुक्ते कुमारेणोक्तं- यदि मयि न्यायस्तिष्ठति तदा मम वचो नोल्लङ्घनीयम् । तैरुक्तम्-तथेति । ततः सदयः पूर्वं वेश्यायै प्रोवाच - त्वं तृतीयं भागम् वा गृहीत्वा त्यज झगटकम्। सा वक्ति-एकं लोष्टिकं न्यूनं न गृहीष्यामि । पूर्णं गृहीत्वा यास्यामि । त्रिचतुरैरपि दिनैर्नान्यथा । ततः सोमदन्त - श्रेष्ठिनं प्रति स आह- एषा राजमान्यत्वान् न मन्यते मम वाक्यम् I तदा नापमान्या, यतः - यो न पूजयते गर्वादुत्तमाधम- मध्यमान् । भूपासन्नान् स मान्योऽपि, भ्रश्यते दन्तिलो यथा ॥ २५६ ४७ दन्तिल - मन्त्रि -कथा 1 वसन्तपुरे दन्तिलो भाण्डपतिः । पुर-लोक-नृप - कार्यं कुर्वता तेन सर्वे जनास्तोषिताः । अन्यदा स्व-सुत-विवाहे राज- लोका: पुर-लोका भोज्य - वस्त्रादिभिः सत्कृताः । तथा सान्तःपुरो राजा पूजितः । अथ तस्य नृपस्य गोरम्भको नाम गृह- सम्मार्जकोऽनुचित - स्थान उपविष्टः सन्नर्धचन्द्रेण निष्कासितः । सोऽपि तदादितोऽपमानान् निद्रां न लभते । कथं मयाऽस्य राजप्रासादात् क्षतिः कार्या । यद्वा किं मयाऽस्य कर्तुं पार्यतेऽथवा किमेतत् । ततो नृपस्य निद्रागतस्य शय्यां सम्मार्जयनिदमाह-अहो ! दन्तिलो धृष्टो यतो राजमहिषीमालिङ्गति । तच्छ्रुत्वा राजा ससम्भ्रममाह - भोः किं सत्यं यद्देवी दन्तिलेनालिङ्गिता । गोरम्भको [ वदत् ] देव न जाने रात्रौ जागरण-वशादधुना निद्रालुना मया किमप्युक्तम् । राजा सेर्घ्यं [मनस्यचिन्तयत्-] नूनमसौ मम गृहेऽप्रतिहत-गतिः । तदनेन दृष्टं भविष्यति । अतोऽनेनैवमभिहितम् स्त्रीविषये तु कोऽत्र सन्देहः । तदादितो राजा तदुपरि प्रसादविमुखोऽभूत । किं बहुना प्रवेशोऽपि निषिद्धः । ततो दन्तिलोऽपि तथा दृष्ट्वा चिन्तयति - किमहो राजाऽकस्माद्विमुखो जातः । मया किमपि विरुद्धं नाचरितं तदा किमेवम् । तथाऽन्यदा दन्तिलं द्वारपालै रुद्धं दृष्ट्वा गोरम्भको विहस्याह - भो द्वारपाला अयं स्वयं निग्रहानुग्रह-परः तदनेन निषिद्धेन मद्वदर्धचन्द्रो युयमपि प्राप्स्यथ । तच्छ्रुत्वा दन्तिलश्चिन्तयति I 1 Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम् अकुलीनोऽपि मूर्योऽपि, भूपालं यो निषेवते । अपि सन्मान-हीनोऽपि, स सर्वत्र हि पूज्यते ॥ २५७ इत्यादि बहु विचिन्त्य विलक्षास्यः तं गोरम्भकं वस्त्रयुगेन सम्पूज्याह-भो भद्र त्वं तदा रोषान्न निःसारितः किन्त्वमात्यादिस्थान उपविष्टत्वात्रिःसारितः । तदपि क्षम्यतां त्वं मे भ्रातः । सोऽपि तेन वस्त्र-युगेन हृष्टः प्राह-पुना राज-प्रसादकृते यतिष्ये [पश्य] । मम बुद्धि वैभवम् । स्तोक-दिनैस्ते राजप्रसादं कारयामीइत्युक्त्वा पुनरपि तथैव गत्वा निद्राजुषो राज्ञः शय्या-सम्मार्जनं कुर्वनिदमाह-अहोऽविवेकोऽस्मद्राज्ञो यत पुरीषोत्सर्गं कुर्वन् चिर्भटान् भक्षयति। तच्छ्रुत्वोत्थाय सक्रोधमाह राजा-रे मूर्ख त्वां कर्मकरं भणित्वा न व्यापादयामि । वयमेवं कुर्वतः कदा दृष्टाः? सोऽपि पूर्ववदाह । तदा राजा चिन्तयति-न किञ्चिदेतत्पूर्वमप्येवमेवोक्तं भविष्यति। ततो दन्तिलोऽपि राज्ञा सम्मानितः ।(इति) ___ अतोऽहं ब्रवीमि-यान पूज्यते तेन ५१६ यूयमानयत । इत्युक्ते सा हृष्टा । द्रव्यानयनवार्ता श्रुत्वा श्रेष्ठी ब्रूते-मम द्रव्यमन्यायेन किं निर्गमयसि । कुमारेणोक्तम्-मम वचनमुल्लङ्यसि तदाऽहं न्यायं न करिष्ये । बलात्कारेण धनमानायितं तेन् सार्धमेक आदर्शश्च । कोऽपि न वेत्ति किं करिष्यति । ततस्तेना दर्शाग्रे धनं मुक्त्वा वेश्यायै प्रोक्तम्-गृहाणादर्श-प्रतिबिम्बितं धनम् । अग्रस्थं धनं हस्तेन स्पृष्टुमपि न ददामि । सा प्राह-एवं कथं कुमार ऊचे-अयं तव गृहे स्वप्न आगतः प्रत्यक्षेण वा । अयं यदि प्रत्यक्षेणागतस्तदा प्रत्यक्षस्थं धनं गृहाण । यदि स्वप्ने तदा प्रतिबिम्बस्थमेवधनं गृहीतुमुचितं स्वप्न प्रतिबिम्बयोरेकसदृशकार्यभवनात् । ततः सभ्याश्चमत्कृताः साधु साधु वदन्ति । अहो ! बुद्धिकौशलं तव । सा सर्वैरपि विगोपिता । अस्माभिरर्धे दापिते न मानितं तदा गृहाण पूर्णम् । लोष्टिकं न्यूनं मा गृह्णीया इत्यादि प्रकारैर्हसिता च । श्रेष्ठी स्वधनं गृहीत्वा गृहे गतः । गता सा स्वगृहे चक्षुषी प्रमार्जयन्ती। तामागच्छन्तीं दृष्ट्वा कामसेना चिन्तयति-आनीतानि ५१६ यत उत्सुकाऽऽगच्छति । पृष्टं च तया-आनीतानि कि तानि । सा त्रि-दिन-बुभुक्षिता लोकैः खेदिता च वक्ति-एकेन टुण्टकेन विगोपिता । कामसेनाऽपृच्छत्मातः कथं विगोपिता । सा प्राह-वैदेशिकः कोऽपि टुण्टको न्यायमीदृशं चकार । ततो लोकैविगोपिताऽहम् । कामसेना चिन्तयति-अहो ! बुद्धिस्तस्य । सा तत्र सूर्यप्रासादे नाटककरणमिषेण शीघ्रं तद्विलोकनाय गता। मण्डितं नाट्यं । सा नाट्यं सृजन्ती तं दृष्ट्वा चिनायतिआस्यं पूर्णशशी विलोचन-युगं विर-मेरमिन्दीवरं । ___ कण्ठः कम्बुश्चणौयै काञ्यनशीला स्कन्धौ च पूणौ घटौ । बाहू शौर्य-गजेन्द्र-यन्त्रणमहऽडलानौ करौ चारुणाम्भोजै वर्षा सुधांञ्जनं नयनयोः केनैष सृष्टो युवा ॥ इति विलोकयति । ततस्तस्याः कामज्वस्चटन् प्रकर्षो भवति । ततो ज्वलज्ज्वर-पूरेण मूछिता भूमौ पपात । निश्चेष्टा बभूव । कटुंक्वाथोत्तेलकादि-करणैर्न जागर्ति । तत उत्पाट्य गृहे नीता सा । एको वैद्यो ज्व(?) जराकान्त-देह आकारितः । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम् ४९ यतः - अलं जरा [करोतीह], राजानं भिषजं गुरुम् । विडम्बयति पण्यस्त्री-मल्ल-गायन-सेवकान ॥ २५८ स देह-रोगमदृष्ट्वा काम-ज्वर-चेष्टां विलोकयति । तच्चेष्टाभिति-काम-ज्वरः पृच्छति-अनया कोऽपि रूप-सौभाग्यवान् नरो दृष्टः । ताभिरुक्तम्-अमति । वैद्येनोक्तम्-तं पुरुषं दृष्ट्वा काम-ज्वराभिभूतेयम् । न देहरोगोऽस्या आसीत् । तेन तमस्या मेलयत् यथा सज्जीभवति । ताभिरुक्तम् सत्यं सत्य मेवमेवाभूत् गतो वैद्यः । प्रेषिता दास्यः शीघ्रं सूर्यप्रासादे । तत्र गत्वा ताभिरुक्तम्-देव अस्मत्-स्वामिनी त्वामाकारयति । कुमारश्चिन्तयति-अन्यत्र क्वापि स्थास्यते पञ्च दिनानि । एतास्तु मानं दत्त्वा मामाकारयन्ति ततोऽत्रगम्यते । यतः - जे के वि जंति देसंतरेइ, जाण यन भारिया सज्जा । दोहग-जाया जाणं, ताण य वेसाययणं सरणं । २५९ तस्यागृहे यास्यामीति मित्रं वक्ति । स तं वक्ति-तत्र त्वां नीत्वा ५१६ अनर्पणवैरं वालयिष्यन्ति । हसित्वा कुमारो ब्रूते-गान्धर्विकाः किं वैरं वालयिष्यन्ति मां प्रति । मित्रमाह-कुमार वेश्यानां विश्वासं मा कृथाः । यतः - जूएण जुव्वणेण य, वेसा-संगेण धुत्त-मित्तेणं । अब्भे विकरं (?) को सो, अवसाणे जो नहु विगुत्तो ॥ २६० आंखिइ रोइ मनि हसइ, जण जाणइ ए रत्त । वेस विसिट्ठह तं करइ, जं कट्ठह करवत्त ॥ २६१ सदयो वक्ति-मित्र वेzि चरितमे तासां, एता मां नदी-मध्ये यातयिष्यन्ति । ततो गतस्तत्र समित्रः । कामसेना स्नान-भोजनादि-क्रियाभिस्तं प्रीणाति । प्रीतिरभूटूयो र्गतः कामज्वरः । द्वितीय-दिने स्व-फलकादि गृहीत्वा चलति । तावता सा वक्ति-क्व यासिअथ स आह-क्वाप्यन्यत्र स्थीयते । सा वक्ति-अमूनि गृहाणिं त्वदीयानि, अत्रैवस्थीयताम् । किमन्यत्र गमनेन । कुमारोऽवग्-एवमस्तु । स्थितश्चत्वारि दिनानि तत्र । ततो द्यूत-स्थानेऽगात् तावता द्यूतकारा आगताः । ५२ वीरा अप्यांगताः । तैः प्रोक्तम् भो रमणार्थ-मागतोऽसि । धनं क्व। सदयोऽवक्-भो, ममा खङ्गं भवतां स्वर्णं पणमस्तु तैरुक्तम् एवं भवतु । देवी-वर-प्रभावा ते हारैर्दृष्टाः । Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम यतः - व[य]रह हवइ राडी मीठी, वयरह मीठी सारि ।। प्रेमह मीठउं रूसणुं, जूअह मीठी हारि ॥ १ ॥ २६२ तेन तेऽधुना जयाम जयामेति चिन्तयन्तो बहु बहु स्वर्णं पणी कुर्वन्ति । सदयो जयत्येव। ततो मित्राय कियत् स्वर्णं दत्तम् । बहु गृहीत्वा दोसी-हट्टे गतः । पट्टकूलादिसार-वस्त्राणि गृहीतानि स्वकृते पत्नीकृते च । गान्धिक-हट्टा कर्परक-सिन्दूरादि गृहीतम् । सौवर्णिक-हट्टे । विविधाभरणानि जगृहे । सर्वमेकत्र कृत्वा सोमदत्त-श्रेष्ठि-हट्टेऽमुचत् । यदा मार्गयामि तदाऽर्पयेरित्युक्त्वा। शेषं स्वर्ण वैश्यायायर्पयति । एवं चतुर्भिदिनैर्लक्ष संख्याधनमर्जितवान् । ततः पञ्चम-दिने प्रातरेवोत्थाय सदयः स्व-फलकासी जगृहे । रजोभृतं हस्तेन प्रस्फोटयति । कामसेनया पृष्टम् (अय) फलकासी कुतो-हेतोर्गृहीते । कुमारः प्राह-चलिष्यामि। सोचे-तव चलनेऽहं म्रिये । नाऽहं चलनाय ददे । इति तया निषिध्यमानोऽपि चलत्येव । तदा सा प्राह - वसिऊण मज्झ हियए, जीअं गहिऊण कत्थ चलिओ सि । हे पहिय पंथ-मंडण, पुणो वि तं कत्थ दीसिहसि ।। २६३ इत्याद्युक्तोऽपि न तिष्ठति । ततस्तया फलकं गृहीतम् । स न मुञ्जति । इत्थमितस्तत आकृष्यमाणात् फलक-खोलीआमध्यादेकं शुष्क-पद्मिनी-पत्र-वेष्टितं गुच्छलकं पपात कुमारेणाज्ञातम्। तावता वेश्ययौत्सुक्याद्गृहीतमुद्वेष्टितं च । मध्ये मौक्तिक-जडितं कञ्चुकं पश्यति । हृष्टा सा मार्गयति । कुमारोऽपि चिन्तयति-नूनं तैः पञ्च-वीरैरेव ममाजानतोऽयमत्र फलके क्षिप्तः । लीला-गर्भेश्वरः सत्यः-तस्यायर्पयति । यतः - कियती पञ्चसहस्री, कियन्ति लक्षाणि कोटिरपि कियती । औदार्योन्नत-मनसां, रत्नवती वसुमती कियती ।। २६४ ततोऽक्का रुष्टा व्यवहारि-५१६-अनापन-दूनाऽपि चिन्तयति-अयं बुद्धिमान् दान शौण्डश्च । कीद्दक ५१६ किञ्चैकदानेन बहून्यपि ५१६ दत्तानि युगपदेवानेन । ततोऽक्काऽऽशिषं ददौ । अत्याग्रहेण स्थापयति तथा-पि कुमारो न तिष्ठति पल्या अग्रे पञ्चम-दिने निश्चया-गमनप्रतिज्ञा-करणात् । ततस्तस्य निश्चय-गमनं ज्ञात्वा कामसेना प्राह-यदि यास्यस्येव तदा भोजनमकृत्वा गन्तुं न दास्यामि । ततो भोजनार्थं स्थितोऽसि-फलके तत्रैव मुक्त्वा द्यूत-स्थाने गतश्च द्यूतेन धनार्जनैक-रसिकत्वात् । तावता कामसेना दासीनां भोजन-सामग्री-करणायदशं ददौ । स्वयं राज्ञः सेवावसरे जगाम । तमेव कञ्चकं वर्य-वस्त्राभरणानि परिधाय पर्यङ्गिकारूढा याति । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम् कुलस्त्रीणां सुखासन उपर्याच्छादन पटो भवति । सा तु निर्लज्जतयाऽऽच्छाद नपटो नादत्त । उद्भर-वेषा चतुष्पथे व्रजन्ती सर्वैरपि विलोक्यते । तदैकेन व्यवहारिणा सा कञ्चुकिकोपलक्षिता-एषा कञ्चलिकाऽस्माकं खात्र-पातेन गताऽभूत । साऽधुना मयोपलक्षिता । ततो हट्टादुत्थाय पुनर्निश्चय-करणाय तस्याः पार्वे जगाम । पर्यङ्किका-दण्डे लग्नो व्रजति । वार्ता कुर्वन् हृदयस्थकञ्चकं विलोकयति । व्याख्यानयति कुत एष इत्यादि-कपट-वार्ताभिः । स्वकीयं तं निश्चित्य स्वहट्टे गतः । सर्वे व्यवहारिण एकत्र मेलिताः । स्वरूपं प्रोक्तं । हट्टताला कृता । वेश्या-पार्वे कञ्चक-सद्भावं कथितं च । ततो मिलित्वा सालवाहन-राजान्तिकं गताः । राज्ञा बहुमानपूर्वं प्रोक्तं-महाजनोऽनाकारितः केन कारणेनागतः । ते वदन्ति-व विज्ञप्तये राज्ञोक्तम् -किं भवतां कोऽपि पराभवति । तैरुक्तम् देव त्वयि स्वामिनि कोऽस्माकं पराभवति। व भास्वति भास्वत्यन्धकारपराभवः । परमपरं वासाय स्थानं देहि । राजा प्राह-भो महाजनाः द्वावपि प्रकारौ [कथं] कुरुथ । यदि केनापि न पीड्यामानाः स्थ तदाऽन्यत्र वासाय स्थानं कस्मादया चथ । परं केनापि पीड्यमानाः स्थ तदैवमुच्यते भवद्भिः । ततः कथयत सम्यक्स्वागमकारणं । ततो रामदेवः श्रेष्ठी समस्ययाप्रोचे-देव क्षेत्रेषु यत्कर्षकैः पात्यते तद्भवनगरे श्रीमतां गृहेषु चौरैः पत्यमानमस्ति । राजा विद्वान् प्रोवाच-किं खात्रं पपात क्वाऽपि । महाजनेनोक्तम्-एवमेव देवेह चौराणामग्रे स्थातुं न शक्यते । राजा चिन्तयति - भूपो वृक्षः स्व-प्रजास्तस्य मूलं, भृत्याः पर्णा मन्त्रिणस्तस्य शाखाः । तस्माद् राज्ञा स्व-प्रजा रक्षणीया, मूले गुप्तेनास्ति वृक्षस्य नाशः ॥ २६५ इति विचिन्त्य तलारक्षमाकार्य प्रवक्ति - रे रे निस्त्रप रक्षकाधम मम प्राण-प्रियाऽस्ति प्रजा, प्रेतेश-प्रतिमेन सेयमनिशं स्तेनेन निष्पीड्यते । त्वं त्वादाय मदीय-वेतन-धनं प्रेयोङ्गना-सङ्गतम् त्यक्त्वा नागर-रक्षण-व्यतिकरं निद्रायसे रे सुखम् ॥ २६६ तलारक्षेणोक्तम् स्वामिन् मम यं दण्डं कर्तुकामोऽसि तं कुरु । किं करोमि । मम विलोक्यतोऽपि चौरो न लभ्यते । दुर्गाह्यो दुरन्तश्च खर्पर-चौरवत् । राजाऽऽह-खर्पर-चौरः कः। तलारस्तत्स्वरूपं वक्ति-खर्पर-चौर-संबन्धः तथा स्तम्भतीर्थे कोऽपि व्यवहारी भद्र- नामा। तस्य पुत्रो जिनदासः तत्रैव पुरे व्यवहारि-सुतां परिणायितः । तद्वास-भवन-पार्श्व-स्थित-वटे कोऽपि यक्षो वसति । तद्भार्यां दृष्ट्वा मोहितस्तां रन्तुमिच्छु: पुनः पुनरागच्छति परं तत्-पति तेजसा स्पष्टुमपि न शक्नोति । बहूनि वर्षाणि गतानि । एकदा स व्यवहारि-सुतो वाहने चटितः । तद्भार्या स्वावास-भवन एव सुप्ता । तदा यक्षोलब्धावसरो द्वितीय-दिने पुत्ररूपं विधाय पितुः प्रणाममकरोत् । पित्रापृष्टो-वत्स वाहने चहितः । स वदति-तात अहं प्रागन भ्यासाद् वाहने स्थातुं Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम न शक्नोमि ! मूर्च्छवागच्छति । ततो नाखूआकस्य सर्वशिक्षां दत्वा स एवागतः प्रहिताः । अहं पश्चाद्वलितः । पित्रोक्तम्-वरं कृतम् । ततो निःशङ्कं स यक्षस्तद्वध्वा सह रमते । त्रि-चतुराणि वर्षाणि जातानि। ततस्तस्या गर्भोऽजनिष्ठ । औदारिक-वैक्रिय-देहयोोंगे गर्भोत्पत्तिर्जायते। कियद्दिनैः श्रेष्ठि-सुतः पश्चादागतोऽसंख्य-धनमर्जयित्वा । लोका वर्धापनिकां मार्गयन्ति-श्रेष्ठिन् तव पुत्रोऽद्यागात् । श्रेष्ठी चिन्तयति-लोका न जानन्ति मम पुत्रों गृह एवास्ते। तमागतं ज्ञात्वा व्यन्तरो नष्ट्वा गतः। पिता सम्मुखोऽगात् । तत्र स्व-सुतं दृष्ट्वा [व्यचिन्त यत्-] केनापि दुष्टेन व्यन्तरेण पुत्र-रूपं कृत्वा छलितोऽस्मि । [स] कृष्ण-मुखो बभूव लोकापवादो भविष्यतीति। चिन्तातुरं मुखं दृष्ट्वा पुत्रः प्राह-तात बहु-वर्मदागमने तव न हर्षोल्लासस्तत्कारणं किम् । गृहे गमनानन्तरं कथयिष्यामीति वारित । गृहागतस्य पुत्रस्य व्यन्तर-कपटस्वरूपं कथयति । सुतेनोक्तम् - तात व्यन्तर-स्वरूपं पुराऽप्यहं वेद्मि । पिताऽऽह-यद्येवं जाननभूस्तदा ममेतत् पुरो न प्रोक्तं कुतः । सुतेनोक्तम्-लज्जया नोक्तम् । ततो गर्भा जातः । स न बहिस्त्यज्यते । तद्भाग्येन याद्दम् भवतु । ततः पुत्रो जातो रात्रौ दुकूलाच्छादितो वाटिकान्तर्मुक्तः। तदैवोज्जयिनीपुर्यधिष्ठात्रीदेवी हरसिद्धिराकाशे यान्ती यान(स्खलन)ततोऽधो विलोकते । दृष्टः स बालो लक्षणालङ्कृतः । देव्या स्वपुत्रत्वेन प्रपन्नः प्रत्यागच्छन्त्या मया ग्राह्य [इति विचिन्त्य] काकाद्युपद्रव-रक्षार्थ घट-वाकपटे (१ खर्परेणा) ना च्छाद्य मुक्तः । प्रत्यागतया गृहीतः । पालनाय वाटिकाधिप-मालिकायापितः । अर्पित । तेन खर्पराच्छादितत्वात् खापर इति नाम दत्तम् । सप्ताष्टवार्षिक: सन् देव्या नानारसौषधी: पायितः रात्रौ वासुदेव कटकेनायजेयो दिवसे तणेनाऽपि प्रियस इति वर-दानं ददे देवी। उज्जयिनी नीतर-तत आरभ्य गिरिनारं यावत् सुरङ्गा दत्ता, तत्र मुक्तो वधितो देव्या । दिवा तत्रैव तिष्ठति रात्रौ चौर्यस्य व्यसनं समजायत । नगर- मध्ये चौर्यं करोति । लोकैविक्रम-नृपाग्रे रावा कृता । राज्ञा तलारक्षमाक्रोश्य रक्षा कारिता। परं चौरो न लभ्यते । इतश्च नवलक्ष-तिलङ्ग-देशाधिपस्य तैलप-देवराज्ञः पुत्री शृङ्गारदेवी । तत्पाणिग्रहणाय जगाम विक्रमः, भट्ट मन्त्र्यादि-प्रधानानां पुरं भलाटय । राजा तां परिणीय कालेनागाच्च-मुहूर्त्ताभावादुद्यान-वाटिकायां स्थितः । मन्त्रि-प्रभृतीभ्या मिलनायागुः । पृष्टं पुर-समाधि-स्व रूपम् । लोकैरुक्तम्-सामस्त्येनाधिरस्ति, चौरैः सन्तापितो लोकः । राजाऽऽह-तलाराः किं कुर्वन्तः सन्ति । लोका वदन्ति-रङ्का रङ्कानां बाहो विलग्ना सन्ति । एतैः किं स्यात् । राज्ञा तदैव प्रतिज्ञाऽग्राहि-चौर-निग्रह-करणं विना पुरान्तः-प्रवेशं न करोमि । तां नवोढां राजा तैः सार्धं गृहे प्रेषयति स्म । खापरेण तज्ज्ञात्वा मार्गत एव तामाहृता सुरङ्गान्तर्मुक्त्वा । हरसिद्धि-प्रासाद-मत्तवारण उपविष्टोऽपर-पञ्च-चौर युतः । राज्ञा लोकेभ्यो राज्ञी-हरणं श्रुत्वाऽचिन्तिमया स्व-राज्ञी रक्षणं कर्तुं न पार्यते कथं लोकरक्षणं करिष्ये । ततोऽग्नि-वेतालं स्मृत्वाऽन्धकारपटमानाययति । तेन स्वमाच्छाद्य खङ्ग-पाणिर्हरसिद्धः प्रासादेऽगात् । तत्र स दृष्ट चौरं ज्ञात्वा चौर-रूपं कृतं राज्ञा । मिलिताः परस्परम् । तन्मुव्येन पृष्टः-क्व वससि तेनोक्तम्आसन्न-ग्रामे। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम् वीकउ इति नाम । चोर्येणैव मे निर्वाहः । तैरुक्तम्-अस्मत्सार्थे भारोद्वहनायागच्छ। तवापि भागं दास्यामः । तेनोक्तम-ओमिति । ततः षडपि पुरान्तः प्रविष्टा गताः कान्दविक-गृहे । माडू प्रतिपन्न-भगिनीमाकार्य खाद्यं गृहीतं भक्षितं च तत्रैव । त्वमपि भक्षयेत्युक्ते राजाऽऽह-नाहं भक्षयामि । माङ्कः पृच्छति-क एषः । तैरुक्तम्-एषोऽपि मिलितोऽस्ति । किं नाम । तैरुक्तं वीकउ क्षत्रिय आसन्न-ग्रामवासी। साऽतीवधूर्ता चिन्तयति-एते मूर्खा विक्रम नरपति न जानन्तः सन्ति, यतोऽद्य राजा प्रतिज्ञावान् चौराणां चराचरं विलोकयन्नस्ति । स एव मिलितः सम्भाव्यते । तयोक्तम् तत्प्रीत्यर्थम्-स मम भागिनेयो रुचिरं रक्षणीयः । भगोऽपि देयः । तैरुक्तम् ओमिति । ते निःसृत्य चलिताः । आगच्छ भो भागिनेय । माङ्क-भागिनेयत्वादस्माकमपि भागिनेयः । ततो राज-भवनं गता । राजा तच्चराचरं विलोकते । तावता पञ्च राज्ञो गृहीत-सङ्केतास्तै कामिताः । षष्ठस्य कृते षष्ठयाकारिता । सा वक्ति-विक्रम नरोत्तमं प्राप्याऽपरैः समं कथं भोगेच्छ सा मन्यते न । तदपि दृष्टम् । राझ्यः पार्वाद् रत्न-पेटीगृहीत्वा निर्गताः षडपि । तैः सर्वा अपि राज्ञ उत्पाटनाय चाऽपिताः तेनाऽग्निकस्याऽर्पिताः । तत आगत्य ते सुरङ्ग-मध्ये गताः । शिलां पश्चात्कृत्य । एतावता रात्रिविभाता । दिनोदये द्वारस्थान् चतुरश्चौरान्नि हत्य राज्ञोक्तम्-रे खापरक! तव विक्रमो रुष्टः । खङ्ग-गृहाण । ददें(?)स रङ्को हतो । राज्ञा लोकानाकार्य स्वं स्वं धनं समर्पितं तेभ्यः । प्रतिज्ञा-पूरणादृष्टो नृपः पुर-प्रवेशमकरोत् समहोत्सवं । दुःशीलाः पञ्च राज्यो निष्कासिताः । सुशीला पट्टराज्ञी कृता । लोकाश्चौरोपद्रव-रहिता जाताः । खापर-सम्बन्धः । तद्वदत्राऽपि चौरा दुर्ग्राह्या इति तलार-वाक्यं श्रुत्वा [राजा महाजनं प्रत्यपृच्छन्-भो महाजना युष्माकं किं] वस्तु चौरेण गृहीतमस्ति । तदा महाजनेन पूर्वमिव समस्यया प्रोक्तम्हे स्वामिन् तद् वस्तु कन्दर्प चमूर स्थल-मण्डनीभूतमस्ति । राज्ञा पर्यवसितम्-कामसेनाहृदये कञ्चकः किं मुहराई(?) महाजनोऽवग-देव त्वं । चतुर-चूडामणिः सप्तशती-सालवाहनग्रन्थादि-कर्ता कवि-चक्रवर्ती । एष कञ्चको मासात् प्रागस्य कामदेव-व्यवहारिणो गृहे खात्रं पपात तदा गतोऽभूत । सोऽद्य दृष्ट उपलक्षितश्चानेनाभिज्ञानेन बहु धनं गतमस्य । ततो राज्ञा पृष्टा-सा-हे कामसेने कथय केनेयं तव कञ्चलिका दत्ता । सा प्राह-देव अस्माकं गहे नरविर-चौर-वरड-साध्वसाधु-जना [बहव] आगच्छन्ति । अस्माकं नाचारो यत्कस्याप्यग्रे कस्यचित् कथ्यते। तेषामस्माकं च मनांसि जानन्ति । यदि वयं कथयामस्तदाऽस्मद्गृहे भयेन न कोऽप्यागच्छति । राज्ञा साम-दान-दण्डादिप्रकारैः पृष्टाऽपि नाकथयत् । ततो रुष्टो राजा दण्डपाशकानाकार्य प्राह-अस्याश्चौर-दण्डं कुर्वन्तु शूलिकाभेदेन । शत शोऽपि पृष्टा एकपदेनैवाऽभवत्, न पुनः प्रष्टव्यं । यतोऽस्या गृहे चौरारि-तष्ठन्ति मया पृष्टाऽपि न वक्ति । एतेन दण्डयोग्यैषैव । बहु-दान-मान-प्रदानैरपि नह्यात्मीयैषा । यतः - Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम् पासा वेसा अग्नि जल, ठग ठक्कर सोनार । ए दस न हूइ अप्पणां, मंकड बडूअ बिलाड ॥ २६७ तदादेशेन तलारस्तां दृढं बद्धा चौर-निग्रह-स्थानं शूलिका-स्थलं नाम स्थलं प्रति चचाल । तस्याः शेष-परिवारः शीघ्रमकायै तत्स्वरूपमकथयत् । अक्का वदति-अरे कामसेनायाः केन हेतुना शूलिकाभेदं कारयति नृपः । परिवारेणोक्तम्-कञ्चक-पदे । अक्काऽऽह-स कञ्चकदाताऽद्योप्यत्राऽस्ति । तस्मिन् सति कामसेनायाः कः सम्बन्धो दण्डकरणे । तदैव द्यूतस्थानस्थं तं कुमारं प्राह अतिक्रोधाकुला-तव कञ्चलिकां ज्वालय या कामसेनायाः कलिः । कुमारः प्राह-कथं कथम् तया प्रोक्तम् तत्स्वरूपम् । तावता तलारेण शूली-स्थाने नीता कामसेना । शीघ्रं धावति सदयस्ततः स्थानादेव । यावता खङ्ग-ग्रहणायायाति तावता तस्या मरणं भवेत्। तत्र गतः प्राह-भोस्तलार नहीयं चौर-दण्डाहा॑ । कञ्च कचौरोऽहम् । शूकाराः क्षेत्रं खादन्ति पट्टक - मुखानि कुट्टयसि । मुञ्चेताम् । मम कथय यत् कथनीयमित्यादि । कामसेनाबन्धनानि च्छिनत्ति । तां मुमोच बलेन । तलारो रुष्टस्तन्मारणार्थं धावति । ततः कुमारेण कङ्कलोह-क्षुरिकया तन्नाशां छित्त्वा प्रोक्तम्-रे वराक त्वं मुक्तोऽसि जीवन । किं तव रङ्कस्य घातेन । परमेतावता मारित एव जानीहि । एवंविधोऽपि स्व-कुटुम्बाय मिल । याहि याहि स्वमुखं लात्वा । कथय तव राज्ञश्चौरो लब्ध इति । स्वयं कुमारः शूली-स्थाने स्थितोऽसि-फलक-रहित एव । तलारनाशा-छेदं श्रुत्वा केऽपि लोका हृष्टा वदन्ति-वरं जातं यत एष कोट्टपालो जनानां बलेन वृषभशकट-खट्वादि-ग्रहणेनोद्वेजकोऽभूत । तलारो राज्ञः पुरो गत्वा मुखं दर्शयति । राज्ञा पृष्टे कामसेना-मोचन-स्वरूपमकथयत् । राजा पृच्छति-केनमुक्ता । स वक्ति-नोऽहं वेद्मि । ततो रुष्टो राजा बहु-कटक-प्रेषणेन तन्निग्रहाय सेनानी प्राहिणोत् । कटकेन वेष्टनं करोति तन्मारणाय सेनानीः । युद्धं बहुवेलां यावद्धरसिद्धि-देवी-प्रभावात् क्षणात् कटकं भग्नं कुमारेण । तेषामेव धनुर्बाणान् गृहीत्वा तैरविद्धान् नामुचत कटक- भटान् कानवि । ततो नगर-जनो बालगोपालादिः कौतुकं-विलोकनाय तत्रागात् । लोकास्तत्पराक्रमं दृष्ट्वा वदन्ति-अहो एष चौरः सर्व-कटकेनाऽपि जेतुं न शक्यते । तावता तत्रा-गतेन सोमदत्त-व्यवहारिणा स उपलक्षितः । अहो एष स एव येन मम ५१६-झगटकं निर्वालितं निजबुद्धया । ततोऽहमस्य पाāगत्वा पृच्छामि किमेतदिति । ततस्तलारस्य कथयित्वा तदनुमतिं च गृहीत्वा गतः कुमारान्तिके प्रोक्तं च श्रेष्ठिना-भो नरोत्तम मामुपलक्षयसि । कुमारः प्राह-ओमिति । श्रेष्ठी पृच्छति-कोऽयं तवाऽनर्थ-प्रकारः । केन वा चौरस्या ल दत्तं तव । कुमारो हर्षोज्ज्वल-चित्तः प्राह-श्रेष्ठिवरमया स्वयमेवाङ्गीकृतं कौतुक-करणाय । श्रेष्ठी ब्रूते-अहो वरं कौतुकमनेन प्राणनाश एव स्यात् । को निर्वाहयिष्यति। कुमारो वक्ति-अहमेव निर्वाहयिष्यामि । श्रेष्ठी वदति-त्वं चतुरो-प्यतिविरूपं कृतवान् । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम् यतः - अव्यापारेषु व्यापारं, यो नरः कर्तुमिच्छति । स शीघ्रं निधनं याति, कीलोत्पाटीव वानरः ॥ २६८ कथाऽत्र कुमारोऽवक् -श्रेष्ठि-श्रेष्ठ मा खेदं वह । न कश्चिदोषोऽनर्थ प्रकारो मम कौतुकमात्रमेव । गन्तुं चेच्चिन्तयामि तदैतेषां पश्यतामेव हस्ते ताली दत्त्वा व्रजामि । परं कामसेनाया अनर्थो भवति तेन तद्रक्षायै स्थितोऽस्म्यत्र । मम तु दुःखं किमपि न भविष्यति । तश्चिन्तां मनस्यपि मा कृथाः । परं ममैकं कार्यमस्ति बाढमत्या x x करणीयम् । त त्वं कुरु । तत्कार्य-करणे मम महानुपकारः कृतो भविष्यति । अपरो नरः कोऽपि नाऽस्ति यस्याग्रे तत्कार्यं कथ्यते करोति च । श्रेष्ठी प्रोचे-कथय किं तत्कार्यं करणीयमस्ति यत्करोमि । स वक्ति-आसन-ग्रामे विश्वरूपभट्ट-गृहे मम भार्या मुक्ताऽस्ति । मयाऽत्राऽगच्छता तस्या अग्रे प्रोक्तं -पञ्चम-दिने प्रहर-द्वय मध्य आगमिष्यामि । तया प्रोक्तं-यदि पञ्चम-दिने नागमिष्यसि तदा निश्चयेन काष्ठानि भक्षयिष्यामि। ततस्तस्याः पुरः पञ्चम-दिनागमन-प्रतिज्ञयात्राऽगतोऽस्मि । तद्य पञ्चमं दिनमेकप्रहश्चटितो मम गमनं तु नाऽभवत् । सा-त्वरितं मदागमनमवेक्ष्यमाणा भृशमाकुलतया तिष्ठति । तेन लेखं लिखित्वा त्वं जनं प्रेषय शीघ्रम् । एवं ज्ञापय च तव पतिरत्र बाढ कार्यविशेषेण स्थितोऽस्ति । माऽधृतिं कुर्याः । प्रातरादौ समेष्यति । अत्र चौरं कृत्वाऽस्तीति मा लिखेस्तस्याः प्राण-वियोजन-हेतु-भवनात् । ततः सोमदत्तः श्रेष्ठी दयापरः कृत-ज्ञश्चिन्तयति । एष महाभागश्चन्मोच्यते तदा वरं । अनेन मम प्रागुपकारः कृतोः । अतो ममाऽपि प्रत्युपकारकरणावसरः अथवाऽन्यथाऽपि पर-कष्टं धनेन न स्फोटयति तदा तस्य धनस्य किं प्रमाणं यतः - जीणइ अर्थि न भाजइ भीड, जीणइ परनी न टलइ पीड । सजण मित्र काजि यालीइ, सा संपति, सघली जालीइ ॥ २६९ तथा - दत्तं न वित्तं करुणा-निमित्तं, लोभ-प्रवत्तं कृतमेव चित्तम् । यैः सञ्चयोत्साह-रसानुवृत्तं, शोचन्ति ते पातक मात्मवृत्तम ॥ २७० ततः प्राह श्रेष्ठी-भो एवं चेदस्ति तदा त्वमेव याहि । अदो झगटकं धन-प्रदानादिनाऽहं निर्वालयिष्यामि । यतः - नहि तद्विद्यते किञ्चिद, यदर्थेन न सिध्यति । वर्धन्तेऽस्माक्रियाः सर्वाः, पर्वतेभ्य इवाऽऽपगाः । २७१ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम् कुमारो वक्ति-नाहं तव झगटकं विलगाड्य यास्यामि । यतो नाहं गज-समो । यथाः - गजपतिः श्रान्तश्छायार्थी वृक्षमाश्रितः । __ विश्रम्य तं द्रुमं हन्ति,तथा नीच: स्वामाश्रयम् ।। २७२ श्रेष्ठी प्रोचे-भो अद्य तव स्थानेऽत्राहं स्थितोऽस्मि । त्वमेव स्वं कार्यं कृत्वाऽऽगच्छ। सदयेनोक्तम्-एवं कल्ये निश्चयेन गमिष्यामि । ततः श्रेष्ठी तलारक्षमा कार्य प्रोक्तवान्-हे तलारः राज्ञोऽग्रे कथय सोमदत्त श्रेष्ठी चौरस्य प्रतिभूर्भूत्वैकं दिनं याचते, तं मोचयन्नस्ति । चौरो यद्यागामि-दिन आगमिष्यति तदा तमर्पयामि । नो चेत्तदा यस्य श्रेष्ठिनः खात्रे यद्वतमस्ति तस्य तत्खात्र-धन-प्रमाणं धनमर्पयति । राज्ञोऽपि लक्षस्वर्णं दास्यति । इति ज्ञापयित्वा शीघ्रं चौर मोचनायादेशमानय । ततो गतस्तलारः । कथितं राज्ञे श्रेष्ठि-वाचिकम्-राजा मन्त्रि-पार्वे पृच्छति। मन्त्री प्राह-देव सोमदत्तो धन-मदेन मत्तोऽस्तीति चौरस्यास्य प्रतिभूर्भवनस्ति । अयं चौरोऽनेन मोचितः पुनः कल्ये किं पश्चादागमिष्यति । श्रेष्ठि-वरः खात्रादिकं निर्वाहयिष्यति । यावत् तु काचिच्छिक्षा लग्ना न भविष्यति तावच्चौरादीनां पटूभवनादिकं कुर्वत्र स्थास्यति । तेन देहि मोचनादेशम् । राज्ञा तलार-मुखेनदत्त आदेशः । तलारेण गत्वा श्रेष्ठिने प्रोक्तम् । मुक्तश्चौरः । स्थितस्तस्य स्थाने श्रेष्ठी । उवाच च तं प्रति-भो अग्रतोऽपि गच्छे मा पुनः पश्चादागमिष्यस्यहं भलिष्ये । तेन तत्राऽनुज्ञातम् । हट्टान्तःस्थां स्थापनिकां गृहीत्वोत्सुकोऽभुक्त एव प्रिया-मरणभवन सम्भावनााऽसि-फलकादि च मुक्त्वा गतः । तावत्-तत्र द्विपहरानन्तरं सावलिङ्गी भट्ट प्रति वदति-हे बान्धव ममपतिः प्रहर-द्वयं त्रयं यावद् विलोकित-मार्गोऽपि नागतः । तेनाहं जानामि तत्र कुशलं नाऽस्ति, यतश्चतुः षष्टियोगिनीपीठं तत्पुरम् । ततोऽमङ्गलाशङ्कि मच्चित्तं, यतः प्रणयिनृचेतार-युक्त-वेलातिक्रमेऽधृतिभाञ्जि भवन्ति । तस्मान् मम काष्ठानि देहि । भट्टः प्राह-भगिनि उत्सुका किं भवसि । दिनान्तं यावद् विलोकय । तव पणं ज्ञात्वां गतोऽस्ति सोऽनागतः कथं तिष्ठति । यदि वाऽसौ तव काष्ठ-भक्षणानन्तरमागमिष्यति तदा तस्योत्तरं किं ददामि । ततः सा प्राह-मया प्रहर द्वयमेव प्रोक्तम भुद अधुना चतुर्थः प्रहरोः अतो मम वाचामनेनाऽसती मा कुरु । त्वं चेन्मम भ्राता सत्यस्तदा मे काष्ठान्येव देहि । तिष्ठामि न कथमपि। इकि वईरी नइ वल्लह, हियइ खट्टइ(?खडक्कइ) दुन्नि । वीसारतां न वीसर रइ, वसतां उव्वसि रन्नि ॥ २७३ ततो भट्टेन काष्ठानि बहिः क्षिप्तानि । सा शुचिर्भूत्वाऽऽगच्छति । कालक्षेप-करणाय शनैः शनै रचयति । अग्निना प्रज्वालिता च धूम आकाशं व्यानशे । यावता सदयो ग्रामासन्न Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम् आगात् तावता बहुल-धूमं दृष्ट्वा व्याकुल-चित्तो बभूव । लोचने अश्रुपाताविले बभूवतुः । धूमेनाऽकुलत्वं युक्तं परं धूमदर्शने त्वाकुलत्वं चित्रकारि । ततः स चिन्तयति-एतद्भूमेन ज्ञायते निश्चयेन सा चितां प्रविष्टा ततो हृदय-दुःखादितो द्रुतं द्रुतं धावति । यतः - कलहंता भक्खंता, भय-संतत्ता कहाणए लग्गा । पिय-दंसण-ओसरिआ, रिवप्पं वच्चंति मग्गम्मि ॥ २७४ यावता सा चिता-मध्ये झम्पां ददाति तावता लोकैः प्रोक्तम्-भोः कोऽपि पटीभ्रमण-संज्ञा कुर्वन् द्रुतं द्रुतं धावन्नागच्छन्नस्ति । क्षणं प्रतीक्षस्व । भट्टेन बलेन स्थापिता सा। तावता सदयः समागतो । हृष्टो भट्टो लोकश्च । कुमारेणोक्तम्-प्रिये किमिदं क्रियमाणमस्ति सा प्राह-स्वामिन् प्रहर-द्वयमेव प्रतिज्ञातमभूत । प्रहर-द्वयातिकमे काष्ठान्युक्तान्येव प्राक् । परं प्रहरत्रयं यावन्मया प्रतीक्षितं भट्टस्यास्य वचसा। दिनान्तोऽभूत । सदयः प्राह ग्रामं गतस्य प्रहराधिकोऽपि लगति कदाचित् ततः सहसैवं कथं क्रियते । सा प्राह - पुनिम-तिही-विरहिओ, जीयइ चंदो स-तेय-परिहीणो । वल्लह-विरहे मरणं, होइ पुणो कित्तिअं एअं ॥ २७५ सर्वेषां हर्षः सम्पन्नः । भट्टेन प्रवेशमहश्चके भोजनादिसामग्यपि च । ततः प्रियायै वस्त्रालङ्कारादि दत्तं कुमारेण । सा हृष्टाऽभवतैः । यतः स्त्रीणां प्रथमं यौवन-सौभाग्य-सुन्दरः पतिः प्रमोदप्रदस्तदनु दुकूल-शाटिकादि वरा सुरा कौसुम्भोत्तरीय-वस्त्र-हार-नूपुर झालिनगोदर-कनक चूडि-कङ्कण-प्रमुखा अलङ्कारा मनस्तुष्टि प्रदाः । ततः कुमारेण प्रभाते प्रियायाः प्रोक्तम्-ममौत्सुक्येना गमनादसिफलके तत्रैव स्थिते । तेनाऽद्य गत्वा ते आन यामि । सा प्राह कदागमिष्यथः । कुमारोऽव कल्य एवं कदाचिद् घटी प्रहरो वाऽधिको लगति तदा पुर्ववन् न कार्यम् । सा वक्ति - तत्तथैव तेन विलम्बो न विधेयः । तस्यास्तं निश्चय मत्वा स वत्तिएवं भवतु। . ततः - चलिओ कुमर रोअंती नारि, अंजण लूहिअ कज्जल वारि । अबलि न आवउं बोलिइ वारि, जं मनि भावइ करे तिवारि ॥ २७६ ततो द्राग्गतः स तस्मिन् पुरे । तस्मै श्रेष्ठिने प्रोक्तम्-अहमुक्त-वेलायामागतोऽस्मि। त्वं राज-समीपे गत्वाऽऽत्मानमुच्छृङ्खलं कुरु । श्रेष्ठी प्रोक्तवान्-भोः पापिन् त्वं कस्मादागतोऽसि मरणार्थं चेद्भवानागतो नाभविष्यत्तदाऽहं धन-बलेन सर्व प्राध्वरमकरिष्यं । लोके मम Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम् कीतिरभविष्यद् यदनेन दयावता धन-व्ययेनाऽपि चौरो मोचित इति । यतः - __ भूतानुकम्पा प्रियवागयाञ्चा, लज्जा क्षमौचित्यमुदारता च । कृतज्ञताऽन्योपकृतिः सुशीलं, स्थानानि कीर्तेर्दश कीर्तितानि ॥ २७७ मम कीर्तिस्त्वया स्व-जीविताशया सह हता । ततः कुमारो ब्रूते-अहो श्रेष्ठिपुत्र उचितमेतद् भवाद्दशां वक्तुं कर्तुं च । यतः - उपकर्तुं प्रियं वक्तुं, कर्तुं स्नेहमकृत्रिमम् । सज्जनानां स्वभावोऽयं केनेन्दुः शिशिरीकृतः ॥ २७८ परमहं तव धन-नाशं कस्मात् कारयामि । नीचानां स्वभावोऽयं यदुपकारिषु विरूपकारित्वं । यतः - छिन्त्यम्बुज-पत्राणि, हंसास्तज्जीविनोऽपि हि । सन्तोषयति तान्येव, दूरस्थोऽपि दिवाकरः ॥ २७९ त्वं व्रज। सुखासिकया तिष्ठ । गतः सोमदत्तः श्रेष्ठी राजसभाम् । उक्तं-देव आगतः स चोर अहं मुत्कलोऽस्मि । तच्छुत्वा राजादय आहुः-स चौर आगतः । श्रेष्ठी प्रोच ओमिति । सर्वा सभा चमत्कृता वक्ति-श्रेष्ठिवर । तव सत्त्वं । व्याख्यायते तस्य वा । एके प्रोचुर्द्वयोरपि। तथा चौरस्य सत्यसन्धात्वं पश्यतु यो गतोऽप्युक्तवेलायां समागात्-मृत्युभयेन यो नंष्ट्वा न गतः। ' यतः - मृत्युभीतस्त्यजत्येव, पितृ-मातृ-प्रिया-सुतान् । वज्र-भीत्या त्यजन् सर्वं, मैनाकोऽब्धौ पपात न ॥ २८० पुना राजाऽनुवदति-अयं प्रतिज्ञा-पालन-निश्चयान् महाकुलः सम्भाव्यते । यतो नीचानामुक्तमपि निरर्थकं । यतः - रासह-रडिअं कुनरिंद-जंपियं इयर-लोय-पडिवन्नं । पुव्वं पि होइ गुरुअं, पच्छा पच्छा लहुयरं च ॥ २८१ महतां पुनर्विचलमेव । यतः - दिग्गज-कूर्म-कुलाचल-फणिपति-विधृताऽपि चलति वसुधेयम् । प्रतिपत्रममलमनसां, न चलति, पुंसां युगान्तेऽपि ।। २८२ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम् तथा मार्तण्डान्वयजन्मना क्षितिभृता चाण्डाल-सेवा कृता, रामेणाद्भुत - विक्रमेण सहसा संसेविताः कन्दराः । भीमाद्यैः शशि-वंशजैर्नृपवरैर्दास्यं कृतं रङ्कवत्, स्वां भाषां प्रतिपालनाय पुरुषैः किं किं न चाङ्गीकृतम् ॥ २८३ ततो राज्ञाऽनुज्ञातः सन् श्रेष्ठी स्वस्थाने प्राप्तः । कुमार स्तलारं प्रत्याह- भोस्तव राज्ञो य आदेशो भवति तं शीघ्रं कुरु । मम पश्चाद्वतं विलोक्यत उक्तवेलोपरि । लोका हसन्तियअहो चौरस्योक्तवेलोपरि गृहे गमनेच्छा समस्ति । ततो राजादेशात् सदयेन सह युद्धे जायमाने बहु-उ -जन-क्षयं दृष्ट्वा राजा चिन्तयति मम जन-क्षयो भवति, एतस्य चौरस्य तु चित्त-संक्षोभो मनागपि न भवति । अस्य च्छोतिका - पाटनमपि न भवदस्ति अतो मम द्वि-पञ्चाशतं वीरानुत्थाययामि तेषां वीराणामद्याऽपि निद्राऽपि x x x नास्ति । ततस्ते ५२ वीरा राज्ञा युद्धाय प्रेरिताः । तै लग्ना योद्धुं । तैः सह सदयो युध्यति । परं ते द्विपञ्चाशत् तैः स एकोऽपि न पराजीयते। ततोऽवलोकक - लोकाश्चमत्कृता वदन्ति I यतः - xxx सुहघरि महिला यह, कुट्टणि को न समत्थ । समरंगणि भड - संमुहा, विरला वाहइ हत्थ ॥ २८४ इतश्च कोऽपि विद्यासिद्धोऽभिनव - नारद - तुल्यो युद्ध-रस कौतुकी तत्राऽऽगाद् युद्धविलोकनाय । कुमार- पार्श्व एक एव कुमारो योद्धा नाऽपरः । तेन युद्ध-विलोकन - रसस्तस्य न पूर्यते । कुमार- पार्श्वेऽपि बहवो भवन्ति तदा वरमिति विचार्य कुमार- पार्श्व आगत्य पृच्छतिभौ महा - सुभट तव पक्षे कोऽपि साहाय्यकर्ता न दृश्यते । किं नास्ति तादृशः कोऽपि शूरो किं करोति । 1 यतः - ५९ असहायः समर्थोऽपिं, तेजस्वी किं करिष्यति । निर्वाते पतितो वहिनः स्वयमेव प्रशाम्यति ॥ २८५ कुमारो वक्ति- मम पञ्चकीराः साहाय्य कर्तारः सन्ति धनद - गिरि - गुफायां वसन्तः । परं मम केषांचिदपि साहय्यं विलोक्य ततः स नारदवत् कौतुकी तत्र गिरौ गत्वा प्रोचितवान तत्पुरोभो वीरा युष्माकं कञ्चुक-प्रदान- पन्थेन मित्रस्य शूलीभेदो भव- नस्ति प्रतिष्ठानपुरे । भवद्भिर्यात् किमपि चलति तत्कुरुत । सम्प्रति भवतामवसरः I Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम् विणए सिस्स परिक्खा, सुहड- परिक्खा य होइ संगामे । वसणे मित्त-परिक्खा, दाण - परिक्खा य दुक्काले ॥ २८६ मित्ताणममित्ताण वि, नज्जइ विहुरे जहट्ठिअं तत्तं । सत्थावत्थे समए, धणीण मित्तं जयं सयलं ॥ २८७ जानीयात् प्रेषणो भृत्यान्, बान्धवान् व्यसनागमे । मित्रमापदि काले च भार्यां च विभव-क्षये ॥ २८८ तच्छ्रुत्वा पञ्चापि वीरा अधावन् तत्साहाय्याय । अजा x x x x श्वमश्वेन स्थं रथेन गजं गजेनाहत्याहत्या-मर्दयत् । शूलीपाषाणवर्षणं करोति । शिलाघातेन कटकं चूर्णयति । शेवालः शीतज्वरं करोति । तज्जाड्येन कम्पित-शरीराः पदमपि चलितुंन शक्नुवन्ति । घोरान्धकारो मध्याह्नेऽपि । अन्धकार - करणादन्धानिवाऽकरोच्चमूभयन् । ततो विलोककनगरलोकास्ते नश्यन्ति पतन्ति च पुरमपि क्षुब्धम् । हरसिद्धि - प्रभावाद् द्विपञ्चाशदपि वीरा भग्ना । वीराणामुत्तारितं नीरं तेन । ततः स्व-बलं भग्नं नश्यश्च दृष्ट्वा सालवाहन नृश्चिन्तयति सङ्ग्रामे सुभटानां तु, कवीनां कवि-मण्डले । दीप्तिर्वा दीप्ति-हानिर्वा, मुहूर्तादेव जायते ॥ २८९ यतः तथा मम बलं पुरा केनाऽपि भग्नं नाऽभूदिदानीं तु ५२ वीरयुतं सर्वप्रकारेण भग्नमिति चिन्ताकुलचेता इतस्ततो विलाकयन्नस्थात् । - थल-बल - सिद्धि - बुद्धि जो जाणइ, ताण वित्राण बहुल वक्खाणइ । हय-गय-नर- नरिंद जो वाहइ, पडिओ विनाणी सो टगमग चाहइ ॥ २९० ततोऽस्य कुमारस्यापूर्व-रूप- लावण्यलक्षण - पराक्रमादि दृष्ट्वाऽचिन्तयत्-ना यं चौरो न च सामान्य-मानवो वा । किन्तु कोऽपि वीरेभ्योऽधिको वाऽऽराधित- वीरो यद्वा देवो विधा वा सम्भाव्यते । तस्माद्नेन सह युद्ध करणं न श्रेयस्करम् । अथेतो राजा युद्धं निषेधयामास । प्रोक्तं च भूमिवल्लभेन - भो वीर त्वमात्मानं प्रकाशय । स न प्रकाशयति स्वंम् - ततो नृपः कामसेनामाकार्य पृच्छति- हे कामसेने अयं नरस्तव गृहे कतिभ्यो दिनेभ्यो यावत् तिष्ठति किमप्यस्य कुल - गोत्र - नाम - स्थानादिकं त्वया ज्ञायते । सा प्राह- देव गृहे मम चत्वारि दिनानि स्थितः । अस्य कुलगोत्रादिकं तु न वेद्मि । परमस्यासिर्नामाङ्कितो मम गृहेऽस्ति । राज्ञा स आनायितो विलोकितश्च । तदा तत्र सुवर्णाक्षरे: सदयवत्स - कुमारस्य खङ्गमिति लिखितं दृष्टम् । राज्ञा प्रोक्तं- भो अनेनाभिज्ञानेन त्वं सदयवत्सोऽसि । मन्य स्व मा वेति । कुमारोऽब्रवीद्अहो वचन - चातुरी वरीयसी । क्व सालवाधीशसुतः क्वाहमेकाकी चौरो वीरः । राजाऽऽहभोस्तवासि-पट्टि कायां सदयवत्सस्य नामास्ति । सदयो ब्रूते - तत् सत्यम् खङ्गं सदयवत्सस्य Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम् मयोज्जयिनी-गतेन स्व-द्यूत-कलया तद्धस्तगतमेतज्जित्वा गृहीतम् । तेन हेतुना तन्नामात्र । राजाऽवद-मंत्र्यादीनां पुरः-पृथिव्यां स कोऽपि नास्ति यः सदयं छलेन बलेन कलया वा निर्जित्य तस्यासिं गृह्णाति सिंह-केसर-सटाभा रविमिव । परमेष एव सः । परमेष स्वं न मन्यमानोऽस्ति । तस्यात्र श्वशुर-वर्गस्य सद्भावाल्लज्जादिकारणैः स्वमपलपति । अन्यस्येदृशी शक्तिः क्व यया ५२ वीरा जीयन्ते । परं पितुः कोपदिकारणै xxx पमानः । स एषोत्रागात् । यतः - त्रयः स्थानं न मुञ्चन्ति, काकाः कापुरुषा मृगाः । अपमाने त्रयो यान्ति, सिंहाः सत्पुरुषा गजाः ।। २९१ मन्त्र्यादय प्रोचुः-दैव सत्यमेवं सम्भाव्यते । ततो राजा जगाद-सा कापि बुद्धिरस्ति यया कथमपि जीवनेष ध्रियते युद्धं विना यच्चकरणे नानर्थः । यतः - ___ महा-नदी-प्रतरणं, महा-पुरुष-विग्रहम् । महा-जन-विरोधं च, दूरतः परिवर्जयेत् ॥ २९२ तथा - अफलानि दुरन्तानि, सम-व्यय-फलानि च । अशक्यानि च कार्याणि, नैव कुर्याद् विचक्षणः ॥ २९३ तदा मुख्य-मन्त्र्यवोचत्-प्राध्वरं सुकरमेतद्धरणं देव । गजानामग्रे कः सबलो यतः - स धनी यस्य भूभागो, यस्याश्वास्तस्य मेदिनी । स जयी यस्य मातङ्गा यस्य दुर्गः स दुर्जयः ॥ २९४ जयत्येकोऽपि-गजोऽत्र, वाजि-लक्ष-चतुष्टयम् । तस्माद् गजा दले यस्य, तस्य हारिः कथं भवेत् ॥ २९५ ततः सर्वान हस्तिन आनाय्य कुम्भि-कुम्भ-शूलेन मेलयित्वा हस्ति-घटा-मध्यप्राकारे प्रक्षिप्य ध्रियते । इति मन्त्रिणोक्ते राज्ञाऽनुज्ञातं वरं वरमिति । आनीता गज-घटाः । वेष्टितोऽसौ । गजघटाः शनैः शनैरासन्ना विधीयन्ते हस्तिपकैः । कुमारः सङ्कीर्णेपपात । हृष्टा नृपादयो वदन्ति-भोः क्वयास्यसि सम्प्रति सङ्कीर्णे पतितः । ततो हसित्वा सदयः सिंह-नादं तथा ऽकरोद्यथा त्रस्ता गजा दिगन्तं प्रापुः । अङ्क शैस्ताडिता अपि न सम्मुखा बभूव । येषां गजानां बलेनास्य धरणी विषये महानूष्मा नूनं तेषामपि तेजो हतम् । अजा-वृन्द मिव नंष्ट्वा दिगन्तं Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम् गता अमी । इति चिन्तयते राज्ञे विज्ञप्तं सर्वैः-देव नायं धर्तुं शक्यते कैरपि प्रकारैः । ततश्चमत्कृतमना नृप आयुध-सन्नाह xxx टोप-गजादीस्त्यक्त्वा पाद-चारेण तत्सम्मुखमागात् । ततः कुमारोऽपि तं तथाऽऽगच्छन्तं दृष्ट्वा सम्मुखं गत्वा प्रणाममकरोत् । नहि सुकुलोद्भवा विनय-क्रियातो भ्रश्यन्ति । राज्ञा सस्नेहमा लिङ्गितः । नृपस्तं पराक्रमादिभिः सदयवत्सं ज्ञात्वा हृष्टो बहुमानपूर्वं स्वागतोदन्तमपृच्छत् । दृष्ट-ताद्दक्-पराक्रमेण चमत्कृताः पौर-लोकाः परस्परं जल्पन्ति-नासौ पूर्वमेवामानं प्रकटीचक्रे पराक्रम-मुखेन स्वं प्रकाशयामास । युक्तं चैतत् - अकृत्वा पौरुषं या श्रीविकाशिन्याऽपि किं तया । जरद्धवोऽपि वाऽश्नाति, दैवाद्भूमिगतं तृणम् ॥ २९६ राज्ञा पृष्टम् लोन-कञ्चकाङ्गीकरणाद् युद्ध करणत्वादेकाकि त्वत्-स्वरूपम् । प्रालपत् सदयो वीरपञ्चकार्पितकञ्चकस्वरूपं हस्ति - वध-मन्त्रि-प्रेरित-राज-कोप-भवनादिस्वरूपं च। तच्छत्वा नपोऽजल्पद्-अहो पितुः स्नेहो लोक-वचनैः पुत्रस्य देशनिष्कासनं करोति कथम्। कुमारो जगाद-पितुः किं दूषणम् । कर्मण एव दूषणम् - यतः - अस्ति बुद्धिः परेषां हि, xxx वर्तते क्वचित् । शक्रोऽपि कोपितं कर्म, नैव सान्त्वयितुं पटुः ॥ २९७ प्रददात्युत्सवै शोकं, शोके सम्मद-सम्पदम् ।। अन्यथा विदधत् सर्वं, बलीयः कर्म केवलम् ॥ २९८ अवश्यंभावि-भावनां, प्रतीकारो भवेद्यदि । तदा दुःखैर्न बाध्यन्ते, नलराज-युधिष्ठिराः ॥ २९९ राजाऽप्याह - एतत् सत्यमेव प्रागर्जितं को लङ्घयति । यतः - लक्ष्मीर्माता पिता विष्णुः, स्वयं च विषमायुधः । तथापि शम्भुना दग्धः, प्राकृतं केन लक्ष्यते ॥ ३०० उअणं भुवणक्कमणं, अस्थमणं तह य एग-दिवसम्मि । सूरस्स वि तिन्नि दसा, का गणणा इयर-लोयस्य ।। ३०१ दुष्ट-मन्त्रिणः कीद्दक् कथनम् । परे प्रोचुर्देव खला एवंविधा एव । यतः - सर्पः क्रूरो हि जीवेषु, सर्पात् क्रूरतरः खलः । मन्त्रोषध-वशात् सर्पः, खलः केनोपशाम्यते ॥ ३०२ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम् मम सुता क्वास्तिीति नृपेण पृष्टे कुमारेणोक्तम्-आसन्न ग्रामे भट्ट-गृहे । राजा सुखासन-प्रेषण-पूर्वं तदानयनाय शक्ति-सिंह सुतं प्रेषयति । स तत्र गत्वा स्वभगिनीं ननाम। तदा साऽजरामरो भूया इत्याशिषं ददौ । सोऽपि हसित्वा प्राह-यदि भवत्-पत्युः पुरतश्छुटिताः स्म तदाऽजरामरा एव जाताः स्म । तयाऽपि पृष्टं-कथं । तेन युद्ध-स्वरूपं प्रोक्तम् । ततः सदयवत्स-सहितां तां प्रौढ-महेन स्व-सौधे नयति राजा। कुमारः सभार्यस्तत्र सुखेन तिष्ठति। वर्षा-चतुर्मासी स्थितो द्यूताजितेन धनेन स्वगृहं पूरयति प्रत्यहम् । परं श्वशुर-गृहे स्थितस्य तस्य न रतिर्लज्जा-परवशतादि-हेतुभिः । तथा चोक्तं - शिरसा धार्यमाणोऽपि, सोमः सौम्येन शम्भुना । तथापि कृशतां याति, कष्टं खलु पराश्रयः ।। ३०३ कदाचिन्मनो-विनोदाय विद्वद्-गोष्ठि-सुख-लीनो दिनान्य-तिवाहयति रसावेश-हुदनिमग्न-चितः । यतः - सङ्गीतं सुकविवचस्ताम्बूलं प्रिय-जनस्य सन्देशः ।। सुचरित्रमित्रगोष्ठी, नव-नव-रस-युक्तयः षडिमाः ॥ ३०४ अन्यदाऽसौ श्लोक-द्वयमश्रौषीद्यथा -- मित्रवान् साधयत्यर्थान्, दुःसाध्यानपि तद्युतः । तस्मान् मित्राणि कुर्वीत, समानान्यात्मनः खलु ॥ ३०५ आपन्-नाशाय विबुधैः, कर्तव्याः सुहृदोऽमलाः । न तरत्यापदुदक - सिन्धौ मित्रविवर्जितः ॥ ३०६ कुर्वीत बहुमित्राणि, सबलान्यबलानि वा । गज-यूथं वने बद्धं, मूषकेण विमोचितम् ॥ ३०७ गज मूषक-कथा गज-मूषक-कथा च श्रुता यथा - कस्मिन्नपि वन उन्दरेण गज-यूथेन सह मैत्री कृता। गजः प्राह त्वया किमुपक्रियते । उन्दर ऊचे कदा कस्मिन्नवसरे लघुनाऽपि कार्यसिद्धिः स्यात् । यतःअसाध्यं गुरुभिः किञ्चित्, कार्यं कुर्याल्लघुः क्षणात् । रव्यसाध्यं तमो भूमि-गृहे-दीपः क्षेपन् न किम् ॥ ३०८ एवं प्रीतिर्जाता । गजस्यानुगमन-सम्मुख-गमनादि करोत्युन्दरः । एकदा कूट Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स- कथानकम् रचितखड्डायां पतितो गजो ना गच्छति । तदोन्दरोऽधृतिं करोति । गतो विलोकनार्थम् दृष्टो गजस्तथावस्थो । रोदिति मूषको । गजेनोचे - तव प्रीत्या: किं फलमुन्दर । ममाद्यैवावसरोऽस्ति । उन्दरो निज-जातिमा-कारितवान् । जाति - भक्तैस्तैः प्रोक्तम्-वयं न जाति-द्वेषक - श्वान इव । ततस्ते सर्वे मिलित्वा गतास्तत्र । पादैर्धूलिपटलं क्षिपन्ति गर्त्तायाम् रात्रि - चतुर्यामैः पूर्णा सा । निर्गतो गजराजी । लघवाऽप्यवसरे कार्यकराः । ततस्तेनैकं मित्रं कृत्वा वृद्धवाक्यम् शुश्राव एकं मित्रममित्रेषु, चैकं सूनुमसूनुषु । एकं नेत्रमनेत्रेषु, जगुर्मित्राणि तत्कुरु ॥ ३०९ इत्येतद्विचार्य त्रीणि मित्राणि साहस - बल-सम्पन्नानि क्रियन्ते स्म । चतुर्धा मित्राणि । तेषु द्वयं प्रतिपत्तव्यं । तथा चोक्तम् तथा च - त्यजेन्-माला-समं मित्रं, त्यजेन् मित्रं तुला-सभम् । न त्यजेन् मेघ-सदृशं, मही- तुल्यं च न त्यजेत् ॥ ३१० ता मित्त जिकणय - सम्, कसिआरं गरर्हिति । तावणि तोलपि घड-घडणि, छेदण न करंति ॥ ३११ इति परीक्ष्य च एको वणिग् द्वितीयो विप्रस्तृतीयः क्षत्रिय एते त्रयोऽपि सदयेन सह गच्छन्ति तिष्ठन्ति दिवानिशम् । धनैः पूर्णैः सदौदार्यगुणैश्च प्रख्यात - कीर्ति - पटले तस्मिन् को मित्रतां प्रतिपत्तुं सेवितुं वा नेच्छन्ति । यतः द्रविणैः कृपणोऽप्येति,सेव्यतां महतामपि । सेव्यः स्वर्णाद्रिरुन्निद्रैः, किं सदैव न दैवतैः ॥ ३१२ सूरोऽपि मेरुं परितो भ्रमन् न स्वर्णस्य माषं लभते कदापि । तथाऽपि नो मुञ्चति तत्समीप- माशा मलिना खलु जन्तु-वर्गे ॥ किं पुनरुदार: तथा चोक्तं धनवान् स्थूल- लक्षो यः, स हि कैः कैर्न सेव्यते । जलैः पूर्ण स्तटाकोऽत्र, सेव्यते विश्व-जन्तुभिः || ३१३ पुनरन्यदा द्यूत-स्थान-स्थितस्य सदयस्य कोऽपि वैदेशिको बहु- देश - भ्रमण - वीक्षितनानाश्चर्य-सन्ततिः पुरुषोऽमिलत् । तं नवीनं दृष्ट्वा सदयः पृच्छति - कुत आगाद्भवान् । स नरो Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम् वक्ति-तुम्ब वण-नगरादहमागां कुमार । तत्र पुर एको धनपतिर्व्यवहारी द्विधाऽपि हि यथार्थनामाऽस्ति । तस्य पिता वृद्धो मृतश्चिता-प्रज्वालितोऽपि प्रातह गृह-मध्ये तथैवागत्यसुप्तः । पुनः प्रज्वालितः पुना रात्रौ तथैवाऽऽगत्य सुप्तः । एवं ज्वालितस्य तस्य गता-गतं कुर्वतो वर्षमेकं समजनि । न कोऽपि विद्या-मन्त्रोऽस्ति यस्तं प्रज्ज्वाल्य पश्चादागच्छन्तं निवारयति । इयमपूर्वा वार्ताऽदृष्ट-श्रुत-पूर्वा । ततः सर्वमनापच्छय मित्र-त्रय-युत स्तत्र गतः कौतुकी xxxx तत्र नगर-प्रवेशे 'भुक्त्वा न मध्ये गम्यते ' इति वृद्धानां बुद्धि हृदये निधाय क्वोऽपि भोजनाय धान्य-पाकं कारयन्ति । भुक्त्वा स्वस्थीभूताः । यतो भुक्त्यनन्तरमेव सर्वाणि कार्याणि स्मरण-पथमायान्ति। उक्तं च - भार्या-स्नेहः स्वर-विशद्ता बुद्धयः सौमनस्यं, प्राणोऽनङ्गः पवन-शमता दुःख-हानिर्विलासाः । धर्मः शास्त्रं सुर-गुरु-नतिः शौचमाचार-चिन्ताः, शस्यैः पूर्णे जठर-पिठरे प्राणिनां सम्भवन्ति ॥ ३१४ तावता पटह-ध्वनिः कर्ण-पथमागाद् । भ्रमन्निति वदति-यो धनपति-व्यवहारिणः पितरं ज्वालयति तस्य स्वां सुतां लक्ष-सुवर्ण-युतां स ददाति । ततः सदयवत्स-कुमारेण पूर्वज्ञात-स्वरूपेण स्वमित्रं प्रेष्य पटह [स्पृष्टः] । ततो व्यवहारी बह्वतिभाक् तं समित्रं गृहे नयति । मार्गे गच्छन् कुमारो महत्कलकलं गणिकानां कारित-गान-ध्वनि श्रुत्वा पृच्छति-किमत्र मण्डलं मण्डितमस्ति । व्यवहारी कथयति अस्यापि शङ्कर-विप्रस्य गृहे मद्वद् वर्षा-दिवस- प्रमाणमजनि मण्डलस्याऽस्य मण्डितस्य । कुमारोऽपृच्छत्-केन हेतुना । श्रेष्ठी वदति-अस्य विप्रस्य पुत्री सुन्दरी-नामधेयाऽति-सुरसुन्दरी-रूप सम्पद, नीलोत्पल-दल-दीर्घ-लोचना चन्द्र-मुखी बन्धूक कुसुमारक्त-कान्त-दन्तच्छदाऽस्ति । सा दुष्ट-सीकोतरी-गृहीता विविध चेष्टां करोति तन्मोचनायानेके महा-मन्त्रवादिनो भूयांसोऽपि प्रतीकारानकार्षः । परं सा न मुञ्चति । कन्या न भुङ्क्ते न शेते खट्वायामुपविश्य तिष्ठति । रक्तलोचनैः सर्वान् भापयति । प्रत्यहं गानमेकं च कारयति । यदि गायनं न कारयन्ति तदा भृकुटिं कृत्वा पित्रादीनां ब्रूते-रे ममाऽग्रे गानं न कारयिष्यथ तदा सर्वान सम्मX मारयिष्यामि । तेनावर्षादवेत्थं गानमेकं भवदस्ति । स विप्रोऽपि पटहेन वक्ति-यो मम पुत्री सज्जीकरोति तस्यैतां स्वर्ण-लक्षेण सह ददामि। परं न कोऽपि सज्जयति । व्यवहारिमुखाच्छ्रुत्वा कुमारोऽवदत्-तवगृहे पश्चाद्वंस्यते । प्रथममस्य गृहे गत्वा सी कोत्तरी मोच्यते । व्यवहारी जगादभौः क्व यास्यसि । तव कोऽत्र प्रतापे अनेकैर्महा-मन्त्र-ज्ञैरेषाऽ साध्य-प्रतिक्रियेति कृत्वां मुक्ता । कुमारोऽवदद्-अस्तवेवम् परं मूषकोऽपि पोट्टलिक-मध्ये गण्यते कदाचितः । अतः कौतुकं विलोक्य गम्यते। गतस्तत्र हरसिद्धिं मनसि संस्मृत्य । यावद् बाह्मण-पुत्र्या स आगच्छन् Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम दृष्टस्तावद्धर सिद्धि-प्रभावतस्तद्गतं तेजः सोढुमशक्तया तया भय-भीतया शीघ्रं पल्यङ्कादुत्थाय xxxx कुमार-पादयोः पतित्वा प्रणतम् । स प्राह-रे दुष्टे ! ब्रह्म-सुत - व्रत-हत्याकारिणि चाण्डालि अस्पषं मा मां स्पृश । दूरे भव । इत्युदित्वा गले धृत्वा भित्त्या सह पश्चादाच्छटिता। पुनरुत्थाय प्राह-तव दास्यस्मि। मा मां मारय । कुमारो जल्पति-रे वर्ष यावत् त्वयेयं रुद्धा किलिता च कृतेयं पीङ्यमानाऽस्ति । अस्या भोगास्त्याजिता । ब्राह्मणकुटुम्ब पीयमानं दृष्ट्वा तव हृदये करुणालवोऽपि नोत्पद्यते। दुराचारिणि, त्वं मारणार्हाऽसि । मुञ्चैनाम् । नोचेन तदा हरसिद्धैर्वीर - दत्तया क्षुरिकया तव नाशां कर्णौ च छेत्स्यामि । ततो भीता प्राह-सीकोत्तरीमुञ्चामि मुञ्चाभ्येनाम् यास्यामि । मुक्ता मया। इति वाचं दत्त्वा गता नंष्ट्वैकक्षणभात्रेण । ततो ब्राह्मण-पुत्री सज्जा बभूव । उत्थापितं मण्डलम् विसर्जिता गायनाः । बाला स्नापयित्वा भोजनं कारिता । ब्राह्मणकुटुम्ब प्रमुदितम् । सर्वेषामाधिर्भग्नोः । विप्रौघ स्तं कुमारं स्तौति अद्य मे सुबहोः कालात् श्लाघनीयमभुदिदम् । त्वत्-पाद-पद्म-सत्-स्पर्श-सम्पन्नानुग्रहं गृहम् । ३१५ पुत्री तदैव कुमारस्य दत्ता पित्रा । तेन स्वमित्राय ब्राह्मणाय परिणायिता । विप्रेण लक्षस्वर्णं दत्तम् । व्यवहारी चित्ते चमच्चक्रे । ततस्तं स्वगृहे नयति । दर्शितश्च स्वपिता गृहमध्ये मृतकरूपः । कुमारेणोक्तम्-यदि प्रज्वाल्यते तदा किं लभ्येते । श्रेष्ठी प्रोचे-प्रज्वालनेन किं बहुभिरप्यग्रे प्रज्वालितः । त्वं यदि प्रज्वालयसि पश्चाच्चेनागमिष्यत्ययं तदा द्विलक्षी सुवर्णस्य स्वां च कन्यां ददे । कुमारेणोक्तम्-एवं भवंतु । ततः पाश्चात्य-प्रहरार्धेऽवशेष-दिने तच्छवं लात्वा मित्र-त्रय-युतो गच्छनुवाच-भो श्रेष्ठि-पुङ्गव तव पितुः कर्पूगगुरू-चन्दनादिकमन्तिम भोगं xxx xx कुमार ऊचे-तेषां ज्वालकानां सदृशो नाहम् । श्रेष्ठिना मानिता भोगाः । कथमपि प्रज्वाल्य पश्चादागच्छन्तं वारय । कुमार एवमस्तु । ततस्ते गताश्चत्वारोऽपि शमशानभुवि । तावता सन्ध्याऽपतत् । कुमारो मित्र-त्रयमाह- रात्रौ व्यन्तरादयः प्रबला भवन्ति । एष तु व्यन्तराधिष्ठितोऽस्ति। तेनाधुनाऽस्य प्रज्वालने नाऽस्ति युक्तिः। ततोऽत्रैवैनं मुक्त्वा प्रतिप्रहरं जागृमः अन्यथैषोंऽस्मांश्चतुरोऽपि । वञ्चयित्वा पूर्ववत् पश्चाद्यास्यति । ततो मित्रैरुक्तम्-एवं भवतु । तथा कृते प्रथम वणिग् जागर्ति । शेषाः सुप्ताः तदा दूरे स्त्री-रोदनं श्रुत्वा स चिन्तयति-का स्त्री श्मशानेऽत्ररोदिति । गत्वा विलोकयामि। उत्थितः सन् चिन्तयति-मृतकं शून्यं मुक्तं पश्चाद् यास्यतीति स्व पृष्ठे बद्ध्वा जगाम । तत्र गतः शूली-प्रोतमेकं चौरं पश्यति । तत्पार्श्वे स्युपविष्टाऽस्ति । तस्य हस्ते घेबरादि दृष्ट्वा स पृच्छति-का त्वम् । किं रोदिषि देवकि । सा प्राह-भोः साहसिक मम पतिरेष शुल्यग्रे जीवनस्ति । अहं स्नेह-पाशादस्य भोजन-दानायागताऽस्मि । परं किं कुर्व एष उच्चो न प्राप्नोमि । स दयावानाह-मम स्कन्धे चटित्वा भोजय । सा तथा करोति । तदा मांसखण्ड मेकं तस्य स्कन्धेऽपतंत । स ऊर्ध्वं पश्यति । तावता सा चौर-देह-मांस-खण्डानि च्छेद Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम् ६७ 1 I छेदं खादति । ततो रुष्टोऽसौ तां भूमावाहन्ति । ततो नश्यन्त्यास्तंस्याः करोऽसिना छित्त्वा पातितः । स करं विलोकते । तदा स्वर्ण - चुडि - कङ्कण - रत्नाभरणभूषितं तं दृष्ट्वा चिन्तयति - कस्याऽपि महर्द्धिकस्यैषा स्त्री । तं करं वालुकान्तः संगोप्य पश्चादागत्य स्थितः स्वस्थाने । एतावता प्रथमप्रहरकोऽभूत् । ततो द्वितीय - प्रहरे विप्रो जागर्ति । तावदेको राक्षसः श्याम देहः सप्ततालवदुच्चस्तस्याऽग्रे भूत्वा पुरं प्रति याति । तेनाचिन्ति-क्व यात्येष राक्षसो विलोकयामि । ततः स प्राग्वन् मृतकं पृष्ठे बद्ध्वा कृत- सुदृढ - परिकर -स्कन्धोऽनुययौः । साहसिकाः किं न कुर्वन्ति । स राक्षसो राज- मन्दिरं गत्वा राज्ञः सुतामादाय शीघ्रमेव पश्चाद्वलितो विप्रोऽपि तस्यानुपदं वलितः । राक्षसस्तां कन्यां सर्वतो गुफायां मुक्त्वा तस्या अग्रे गुफा द्वारच्छेदेऽस्थात् । चाटु वचनैस्तामर्थयति रागान्ध: । सा नानुमन्यते कथमपि । ततो रुष्ट राक्षसो वदति -रे दुष्टे मां नमन्यसे तदा स्मर तव रक्षकंम् । तव मस्तकं छेत्स्यामि । तावता स विप्रोऽपि राक्षस पृष्ठे प्रच्छन्नस्थितो विलोकयन्नस्ति । राजसुता सम्मुखस्था तं पश्यति । राक्षसस्तं पृष्ठस्थं न पश्यति । ततो राजकुमार्योक्तम्-आत्मभ्यां यस्तृतीयः स मम शरणम् । तयेत्युक्ते यावत् स राक्षसः पश्चाद् विलोकते तावत् पृष्ठस्थेन विप्रेणासि घातेन द्विधा कृतोऽसौ मृतः । स्वस्थाऽभूद राज - सुता । ततो विप्रेण पृष्टा सा-का त्वं । कस्य सुता । सा प्राह- अहमस्य पुरस्य नृपस्य विक्रमसेननाम्नः सुता लीलादेवीनाम्नी । ततः सन्धीर्य तां तत्स्थाने नीत्वा मुमोच । स पश्चादागत्य स्थितो मित्रपार्श्वे । एतावता द्वितीय-प्रहरोऽगात् । तृतीय- प्रहरे क्षत्रियो जागर्ति । शेषास्त्रयः सुप्ताः सन्ति । तस्य प्रहरकेऽग्निर्निर्वाणः । ततोऽनेन चिन्तितम् - यद्यग्निविध्यात स्तदा प्रभातेऽस्य मृतकस्य कृतेऽग्निरत्र कुत आनयिष्यते । अतोऽधुनैवानयामि इति विमृश्येतस्ततो विलोकते तावद्दूरेऽग्नि प्रज्वलन्तं पश्यति । ततः पूर्ववत् सोऽपि मृतकं पृष्ठे बद्ध्वा तत्र याति । तदा तत्र बहवो भूता मिलित्वा चुल्हकोपरि प्रौढ- गोलके क्षिप्रचटं रन्धयन्ति । त सर्वे परित उपविष्टाः सन्ति । अन्यत्र द्वाविंशति-पुरुषा रज्जुभिर्बद्ध्वा मुक्ताः सन्ति । ते पीडया करुण-स्वरं रणन्ति । ततः स क्षत्रियः साहसवान् तस्मादेव चुल्हकादुल्मुकं लात्वा तान्भूतान् प्रति धावितः । ततो नष्टास्ते सर्वेऽपि भूताः । साहसिकं प्रति कः प्रतिहर्तुं समर्थः 1 यतः - उद्यमं साहसं धैर्यं, बलं बुद्धिः पराक्रमः । षडेते यस्य विद्यन्ते, तस्य देवोऽपि शङ्कते ॥ ३१६ क्षिप्रचर - गोलकं बभञ्ज । ते पुरुषाः सर्वेऽपि च्छोटिता हृष्टा । पृष्टास्तेन भोः कुमारकाः-के यूयं । कुतो बन्धिताः तेऽप्यूचुर- वयं सर्वेऽप्यत्र राज्ञः सुता एतैर्भूतैः पापैरत्र भोजन-मध्येऽस्मान् शाक-पदे कर्तुं वयं बन्धित्वा मुक्ता अभूम अधुना त्वया बन्धनान्मोचिताः । अतः परं जीव्यते स तव प्रसादः । इति वदन्तस्ते । नगर- बहि: - प्रासादे स्थापयित्वा मुक्तास्तेन । Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम् स्वय- मग्नि गृहीत्वा स्वस्थाने गतः । ते त्रयोऽपि परस्परं स्व-स्व-प्रहर-विहितं कृत्यं नाकथयन् । तृतीय प्रहरोऽभूत । चतुर्थ-प्रहरे सदयवत्सोऽस्थात् । तदा मृतकमुत्थाय सदयमाहभोः पुरुष द्यूतेन रम्यते । सदयः प्राह-अहो वेताल मम-प्रतिज्ञाऽस्तियः सङ्ग्रामाया थवा घूताय प्रार्थयति तस्य मया तद्दातव्यमेवेति । तेन मया रम्यते । पर मत्र सार-पाशक-सारपट्टादि न किमपि । ततः कथं रम्यते ? तदा मृतकेनोक्तं मां मुञ्च यथैतत्सर्वं गृहीत्वागच्छामि । कुमारेणोक्तं कौतुकवता-एवं कुरु । ततो मृतकस्थेन वेताल एव मदनस्ति(?) प्रश्चाद्गमने प्रज्वलनादि च करोति तदपि वेतालविलसितमेव । अत एष एव निगृह्यते तदा वरमिति विचार्याऽऽह - भो गुह्यक् रम्यते । परं पण-मोचन-योग्यं वस्तु नास्ति मम पार्वे । वेतालो ब्रूते-तवासिरस्तु पणे कुमार। प्रज्वाल्य तन्मृतकम्-स प्राह-तत्प्रज्वालितं ही वेलाऽभूत । तेऽप्याहः-वयं किं नोत्थापिताः । कुमारो वक्ति- इयति कार्ये बहुभिर्जनैः किं क्रियते । ततः स्नानादिना पवित्रीभूय रात्रिवृत्तं स्व-स्व-कृतं परस्परं कथयन्तस्ते श्रेष्ठि-गृहं जग्मुः । प्रोक्तं च तैः श्रेष्ठिवर देह्यस्माकं स्वकन्यां स-स्वर्ण-लक्ष-द्वयींम् । श्रेष्ठि-श्रेष्ठोऽजल्यत्-एवमेवं चेत्समर्पयामि । तदा न ज्ञायते किं यद् भवतां कन्या-सहिता द्विलक्षी दत्ता भवति । यतः सर्वैरपीयदियत् कृतमयं त्वधुनैवाऽगत्य गृह-मध्ये स्वपिष्यति । ज्ञास्यते कल्य एव । कुमारोऽकथयदियन्ति दिनानि यदागत स्तदेव स्मरे तः परं तस्या गमनं विलोकयेः । श्रेष्ठी प्रोचे-पूर्वैरप्येवमेव प्रोचै । तथाप्यागच्छन् स्थितः तेन देयं श्वरेव दास्ये । ते सर्वे वदन्ति-श्वः कस्य दास्यसि ? वयं तु पान्थाः । अद्यैव ने ज्ञायतेऽस्माकं कुत्र वासो भविष्यति । मार्गे गच्छद्भिरेतदल्पकार्यं विहितम् । ततोऽधुनैव देहि। श्रेष्ठी वक्त्यि एवं बलात्कारेण ग्रहीष्यथ तदा गृहणीथ गृहान्तर्गतमधुनैव । इति वदतां तेषां कलहोऽजनि। श्रेष्ठी राज्ञः पार्वे गतोः । यतः - दुर्बलानामनाथानां, महा-कलह-कारिणाम् । उपद्रुतानां स्तेनाद्यैः, सर्वेषां पार्थिवो गतिः ।। ३१७ प्रोक्तं स्वरूपं ज्वालनस्य । बहुभिरप्येवं कृते मम पिताऽऽगच्छत्येव । एतैरद्य ज्वालितोऽद्यैव मार्गयन्ति । कल्पे चेन्नाऽऽगमिष्यति तदोक्तं देयं दास्ये । राजाऽऽह-भोः पान्था युक्तं वदत्येष, श्रेष्ठी। कुमार आह-देव ! पूर्व-ज्वालक-सद्दशो नाहम् । राज्ञोक्तम्-तव ज्वालने कोऽप्यपूर्वः प्रकारः । स आहो-अपूर्व एव । राज्ञा कौतुकिना पृष्टम् । तव ज्वालयतः किमपूर्व जातम्। अथ तैश्चतुभिश्चतुः-प्रहर-भवं स्वं स्वं कृतं चोक्तम् । ततो राजाऽऽह-न भवतां वचनमात्रेण प्रत्येमि Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम् यतः - अभिनव-सेवक-वचनैः, प्राघुणकोक्तैविलासिनी-रुदितैः । धूर्त-जन-वचन-निकरैरिह कश्चिदवञ्चितो नास्ति ॥ ३१८ यदि किमपि तदभिसद्भावाज्ज्ञानं दर्शयथ तदा सत्यं मेने । ततः प्रथम-प्रहर-जागर्ता वणिक् करं सुवर्ण-कङ्कण-चूडि-युतं समानीय राज्ञे दर्शितवान् । राज्ञा तं करमुपलक्ष्य प्रोचेअयं करो मम पट्टराज्ञी-सत्को मत्कारिताभरणसद्भावात् । ततोऽतीकमद्दधानः पृथ्वीपंतिस्तां राज्ञीमाकारयति दासीः प्रेष्य । ताः शीघ्रमागत्य प्रोचुरदेव ! राज्ञी नास्ति । राजा चमत्कृतः । सर्वत्र शोधयामास । परं न लब्धा राज्ञी । चिन्तयति च नृपः-अहो मम राझ्येवं विधा सीकोत्तर्यभूत् तद वरं जातं यदनया वयं न भक्षिताः । ईद्दशी यदि गता तदा गच्छतु । स्त्रीणां चरित्रं को वेद यतः - रवि-चरियं गह-चरियं, च राहु-चरियं च xxx | जाणंति बुद्धिमंता, महिला-चरियं न-याणंति ॥ ३१९ विहि-विलसियाण खल-भासियाण तह कूड-महिल-चरियाणं । मण-चितियाण पारं, जाणइ जइ होइ सव्वनू ॥ ३२० अत्र मन्त्र्युवाच-देव, प्राक्तनवृद्धैरुक्तं - किं गहनं स्त्रीचरितं, कश्चतुरो यो न खण्डितस्तेन । इति । • [स्त्री चरित-विषय आख्यानम्] अत्राख्यानं, यथा श्रीपुरे श्रीपति-श्रेष्ठी । कस्मिश्चन नर-कपाले-'अयं जीवन शतमारी मृत्तस्त्वेकोत्तर-शत-मारी' इति विधि-लिखिता लिपि दृष्य वाचिता च दिव्यानुभावेन। तज्ज्ञान-कौतुकिना तेन पट्टकूल-वेष्टितं कृत्वा करण्डके क्षिप्तम् । गृह आनीय । भार्यायाः प्रोक्तम्-करण्डिका नोद्धारनीयेति । रक्षतां रह इति । तयोद्धाट्य विलोकितं च नूनं काऽपि स्त्री परिणीता आसीत्तस्या मस्तकं मोहेन xxxx अतिकोपाच्चुल्हके ज्वालयित्वा तस्य रक्षा पयोमध्ये क्षिप्त्वा पीता । पुरा गर्भ-सद्भावा तस्य परिणमितो गर्भस्तद्रसभावितोऽभूत । कालेन पुत्रो जातः । यौवने बालादिसार्थो विदेशे चलितः । कनकपुरे प्राप । तत्र पटहो वाद्यमानो दृष्ट स्तेन । व्यतिकरं पृष्ट्वा स्पृष्टः । व्यतिकरस्त्वेवम्-एकदाऽत्रराज्ञोऽग्रे जीवन् महामत्स्यः केनापि प्राभृतीकृतः । राज्ञाऽन्तःपुरेऽप्रैषि । राज्ञीभिः प्रोक्तम्-अत्र पुरुष-नाम्ना सचेतनोऽचेतनोवा प्रवेशं Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम् न लभत एकं नृपं विना । तदस्माभिः पश्चात् प्रेषितो मत्स्यः । राज्ञोऽग्रे मुक्तो । दासीभी राज्ञा पृष्टम्-किं पश्चादानीतो । दास्यः प्राहुर-देव राझ्यः पतिव्रताः पर-पुरुषं स्पृशन्त्यपि न । एतावता मत्स्याऽट्ट-हास्येन हसति स्म । भयाच्चकितेन राज्ञा बहु-श्रुतः पृष्टः । प्राह सः - देव गृह्णन्ति कार्यस्य, ये पारं पुरुषाधमाः । ते सीदन्ति क्षणादेव, मू/ द्विज-सुतौ यथा ॥ ३२१ [मूखौं द्विज-सुतौ] राजाऽऽह तत् कथं - नन्दिग्रामे कश्चिद् विप्रस्य द्वौ सुतौ । एकदा ग्रामान्तरं गच्छन्ती नद्यां प्रवाहागतान् वटक-राशीन् भक्षयित्वा प्रमुदितौ । तत् सारस्यं वर्णयन्तौ तन्निर्णयार्थं तावनुनदीतटं गत्वा विलोकयन्तौ । अग्रे शूली-रोपित-पुरुष-रुधिर-बिन्दून् नीर-पतितान् वटकी भूय वहतो ददर्शतुः । ततः सञ्जात-शोकाश्चर्यो केनापि प्रतिबोधितौ-भो अयं भाग्यवान्नरः स एवंविधावस्थायामपि परोपकारीति। ततस्तौ स्वं निन्दन्तौ नद्यां पतित्वा मृतौ । ततः कस्यापि कार्यस्य पर्यन्तो न ग्राह्य। इत्यादि कथा न कैर्मासं यावत् प्रतारितो राजा तेन । रजा कदाग्रहं न मुञ्जति । तेनोक्तम् राजन् महाननर्थो भावी । राज्ञोक्तं तव न दोषः । ततस्तेन पाद-द्वयों-ल्लङ्घ न-योग्या गर्ता खानिता। अतः परं सर्वमाकारितं तद्वचसा राज्ञा गर्ता-लङ्गन आदिष्टं । उल्लङ्गिता गर्तेकोत्तरशतस्त्रीभिः । तासु सप्त पुरुषाः स्त्री रूपधारिणः ९४ राझ्यः । तेन पुरुषाः प्रकटीकृत्य दर्शिताः । सर्वे जनाश्चमत्कृताः । राज्ञा पृष्टं कथं ज्ञातः स्त्रीपुरुषविशेषः । तेनोक्तम् स्त्रीणां वामपाद् उत्पतति पुरुषाणां दक्षिणपादः । एतत्परीक्षातो मया ज्ञातो द्वयोविभागो। मत्स्यस्य हसनमतः कारणादेव। स्त्रीमाया गहनरूपा देवादीनामपि कौतुकप्रदा। तेन हेतुना व्यन्तरेण मत्स्य-मुखेऽवर्तीय हसितम्। तस्याऽर्धराज्यं दत्तं राज्ञा । १०१ राझ्यः क्षिप्ता गर्तायाम् । वैराग्यात् तपोऽङ्गीकृतं राज्ञा । तस्य पित्रा तत्स्वरूपं स्व-पुत्र-विलसितं ज्ञात्वोक्तम् - ललाट-लिखिता पुंसां, नैव दैवी लिपिर्वथा । एकोत्तर-शतं हन्तो-त्येषा शीर्षास्थिगा यथा ॥ ३२२ एतत् क्व विप्रः पृष्टो वक्ति-स देव तव पुत्री समानीय पृच्छ । ततः सुतामाकार्य पृष्टा । सा तं पुरुषं दृष्ट्वा सा प्राह-तात मम जीवितव्य-दातैष पुरुषः । राज्ञा पृष्टम् कथं । तदा सा राक्षस-सम्बन्धं प्रोचे । राज्ञा तज्ज्ञानाय गुफायां पुरुषाः प्रेषिताः । दृष्टः स राक्षसो द्विखण्डीकृतः पतितः । यथा-दृष्टं तै राज्ञे प्रोक्तम् । राजा हृष्ट आह-यस्य भयेन रात्रौ पुर-प्रतोली क्षणमात्रमुद्घाटिता न मुच्यते, लोका यद्भयेनैकाकिनो न निःसरन्ति तद्भयमेतेन निर्माशितम् । Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम् लोका हृष्टाः प्रोचुः-एतेन लोकानां महानुपकारः कृतः । ततस्तृतीय-प्रहख्यामिकः क्षत्रियः पृष्टः । सोऽप्यवादीद्-देव सुतानाह्वय पच्छ । ततो राजकुमाराणामाकारणाय जनाः प्रेषिता: तेऽप्यागत्य प्राहुः-देव कुमारा द्वाविंशतिरपि न दृश्यन्ते । शोधिता अपि न लभ्यन्ते । ततस्तेनैव यामिकेनोक्तम्-नगर-प्रतोली-बहिःस्थ-प्रासादे सुप्ता सन्ति । तत्र गत्वा विलोकयन्ति तदा निद्राघूर्णिताः सुप्ता दृष्टाः । तत उत्थाप्य स्वपितुरग्र आनीताः पृष्टं च -वत्साः कथं प्रासादे यूयं सुप्ताः । ततस्तैस्तं पुरुषं दृष्ट्वा प्रोक्तम् । तात वयमनेन जीवन्तो मोचिता भूतेभ्यः । राज्ञोक्तम्कथम् । तेऽपि भूतोपद्रव-स्वरूपं प्रोचुः । हृष्टो राजा पुत्री-पुत्र-जीवित-भवनात् । ततो राजा पृच्छति-राक्षसा देवयोनयः इति श्रूयते । तदा मानवैर्मारिताः कथं म्रियन्ते । भूताद्या अपि देवा एव न कावलिकाहाराः । तदा ते क्षिप्रचर-रन्धनं व्यञ्जनार्थं जन-हननं च कथं कुर्वन्ति । ततो जैनेन्द्र-वचन-श्रवणेनोद्धटित-हार्द-नेत्रा ज्ञात-सम्यग्-वस्तु-स्वरूपा मन्त्रिणः प्रोचुः-देव ये देक्योनयो राक्षसास्ते नरैसरिता अपि न म्रियन्ते। ये मानवा मांस-भक्ष-लोलुपा विविधविद्याबलेन प्रौढ-प्रौढतर-रूप-करण-शक्तयः परं राक्षसीविद्या-साधन-योगाद राक्षसरूपधारणाच्च राक्षस-नाम-धारकास्ते मानवैर्मारिता म्रियन्ते नाऽन्ये । तथा भूतादीनां तु क्षिप्रचट-रन्धनं क्रीडामात्र यतो व्यन्तराः कौतुक-प्रिया एव । श्रूयते च कौतुक-प्रियत्वं यथा - श्रेष्ठयुद्ग्राहणिकां कृत्वा रात्रौ रात्रौगृह-द्वार आगत्य निज-भगिनीं गुणश्री-नाम्नी शब्देनाकार्य 'लेइ गुणसिरि गांठडी' इति भणति । एतदवसरे तद्गृहद्वाराग्रे महावृक्षे कोऽपि व्यन्तरो झोटीङ्ग वसति । तावता तेनैव गुणश्री रूपं विधाय पञ्च-शत-द्रम्म-ग्रन्थि गृहीत्वा गतः । ततः श्रेष्ठी रात्रौ गृह आगात् भगिनी पृच्छति-द्रम्म-ग्रन्थि क्व? साऽऽह-कीदृग् ग्रन्थिः । स आह-सायं मया तव हस्तेऽर्पितिः । सा वक्ति-ममहस्ते केनापि किमप्यर्पितं नास्ति । स चिन्तयति-एषा मम गृहे धनिका नापलपति । परं गृह-द्वाराग्रस्थ-वृक्ष-वासि-झोटीङ्गेन च्छलितः । ततः साहसी नगरी-बहि:-श्मशाने गत्वा विलोकयति तावद् व्यन्तरभूताद्या बहवो मिलित्वा तामेव ग्रन्थिमुच्छाल्योच्छल्य परस्परं करात्करे मुञ्चन्तः 'लेइ गुणसिरि गांठडी' इति वदन्तः कुण्डे भ्रमन्तः सन्ति । सोऽपि तन्मध्ये मिलित्वा रमते । ततः स्व-हस्ते ग्रन्थि प्राप्य शनैर्गृहे आजगाम। तथा तुर्य-त्रिकान्वितं वानर-सङ्गीतं । उक्तं च - - असम्भाव्यं न कर्तव्यं, प्रत्यक्षमपि दृश्यते । यथा वानर-सङ्गीतं, यथा तरति सा शिला ॥ ३२३ इत्यादि स्वभूतानां कौतुक-चेष्टितं बहु श्रूयते, बालानां वालुका-गृह-करणमिव । तद्वदत्रापि क्षिप्रचर-रन्धनादि । देवयोनीनां कावलिकाहाराभावात् । चतुर्थ-प्रहर-यामिकः सदयवत्सः पृष्ट-तव किमाश्चर्यं बभूव । सोऽवोचद्-देव यावदहं प्रहरके स्थितोऽस्मि तावन् मृतकमुत्थाय मां प्रतिवक्ति -भो उपविष्टः किं करोषि, । मया सह द्यूतेन रमस्व । ततो मयोक्तम्-मम Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम पाशकाद्यत्र नाऽस्ति । तेनोक्तम् मां मुञ्च यथा तत् सर्वमानयामि । मयोक्तम्-तव मुक्ति |लनानन्तरमेव । ततस्तेन तत्रस्थेनैव स्वबाहू विस्तार्य नगर-मध्यात् कुतश्चित् स्थानात् स्वर्णपट्टाद्यानीय मदने मुक्तं प्रोक्तं च -रमस्वेति। मयोक्तम्-पणमोचन आवयोः शिरसी एव भवताम् । तदङ्गीकृत्य सोऽपि मृतक-वेतालो रन्तुं लग्नः । मया तत्कालमेव स द्यूते जितः । खङ्गघातेन तस्य शिरो लूनं च । व्यङ्गदेहत्वात् तन्मृतकं मुक्त्वा स नष्टः । पतितं शवं भुवि। मया तदैवाऽवसरं प्राप्य ज्वलत्-तृण-पूलतो ज्वालितं गतम् । राजा चमत्कृतः पृच्छति-क्व तत् पट्टादिकं कुमारेण बहिःस्थानकादानीयतद् र्दशितं राज्ञे। नृपोऽपि तद् द्वीक्ष्योपलक्ष्य चाऽऽहअस्मदीयमेवैतद् रमेण-योग्यं । ततो भाण्डागारिकं प्राह-त्वया कि स्वर्ण-पट्टादि स्थाने न मुक्तं। सोऽवादीत देव मया भाण्डागार-मध्ये मुक्त्वा कपाट-तालकादि स्वहस्तेन दत्त्वा पुनस्तद्रक्षकाणां शिक्षा दत्त्वा स्वगृहेऽगामि । नृप आह-ततः स्थानादानय । ततः स तत्र गत्वा पश्यति तदा तत्र तत्र किमपि। ततः सभा-जनो वदति-देव तेन वेतालेन स्वबाहू विस्तार्य दैवत-शक्त्या कपाटे दत्तेऽपि गृहीतमेतत् । इत्यादयश्चमत्कृता वदन्ति । एतेषां चतुर्णां रात्रि-चतुर्याम-भवं चरित्रं सर्व-जन-कौतुक-कारि । महा-सत्त्वशालिन एते । यद्वा पृथिवी-पीठे नास्तिर्नाऽस्ति कस्यापि वस्तु नः। यतः - दाने तपसि शौर्ये च, विज्ञाने विनये नये । विस्मयो नहि कर्तव्यो, बहुरत्ना वसुन्धरा ॥ ३२४ तथैवं सत्यपि सूरा जयम्मि विरला, उदारचित्ता तओ य विरलयरा । अबला-भीरूआणं, सरणपया ते वि विरलयमा ॥ ३२५ विरला जाणंति गुणा ।। (इत्यादि) पुना राजा जजल्य-अस्मद्गृह एव वेताल-राक्षसा अलगन् । नाऽन्यत्र स्थानमभूत् । इतश्च तदैवाऽवसर एकः पुरुषो रूपवान् नारी-द्वय-युतो द्वारपाल-निवेदितो राजादे शादन्तः सभं प्रविवेश । आसनादिना मानितोऽयं राज-प्रणाम-पूर्वभुपविष्टः । राज्ञोक्तम्-विज्ञपयतु स्वकार्यम् । एकया प्रोक्तम्-देव अयं मम भर्ताऽनयाऽपरया मम रूपं विधाय भोलावितः । एष त्वन्तरं न लभते । द्वितीयया भणितम् देव एषाऽलीका अहं सत्यभार्या । निर्णयो विधीयताम। किमपि न जानाति । सदयकुमारेण भर्ता तर्योदूरे कृतः । प्रोक्तम् च-अनयोर्याऽत्रस्थैवामुं स्पृशति तस्या भर्ता । सत्या सा सचिन्ताऽभूतअलीकया व्यन्तर्या स्पृष्टोः । देव-शक्त्या सा निष्कासिता। सभा चमत्कृता-अहो कुमारबुद्धिः । दाणेसराण साहसिआणं दक्खाण रूववंताणं । तस्स कुमरस्स रेहा, पउरेहिं दिज्जए पढमा ॥ ३२६ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्षवर्धन - गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम् ७३ ततो नृपेण विवादकारी श्रेष्ठयुक्त:- हे श्रेष्ठिवर न ह्येते दाम्भिका एवंविद्याः सत्याभिज्ञानादिदर्शनात् । अत एभिः कृतं तत् स्यमेव मन्यामहे । अतो यल्लभ्यं मार्गयन्त्येते तदद्यैव दीयताम । श्रेष्ठी प्रोचे - देव सत्यमेव । परं निर्धन-सुतावत्-कथं कर्षित्वाऽर्पयामि । किञ्चित्-स्वहर्षपूरणाय विस्तर- कृते त्वदनुज्ञयाऽस्य पार्श्वदद्यतनं दिनं मार्गयामि । इत्याद्युदित्वा कायपटी - मत्या स्वपितुरनागमन - स्वरूप ज्ञानाय तद्दिनं तत्पार्श्वाद्राज्ञा मार्गयित्वा दापितं । 1 अथ श्रेष्ठी द्वितीय-दिने गृह-मध्ये गत्वा विलोकयति-अद्य पूर्ववत् त्पिताऽऽगत्य सुप्तो न वा । परं नाऽऽ गतस्तदा हृष्ट- चित्तः श्रेष्ठी सदयवत्सं स्तौति भोः पुरुषोत्तम अन्यैरसाध्यं कार्यं त्वमधुना कृतवान् अतस्त्वं धौरेय - धवल इवास्माकं मनसि प्रतिभासि । तथा - यतः नरेषु नापितो धूर्त:, श्वेतभिक्षुस्तपरि-वषु । चतुष्पदेषु गोमायुर्वणिग् वाणिज्य - कारिषु । ३२७ अथवा - - ततः श्रेष्ठिसुतां स्व-मित्र-वणिजे विप्र - सुतां स्व-मित्र - विप्राय राज - सुतां स्व-मित्रक्षत्रियाया-दापयत् सदयः । एवं मित्र - त्रयं विवाह्य मण्डयामास । कथं महात्मान औचित्याद् भ्रश्यन्ति । तथा सत्पुरुषवाचा कल्पतरुरिव फलदा कस्य न स्यात् । महान् स्थान भ्रष्टोऽपि परेषां पोषको भवति । यतः बन्ध ध-स्थानेऽपि मातङ्गः, परेषां भरण-क्षमः । काक: स्वच्छन्द - चारोऽपि स्वोदरेणाऽपि दुःस्थितः ॥ ३२९ मार्गे कर्दम- दुस्तरे जल - १ खिन्ने शाकटिके भरेऽतिविषमे दूरं गते रोधसि । - भृते गर्ता शतैरा कुले, शब्दन्नेतदहं ब्रवीमि महता कृत्वा स्थितान्तर्जनीम् इद्दक्षे विषमे विहाय धवलं वोढुं भरं कः क्षमः ॥ ३२८ - महतामाश्रयः पुंसां, पूजा मान्यत्व - वृद्धये । xx xx xx हरि-पाणि- स्थितः ||२|| ३३० येनोन्मनेन गुखे न च बान्धवाय, दानं दयां न कुरुते न च भृत्यवर्गे । किं तस्य जीवित-फलं हि मनुष्यलोके, काकोऽपि जीवति चिरं च बलिं च भुङ्क्ते ॥३३१ अतस्तेऽपि स्व- मनोरथ पूर्ति - विशेष - पूजा - प्राप्ति - हृष्टाः सस्नेहं विशिष्ट गुण-शेवधि Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम् तं कुमारं सेवन्ति । यतः - को न याति वंश लोकें, कवलैर्मुखपूरितः । मृदङ्गो मुख-लेपेन, करोति मधुरध्वनिम् ॥ ३३२ नोपकारं विना प्रीतिः, कथञ्चित् कस्यचिद्भवेत् । उपयाचित-दानेन, यतो देवा अपीष्टदाः ॥३३३ तावत् प्रीतिर्भवेल्लोके, यावद्दानं प्रदीयते । वत्सः क्षीर-क्षयं दृष्ट्वा, परित्यजति मातरम् ॥ ३३४ पुत्रादपि प्रियं दान, महो मन्ये पशोरपि । महिषी तत् स्मरत्येव, खल-दानानिज सुतम् ॥ ३३५ ततो राजादिभिर्दत्तैः प्रभूत-धनैः सदयश्चतुरङ्ग-चमू योजयामास । यतः - धर्मे विवाहे विपदि द्विषः क्षये, प्रियासु नारीष्वदनेषु बन्धुरे । यशस्करे कर्मणि शस्त्र-संग्रहे धन-व्ययोऽष्टासु न गण्यते बुधैः ॥३३६ ततो यत्पूर्वं शून्यं नगरं दृष्टं समस्ति तस्य वासं चिकी-स्तत्रोपरि प्रतस्थै । गतस्तत्र हरसिद्धि-हेत्वनुभावात् तत्पुरो-द्वास-करं राक्षसं पूजोपचारैः सानुकूलं चकार । ततस्तदनुमत्या तत् पुरं वासयति । तस्य राज्यं दत्तं रक्षसा । लोका आनीताः । न श्री कुलकभायाता, शासने लिखिताऽपि न । खङ्गेनाक्रम्य भुञ्जीत, वीर-भोग्या वसुन्धरा ॥ ३३७ आराम-वाटिकोद्यान-वापी कूप-सरोवरैर्मनोहरं कृतम् यत्र च समृद्धो ददाति दानं सदा-नन्दन, पाठयति न्यायमार्ग सदा नन्दनं प्राप्नोति । न्यायैर्नवं धनं, परमाप्नोति कदापि न बन्धनं ॥ ३३८ तस्य पुरस्य मध्य-प्रवर-प्रदेशे ऽनवरत-सुरासुर-नर-वक्र-चूडा-मणि-कृत-नखचरण-दीधितेः श्रीवीर-जिन-वरेन्द्रस्याऽप्रतिमप्रतिमा-सनाथमभ्रंलिट-शिखरं प्रासाद्मकारयद्भूपतिः । वीरकोटपुरमिति नामास्थापयत् । ततः पूजा-बलि-विधान-पूर्वं नन्द-राज्ञो लक्ष्मी प्राकप्रत्यक्षीभूतां गृहीत्वाऽक्षय-कोशोऽभूत । स न्याय-प्रधानं तू वीमनुशास्ति । राज्यं तु न्यायेनैवाऽलक्रियते । Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम् यथा श्रुतेन बुद्धिर्विनयेन दक्षता, प्रियेण नारी सलिलेन निम्नगा । निशा शशाङ्केन धृतिः समाधिनाः नयेन चालङ्क्रियते नरेन्द्रता ॥ ३३९ - अथ कियता कालेन चतुर्थी - संस्थापित - श्रीपर्युषणा - पर्व - राजान् श्रीकालिकाचार्यगुरुन् प्रतिष्ठान- पुरादाकार्य महता विस्तरेण प्रासाद- बिम्ब-प्रतिष्ठा - विधिमचीकरत् । पितृगृहेभ्यः सावलिङ्गी-लीलावती-प्रभृतीर्निर्विलम्बमानययामास । ताभ्यां शुद्धान्तः - साराभ्यां पत्नीभ्यां सहितः सुरेन्द्र इव राज्यं पालयति । ततो मित्र-त्रये राज्य- संविभागं चक्रे, वणिजे मन्त्रि-पदं विप्राय पुरोहित - पदं क्षत्रियाय सेनानी - पदं ददे क्षोणिपतिः । यतः यः साधुं सुहृदं कृत्वा, कौटिल्येन प्रवर्तते । स पराभूतिमाप्नोति, वञ्चितेन कथंचन ॥ ३४० ७५ कियता कालेन सावलिङ्गी - राझ्या वीरभानु-नामा पुत्रोऽभूत् । लीलावत्यास्तु वनवीरनामा कुमारो जातः । द्वावपि सुतौ द्वासप्तति - कलासु षट्त्रिंशद् - दण्डायुध-श्रमे, कुशलौ बभूवतुः । रूपश्रियाऽश्वनीकुमारोपमौ परस्परं परम- प्रीति- जुषौ क्रीडतः । इतश्चाऽन्यदा कोऽपि वैदेशिको भट्टोऽपूर्वः सदयवत्स नृपस्याऽग्रे समागत्यास्यैव राज्ञोऽपूर्वार्थोत्पत्ति-बद्धां कीर्ति-काव्यमालां पठति स्म । ततः सालवाहन-नृपस्यउत्तरओ हिमवंतो, दक्खिणओ सालवाहणो राया । सम-भार- भरक्कंता, तेण न पल्हत्थए पुहवी । ३४१ इत्यादिकीर्ति-परम्परां प्रभुवत्सराजस्य च यशः स्फूर्ति-प्रतापादि-बिरुदावलीं पठित्वा स्थितः । सदयवत्स- राज्ञा तुरङ्गादिदानं दत्तं । दत्त्वा पृष्टो भट्टः- कुत आगाद्-भवान् । भट्टोऽवोच-देव-अहमुज्जयिनी - पुरत आगाम् । ततः स्व- नगरी - नाम - श्रवणादानन्दवान् भूतः । यतः स्वदेश-पुर-बन्धूनां, नाम-श्रवणतो नरः । उल्लासी जायते शीघ्रं किं पुनस्तज्जनागमे ॥ ३४२ , राजा तत्कुशलोदन्तमपृच्छत् । सोऽवादीत् - देव किं तस्याः पुर्याः कृतः कुशलं पृच्छसि । अधुना तत्रातीव विरूपं समस्ति । राजा सम्भ्रान्त - चित्तः पृच्छति - किं विरूपं वर्तते । भट्ट आह- देव तत्र पूर्वं यत्किमप्यभूत् तदहं सम्यङ्क वेद्मि यतोऽहं तत्रोज्जयिन्यां लक्षणावतीपुर्या नवीन आगाम् । नस्थितो मासषट्कम् । परं तन्नगरी - लोकमुखादित्य श्रोषं यदत्र प्रभुवत्स-राज Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम सुतेन गजो हतस्ततो द्विष्ट-मन्त्रि-प्रेरितेन राज्ञा स्वपुत्रोऽपमानितः । स ततो निर्गत्य गतः । तस्मिन् सुते विदेशं गते गजे च मृते राज्यं निःसारं बभूव । यतः - न दीर्घ-दर्शिनो यस्य, मन्त्रिणः स्युर्महीपतेः । क्रमायाताहितास्तस्य, न चिरात् स्यात् परिक्षयः ॥ ३४३ मन्त्रिरूपा हि रिपवः, संभाव्यास्ते मनीषिभिः । ये सन्तं नयमुत्सृज्य, सेवन्ते प्रतिलोमतः ॥ ३४४ तत् द्दशं बलहीनत्वं राज्यस्य ज्ञात्वा गृहीतुकामैः सीमाल-भूपैर्मिलित्वा पुरी-रोधः कतोऽस्ति । न कोऽपि निर्गमनं कर्तुं शक्नोति । राजा प्रभुवत्सश्चिन्ता-प्रपन्नः किङ्कर्तव्यतामूढः पुरीमध्ये स्थितो दिनान्यतिवाहयति । यतः - भय-संत्रस्त-मनसां, हस्त-पादादिकाः क्रियाः । प्रवर्तन्ते न वाणी च , वेपथुश्चाऽधिको भवेत् ॥ ३४५ वैरि-नृपाः परितो नगरी पतिताः सन्ति । बहिरन्तः स्थाश्च । ते कोश-क्षयं कुर्वन्ति । यतः - कोश-व्ययेन निद्रा न, न विलासेषु च स्पृहा । विग्रहासक्त-चित्तानां, न रतिः क्वापि जायते । ३४६ आयान्ति यान्ति च परे ऋतवः परत्र, तस्मिन् पुरे तु ऋतु-युग्ममगत्वरे खे । वीरेण तेन सदयेन विना जनानां, वर्षा विलोचनयुगे हृदये निदाघः ।। इत्थं-व्यतिकरोऽहं रात्रौ खाल-मार्गेण निर्गत्यात्रागां गत-दिने । ततो राजा तत् तादृशं पितृ-स्वरूपं श्रुत्वा हृदयेन वज्राहत इव पीडितश्चिन्तयति- अहो कीदृशं तस्य दुर्मन्त्रिणो दौरात्म्यं, यतस्तस्य [प्र] पञ्चकेन मम निर्वासनं पितुरीद्दगावस्थानं नं बभूव । तथा - मृति सुतस्य भार्याया, मान-भङ्ग धन-क्षयम् । मित्रं व्यसन-सन्तप्तं, देश-भङ्गं कुल-क्षयम् ॥ ३४७ परहस्तं गतं राज्यं, स्व-स्थानं पर-पीडितम् । धन्यास्ते ये न पश्यन्ति, बाल्ये मातृ-वियोजनम् ॥ ३४८ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम् ___ तदहं शीघ्रं गत्वा वैरि-जय-करणात्पितुः सौस्थ्यं संपादयामि । ततो बहु-वमू-मेल नं विधाय चलनोपक्रमं कुर्वनस्ति । तावत् तस्य पुत्रौ वीरभानु-वनवीर-कुमारावाग त्य विज्ञपयतः -तात वयं तत्र गत्वा पितामहं मोचयिष्यामः । त्वं तिष्ठ । राजाऽऽह-वत्सा यूयं लघीयांसो रण-कर्मण्यकुशला । अतो भवतां कथं प्रेषणं करोमि । तावाग्रहेण पितरं पर्यवसाप्य चलितौ, खलीन xxx विगलित-बहु-लाला-श्वेत-फेनिल-जल-पूरं वितन्वता जात्यतुरङ्गम-सैन्येन परिवृतौ । तदनन्तरं कतिपयैदिनै राज्ञा चिन्तितं - एतौ बालौ मया प्रेषितौ परं वैरि-दलानि बहूनि सन्ति तेन माऽनयोः सङ्ग्रामे पराजय भवनेनानऽर्थो भूयात । बहु-दिनयुद्ध-करणेऽपि कुलक्षयोऽपि माऽस्तु । इत्यादिचिन्तया व्याकुल-चित्तोऽसौ चिन्तयति xxxx कृत्ये समुत्पन्ने, विलम्बयति यो नरः । तत्कृत्ये देवता तस्य, कोपाद् विघ्नं प्रयच्छति ॥ ३४९ यस्य यस्य हि कार्यस्य x xxx विशेषतः । क्षिप्रमक्रियमाणस्य, कालः पिबति तद्रसम् ॥ ३५० ततो राजा तयोरनु शीघ्रं चचाल पुत्रस्नेहानुबद्धः । यतः - न स स्यात् त्पितृषु स्नेहो, न देवे नाऽपि xxx I xxxx, यादक पुढेष्वनुत्तमः ।। ३५१ तावता कुमारावग्रतो गतौ जन-प्रेषणेन विलङ्घितौ । तत सदयवत्सनृपोऽपि मिलितः । तयोः कटकं पितृ-कटकं चैकत्राद भूत् तावद् विद्वेषिभिश्चिन्तितम्-कोऽपि महानस्य राज्ञः साहाय्य करणायाऽऽगत इति । ततस्ते संभूय संग्रामायाढौकयन् । बहवो रण-भुवि पातिताः । क्षणाद् वैरि-बलं भग्नं काकनाशं ननाश च । ततो नगरी-मध्य-स्थितस्य राज्ञः केनापि भट्टेन कथितं वर्धापनिका-मार्गण-पूर्वम्-देव तव पुत्रः सदयवत्सः समागात् सप्रौढ-दल । तस्मिंश्च युध्यमाने वैरिणो नेशुरिति । तद्वचनाकर्णनादेव प्रभुवत्स-नृपः परमानन्दमयोऽजनि । ततो राजा शीघ्रं पुत्र-मिलनायोत्सुको मन्त्र्यादीन प्रवेश-महोत्सवायादिदेश । स्वयं निर्गत एव तन्मिलनोत्सुकचित्तः । बन्धूत्कण्ठावतां क्षण-मात्र-विलम्बो वर्षायति । अन्योन्य-मिलन-हृष्टहृदयौ तुरङ्गमादुत्तीर्य सत्वरोपसृत्याऽऽश्लिषतां तौ । यतः किं चन्दनैः सकर्पूरैस्तुहिनैः शीतलैश्च किम् । सर्वे ते पुत्र-गात्रस्य, कलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥ ३५२ अमृतस्य प्रवाहैः किं काय-क्षालन-सङ्गतैः । चिरात् पुत्र-परिष्वङ्गो योऽसौ मूल्य-विवर्जितः ॥ ३५३ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम् ततो धृत-माङ्गल्य-वेषाः पुष्पमाला क्षत-पूर्ण-स्वर्णपात्र-पाणयः पौरा: पौरपुरन्ध्यश्च कुमार-विलोकनोत्सुकाः सम्मुख-मा जग्मुं । राजा पञ्च-शब्द-वाद्य-निनादोत्कीर्ण-कृत-दिग्गजं प्रवेश-महमकार्षीत् । कुमारश्चामर-ग्राहिणी-वारवधू-धूयमान-चामराली-पवनापतित-श्रम-स्वेदबिन्दुः पुरं प्राविशत । सदयो मातुः पादौ नमश्चक्रे । सापि पुत्र-वियोग-दुःख-ताप-संतप्ता पीयूष-स्नातेवाति शीतल-हृदयाऽजनि । यतः - पुत्र-जन-विप्रयोगो, वह्नरपि दुःसहो न सह्यः स्यात् । यद्दर्शनमात्रेण हि, हृदो निदाघः प्रशाम्यति च ।। ३५४ वध्वः श्वश्रूपादान दुग्धेन प्रक्षाल्य पूजयित्वा स्वर्ण-पुष्पैः प्रणमन्ति । ततः सभामण्डप उपविश्य कर्पूर xxxx परिकरित-ताम्बूलार्पणेन सम्मान्य पौरलोकं राजा विससर्ज। तदा राजा स्व कीयम विमर्श कारित्वं निन्दन् सुत-गुण-वर्णनं करोति । यतः - . ता अवमाणं रोसो, तावच्चिय पुव्व-दोस-संभरणं । उक्कीरिअ व्व हियए, जाव च हुटुंति नेव गुणा ॥ ३५५ ततः परम-प्रीत्या ममोन्मोचनायाऽऽगतं सुतं ज्ञात्वाऽऽह्मादित-चित्तो नपो निजासने संस्थाप्य प्रोवाच - वत्स, तदा दुष्ट बुद्धर्मन्त्रिणो दुर्वचसां भरैखि मम कर्ण-दुर्बलस्य क्रोधपाप उल्ललास । तदा यद् हितं तद् गुणायाजनि । यत उक्तं - पढमम्मि य रोस-भरे, जा बुद्धी होइ सा न कायव्वा । अह कीरइ तो तीसे, न सुंदरो होइ परिणामो ॥ ३५६ सहसत्ति दिट्ठ-दोसो, मा पुत्तय-विप्पियं कुणसि झत्ति । रोसो परिमिलियंतो, कालेण रसायणं होइ ॥ ३५७ अतो विप्रियं यद् विहितं तत् क्षम्यतामित्यादिनाभिः बहुमान वाक्यैः सुतं समाह्लाद्य स्व-राज्य-भारे नियुयोज । तदनन्तरं कियद्भिर्वर्षे राज्ञा सदयवत्सस्य पट्टाभिषेकश्चक्रे । स्वयं प्रभुवत्सो नृपो धर्मकर्मभिः स्वर्ग-सौख्यं समाधयत् । सुबुद्धिमन्त्री तु तत्क्षणादेव नष्टो नदीकुल-जात-द्रुमवत् । सदयवत्स-नृपो न्यायमार्गाल्लोकं पालयंश्चिरं राज्यं भुङ्क्ते नानाधर्ममार्ग प्रवर्तयन्। कुमारौ वीरकोटपुरे स्थापितावप्यन्तराऽन्तराऽन्तराऽऽगत्य प्रणमतः । अन्यदा दशपूर्व-गत-श्रुत-धराः श्रीकालिकाचार्यपादा महीमण्डले विहरन्तो मालवमण्डल उज्जयिनी-पुर्यां Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम् ०९ समवसस्त्र । उद्यानपालक-निवेदितानां गुरूणां वन्दनायायासीत् सपरिच्छदो नृपः, दर्शनादेवाऽपनीतकलि-कल्मषा दृष्ट्वा श्री गुरु-पादाः स्तुति-पूर्वं भक्ति-भराद् वन्दित्वाग्र उपविष्टः श्री गुरुविहितं धर्मोपदेशं शृणोति । आर्य-देश-कुल-रूप-बलायुर्बद्धि-बन्धुरमवाप्य नरत्वम् । धर्म-कर्म न करोति जडो यः, पोतमुज्झति पयोधि-गतः सः ॥ ३५८ गुरुयोगोऽपि दुर्लभः । धम्मायरिएण विणा, अलहंता सिद्धि-सोहणोवायं । अरयच्चतुर (?) वलग्गा, भमंति ससार-चक्कम्मि । ३५९ इत्यादि-देशनान्ते राजा सदयवत्सो निज-पूर्व-भव-विहितं पुण्य स्वरूपं पृच्छतिभगवन् ! मम केन पुण्य-प्रभावेण राज्य-श्रीर्देवता-तुष्टि वरद्-दान-बहु-वैरि-जयादि-शक्तिरभूत् । ततः श्रुत-ज्ञान जलधिः श्रीगुरुराह - शृणु पूर्वभवविहितं पुण्य स्वरूपम् । विन्ध्याचलोऽस्ति गिरिर्महा-गजेन्द्र-राजि-शोभित-परिसर-प्रदेशः । तत्र बहु-योजन-विस्तीर्णा पल्ली समस्ति यस्यां राजादनी-सहकार-मधुपुट-चारु कुली-कर्पट कामलकी बह्वस्तिक बिभीतक-प्रौढोत्तुङ्गभूर्ज-नारिङ्ग बदरी-वन-टिम्बरक-धव-रखदिर-खर्जूरिकादि-नाना-प्रकारा वनस्पति-राजी सरसफल पुष्पावलीभिर्बहु-कर्वाटिक-जन-शतानामा जीविका-निर्वाहाय प्रतिभूरस्ति । यत्र चाद्युम्नो व्यवसायोऽदैन्य-याचनोऽनन्त-वस्तु लाभः । तत्र पल्ल्या मण्डनं गोत्रजाभिधं नगरं । तत्र व्याघ्र नामा भूपति र्व्याघ्र-पराक्रमः । तस्य धारल्लदेवी-नाम्नी राज्ञी । तस्याः पुत्रो गुणसुन्दरो यथार्थनामा प्रकृत्या भद्रक-स्वभावो दया-गुणादत्याचित्तो न्याय-गुण-रश्चित-लोको लेखशा लायां पठति च्छन्दोलक्षणालङ्कारादिशास्त्राणि । यतः - मत्त-द्विरद-सङ्काशे, यौवनेऽनध्वगामिनि । पुरुषस्याधिरूढस्य, न शास्त्रादन्यदङ्कुशम् ॥ ३६० चाणक्यादि प्रणीतं नीतिशास्त्रं पठति - विनयं राजपुत्रेभ्यः, xxxx सुभाषितम् । कपटं पण्य-नारीभ्यो, धर्म शिक्षेन् मुनि-व्रजात् ॥ ३६१ साधूनां दर्शनं पुण्यं, तीर्थभूता हि साधवः । तीर्थं पुनाति कालेन, सद्यः साधु-समागमः ॥ ३६२ इत्यादिश्लोकावलीनामर्थं विभावयन् क्रीडति । एकदोद्यान-वने श्यामार्याख्यान् गुरुन Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम् दृष्ट्वा वन्दतेस्म । गुरुभिर्जीव-दया-मूलो धर्मः प्ररूपितः । यो भूतेष्वभयं दद्यात्, xxxxx X X X X X X X X X hefury: 11 X X X X X X X न वीतरागादपरोऽस्ति देवो. न ब्रह्मचर्यादपरं तपोऽस्ति । नाभीति-दानात् परमस्ति दानं, चारित्रिणो नाऽपरमस्ति पात्रम् ॥ ३६३ . इत्याधुपदेश-श्रवणात् सत्य-धर्म-प्ररूपका एत एव सम्यग्-धर्मस्थाश्चैते धर्म-पात्रत्वेन पूजार्हाः क्रिया-पात्रं चैते। यतः - ज्ञान-युक्तः क्रियाधारः, सुपात्रमभिधीयते । दत्तं बहु फलं तेन, धेनु-क्षेत्र-निदर्शनात् ॥ ३६४ ततः प्रबुद्धः सन् सम्यक्त्वमूलानि द्वादश-व्रतानि गुरु पार्श्वेऽङ्गीचकार । सम्यग्-धर्म लम्भाद्धर्षः संजातः । हर्ष-भरोऽन्यदा सोऽचिन्तयत् - माया-पिया-सहोयर-पमुहा तु कुणंति तं न उवयारं । जं निक्कारण-करूणा-परो गुरू कुणइ जीवाणं ॥ ३६५ ततः प्रत्यहं साधूनाकार्य भक्त्या पक्वान्न-पानादि प्रतिलाभयति । वित्तादि-योगो । भाग्यान्मिलति सर्व-सिद्धि-कर । यतः - केसि पि होइ वित्तं, चित्तं अन्नेसिमुभयमन्नेसिं । वित्तं चित्तं पत्तं, तिन्नि वि केसिं च धन्नाणं ॥ ३६६ तदा भावतो नर-भव-सम्बन्धि-भोग-फलं कर्म समुपार्जत् । इतश्चाऽन्यदा यत् क्रीडतोऽस्य राजकुमारस्य चत्वारः पुरुषा अमिलन् । तैः सह कुमारो वार्तालापं करोति । तद् तैरुक्तम् - वयं स्वभाग्येनैव जीवन्तोऽत्रागताः स्मः । कुमारेप्रोक्तम् - कथं त आहुः - इतः पञ्च-योजनेषु वेतालपुरं नगरसत्यनाम तादश-लोक-संवासतः शोणितप्रिया देवी। सा महिषादिदातृणां वाञ्छितार्थान् पूरयति । अति-प्रौढ-कार्ये तु नर-बलि याचते । तदर्थं नरो मूल्यने गृह्यते बन्दिग्राहिपाश्वतोः । वैदिशिको बलेन ध्रियते तैः । तत्र वयं गता अज्ञात-देश-ग्राम-स्वरूपाः तत्रत्यैर्लोकैर्देवी-बल्यर्थं ध्रियमाणाः । स्वपर-बलेन महाकष्टेन लाय्यात्रागताः । एतदाकर्ण्यकुमारो दयापरस्तद्विलोकनाय तत्र गतोः । यावद् देवता-गृहे याति तावदे कोकं वैदेशिको धृत्वा स्नानं Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम् कारयित्वा कण्ठे कणवीरमालां दत्वा कम्पमानदेहो भयाद्दीनवदनो वर्धापनपूर्वं पञ्चशब्दाधाडम्बरेणाऽऽनीयमानोऽस्ति । तं विलाप-करं दृष्टवा कुमारश्चिन्तयति-धिक् तान् पा पिनो ये स्वकीय इहलोक-कार्ये नरवधं कुर्वन्ति । धिक् देवत्व यत्र क्रीडामात्रकृते जीव धातः काराप्यते। यतः - सव्वे वि सुहकामी, सव्वे वि, क्खनीरणो जीवा । सव्वे वि जीविय-पिया, सव्वे मरणाउ वीहंति ।। ३६७ इकस्स कए नियजीवियस्स बहआ उजीव-कोडीओ। दुक्खे ठवंति जे के-वि ताण किं सासयं जीअं ॥ ३६८ तदद्य मम पश्यन्तोऽस्य वराकस्य पाणा यास्यन्ति तदा मम किं कृपालुता । तेन सर्व-प्रकारेणायं मया रक्षणीय एव । इति हृदये संप्रधार्य तेनोक्तम्-भो भो एनं नरं मुञ्चत । मां गृहणीत । तदाकर्ण्य ते विस्मिताः प्रोचुः-अहो, पश्यतैष पर कार्ये स्व-प्राणान् तृणमिव . गणयति । उत्तमानां प्रकृतिरेषा । यतः - स्वाङ्ग दाहेऽपि कुर्वन्ति, प्रकाशं दीपिका-दशाः । लवणं दह्यते वह्नौ, पर-लोकोपशान्तये ॥ ३६९ तथाऽप्येनं न मुञ्चामहे । ततो राजकुमारस्तान् समाकृष्य सर्वान् त्रासयति । तद्वन्धच्छेदं कृत्वा तं मुञ्चति । देव्यग्रे गत्वा-खङ्गं स्व-कन्धे वाहयति । तावद् देवी तं करे धृत्वा प्राह-किं मस्तकेन मम पूजनं संधृतं । देवि तव तुष्ठि हे तवे । सा तुष्टा । तव सत्त्वेन वरं वृणु। स आह-देवि, यदि तुष्टाऽसि तदा जीव-हिंसां नरक-पद्धति त्यज । धर्म-कथनेन । प्रतिबोधिता देवी तां तत्याज । लोका विस्मित-मानसास्तस्य कुमारस्य प्रशंसां चक्रुः । तत्र बहुजीवानां प्राण-रक्षणं कृत्वा निज-पुरमाजगाम सः । एवं प्रायः सर्वत्र जीव-रक्षण-परो बहुवर्षाणि श्रावक-धर्म पालितवान् । प्रान्ते गुरु-साक्षिकं क्षमित-क्षामणकाराधनाष्टादशपापस्थान-वोसिरण-पूर्वमनशनेन स्वमायुः प्रपूर्य विपन्नः, स्वर्ग-फल कर्मानुभावतोऽत्रोज्जयिनीपुर्यां प्रभुवत्स-राज-सुतो जातो भवान् । यत् त्वया पूर्वभवे सम्यक् श्रद्धा-भक्ति-पूर्वं तपः संसप्तम्, पात्रेभ्यो यतिभ्यो दानं ददे तेनेह ते राज्य भोगावाप्तिः । Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम कथासार सदयवत्स उज्जैन के राजा प्रभुवत्स और रानी महालक्ष्मी का पुत्र था । उसे द्यूत खेलने का व्यसन था । एक समय उसने एक पागल हाथी को मारकर उसके चंगुल से एक गर्भवती ब्राह्मण स्त्री को बचाया । राजा ने उसके इश शौर्यपूर्ण कार्य से प्रसन्न होकर उसे अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया । राजा के मंत्रियोने यह सोचकर की उन्हें राजकुमार का अनुग्रह प्राप्त नहीं होगा क्योंकि उन्होंने राजकुमार को प्रतिष्ठान की राजकुमारी सावलिंगा के साथ विवाह के समय उसे फिजुल खर्च करने से रोका था। राजा को उसके विरुद्ध भडकाया जिससे राजाने उसे देश से निष्कासित कर दिया। भीषण प्रदेश से गुजरते समय सदयवत्सने सावलिंगा की प्यास बुझाने के लिये अपना खुन देकर पानी प्राप्त किया । वस्तुतः यह उज्जैन की अधिष्ठाइ दैवी हरिसिद्ध द्वारा उसकी परीक्षा ली गई थी । दैवी ने उसके इस धैर्य से प्रसन्न होकर उसे एक चमत्कारी तस्तरी, पासे तथा एक लोहे का चाकू उपहार के रूप में दिया, जिससे वह द्यूत में तथा युद्ध में अजेय हो गया था । यात्रा के दोरान वे एक शिव मन्दिर में आये जहाँ पर लीलावती, धार के राजा धरावीर की पुत्रि सदयवत्स को पति रूप में प्राप्त करने के लिये तपश्चर्या कर रही थी। सदयवत्स ने उसे स्वीकार कर उसके साथ विवाह कर लिया। कुछ समय वह धारा में रहा तथा बाद में सावलिंगा को उसके पिता के पास छोड़ने के लिये प्रतिष्ठान चला गया। उसने लीलावती को वचन दिया कि लौटते समय वह उसे अपने साथ ले जायगा। एक घने जंगल से गुजरते हुए असकी मुलाकात पाँच चोरों के एक गिरोह से हुई। चोरों के ललकारने पर अनके साथ द्यूत खेलने पर चोर उससे हार गये। चोरों ने उसे कुछ जादुइ उपहार देना चाहा जिसे उसने अस्वीकृत कर दिया। चोरोंने गुप्त रूप से उसकी शिल्ड में लाखों रूपये की कीमत का रत्नजडित कमरबन्ध छुपा Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम् दिया तथा वचन दिया कि जब कभी उसे उनकी मदद की आवश्यकता पडे तब वह अवश्य आएगें। सदयवत्स और सावलिंगा ने बाद में वह स्थान छोड़ दिया । आगे बढने पर वे एक उजाड नगर में आये जहाँ पर राजा नन्दा के खजाने की अधिष्ठाइ दैवी अनके सामने प्रकट हुइ और उसे खजाना देना चाहा किन्तु उसने यह कह कर कि प्रजा के कहे बगैर वह उसे नहीं ले सकता, आगे बढ गया। प्रतिष्ठान पहुँचकर उसने सावलिंगा को एक भाट के सरंक्षण में छोड़ दिया और प्रतिष्ठान की ओर रवाना हो गया ताकि वहाँ पर द्यूत खेलकर कुछ पैसा इकठ्ठा कर सके । जैसे ही वह नगर में प्रवेश हुआ उसने एक ढूंठ को देखा । उसने इसे अपशकुन माना । उस व्यक्ति ने उसे बताया कि वह सिंहल का राजकुमार है तथा प्रतिष्ठान में आकर द्यूत में अपना सभी माल हार गया तथा जब वह बाकी रकम अदा नहीं कर सका, तब जुआरियों ने उसकी यह हालत कर दी । सदयवत्स ने उसे अपना विश्वसनीय दोस्त बना लिया। बाद में वे दोनों सूर्य देवता के मन्दिर में आये जहाँ पर राजनर्तकी कामसेना तथा नगर के एक व्यापारी के बीच झगडा हो रहा था। राजनर्तकी नगर सेठ के लडके सोमदत्त से उसके स्वप्न में उसके साथ किये सहसयन के लिये पाँच सौ स्वर्ण मौहरे माँग रही थी। बाद में दोनों पक्षकारों ने सदयवत्स को निर्णायक घोषित किया। उसने दोनों पक्षों के झगडे को निपटाते हुए निर्णय दिया कि राजनर्तकी की माँ को उसके द्वारा मांगे गये सिक्कों की दर्पण छबी प्रस्तावित की जाय । उक्त रूपये उसने दर्पण के सम्मुख रख दिया । कामसेना को जब इस बात का पता लगा कि एक सुन्दर नवयुवक नगर में आया है तब वह उससे मिलने मन्दिर में आ गई । सदयवत्स को देखते ही वह प्रथम दृष्टि में उस पर मोहित हो गई तथा उसने उसके सम्मुख मन्दिर में नृत्य किया । नृत्य इतना तनमय होकर किया कि उससे थककर वहीं गिर पड़ी। राजवैधने उसे बताया कि उसे प्रेम रोग हो गया है। कामसेना ने सदयवत्स को अपने पास रहने के लिये बुलाया। जब सदयवत्स ने 'ढूंठा' से उसकी राय पूछी तब उसने उसे नर्तीकाओं के हथंकडे से सावधान रहने को कहा । किन्तु कामसेना ने 'ठूठा' को अपनी छोटी बहिन सौंपकर उसे खुश कर दिया। बाद में दोनों वहीं रहने लगे। इस प्रकार उनके रहने की समस्या का समाधान हो गया । दूसरे दिन सदयवत्स द्यूतशाला गया तथा वहाँ पर उसने काफी धन जीता । थोड़ा धन उसने कामसेना को Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम दिया, थोडा दान किया तथा बचे हुए धन से उसने सावलिंगा के लिये मंहगे कपडे और दूसरी वस्तुए खरीदी । पाँचवें दिन सदयवत्स ने कामसेना का घर छोड़ने की तैयारी की ताकि वह सावलिंगा के साथ किये गए अपने वचन को पुरा कर सके। कामसेना जो कि उसके प्यार में पागल हो गई थी उसे रोकने की कोशिष की । इसी दौरान उसने उसकी ढाल को खींचा । इस प्रकार ढाल खींचने से रनों की चोली जो चोरों ने उसमें छिपाई थी वह नीचे गिर पड़ी। कामसेना ने उसे पास रख लिया। उसे पहनकर वह राजा के पास आने-जाने लगी । एक दिन नगरसेठ ने उसे देख लिया और उसे पता लग गया कामसेना के पास जो चोली है वह वही है जो कुछ समय पूर्व उसके घर से चोरी हुई थी। उसने राजा से इसकी शिकायत की। राजा के काफी पूछने के उपरान्त भी उसने उस व्यक्ति का नाम उसे नहीं बताया जिसने उसे वह उपहार दिया था । राजाने उसे फांसी की सजा दे दी और कहा कि उसे फांसी घर की ओर ले जाय । कामसेना की माँ ने सदयवत्स को छूतशाला से ढूँढ निकाला। उसने जाकर कामसेना को राजा के सिपाहियों को धाराशाही करके बचा लिया । यह सुनकर सोमदत्त वहाँ पहुँचा । सदयवत्स ने उसे अपना संदेश सोमदत्त को पहुँचाने को कहा । सोमदत्त ने उसे राजा से अपने आपको जमानत पर रखकर छुडा लिया। सदयवत्स सावलिंगा से मिलने गया जो उसके वचन के अनुसार पाँचवें दिन नहीं आने पर आत्मदाह की तैयारी कर रही थी। सदयवत्स ने उसे कपडे तथा अन्य सामग्री भेंट की। दूसरे दिन वह फाँसी स्थल पर लौट आया । सदयवत्स ने कहा की उसने कितनी ही चोरियां की है। राजा सदयवत्स के पास वाली तलवार पर अपने हस्ताक्षर देखकर उसकी असलियत पहचान गया। फिर भी सदयवत्स के पराक्रम की परीक्षा लेने के लिये उसने पचास सैनिकों का एक गिरोह उस पर हमला करने के लिये भेजा । नारद द्वारा सूचना पाने पर पाँचो चोरों का गिरोह उसे बचाने के स्थल पर पहुँच गया । और उन्होंने सैनिकों को हरा दिया । राजाने अपनी हार स्वीकार करली तथा पुत्री और जमाई का उष्माभरा स्वागत किया। शीघ्र ही सदयवत्स की मित्रता एक ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वेश्य के साथ हुई। चारों कोई साहसिक कार्य करने के इच्छुक थे। किसी व्यक्ति से यह सुनकर कि तुम्बा गाँव में किसी व्यापारी का पिता के पिता का शव अपने मृत्यु के पश्चात् भी हर दिन श्मशान घाट से उसका शव फिर लौटकर आता है, वह उस व्यापारी के लडके से मिलने उसके गाँव गये जिसने इस बात की घोषणा कर रखी थी कि जो कोई Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्षवर्धन - गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम् ८५ व्यक्ति उस शव का दाह संस्कार कर देगा उसे वह दो लाख रू. इनाम देगा । उन्होंने इस कार्य को करने का वचन दिया। संयोगवश सदयवत्स ने इस कार्य में एक ब्राह्मण की लडकी जिसे डाकिन शरीर में आती हैं का कार्य किया । चारों मित्र शव को उठाकर श्मशान ले गये तथा बारी-बारी से वहाँ पर पहरा देना तय किया । रात्री के प्रथम प्रहर में जब ब्राह्मण पहरा दे रहा था तब एक स्त्रीने उसे निवेदन किया कि वह उसे अपने पति तक भोजन पहुँचाने में उसकी मदद करे, जिसे फाँसी हो गई थी किन्तु जिसके शरीर में जीवन अभी शेष है । ब्राह्मण झुक गया और स्त्री उसकी पीठ पर सवार हो गई । अन्त में ब्राह्मणने उसे मृतशव का माँस नोचकर खाते हुए पकड़ लिया। इसके पहले कि वह स्त्री भाग जाये ब्राह्मणने उसका हाथ काट डाला । रात्री के दूसरे प्रहर में वेश्य युवक ने भूतों को अपना खाना पकाते हुए देखा। पास में ही बाईस राजकुमारों को बाँधकर रखा हुआ था जिन्हें भोजन के रूप में वे खाने वाले थे। उसने भूतों पर आक्रमण करके उन्हें छुडा दिया । रात्री के तीसरे प्रहर में क्षत्रिय ने एक राक्षस को देखा जो एक राजकुमारी को भगाकर ले जा रहा था । उसने राक्षस को मारकर राजकुमारी को छुडा दिया । रात्री के चोथे प्रहर में शव जिस पर वेताल ने कब्जा कर रखा था खड़ा हो गया तथा उसने सदयवत्स को खेलने के लिये ललकारा। अपनी भुजा को लम्बा करके उसने क्रीडा करने की वस्तु राजमहल से उठाली । सदयवत्स ने उसको द्यूत में हरा दिया और शव का अग्निसंस्कार कर दिया। सदयवत्स ने इनाम की राशि प्राप्त करने के लिये अपने चारों कार्यों का सबूत पेश किया। प्रसंगवश चूडेल उस राज्य की रानी निकली। सदयवत्स के तीनों मित्रों ने उन तीनों कन्याओं से जिन्हें उन्होंने बचाया था, विवाह कर लिया । चारों मित्र बाद में प्रतिष्ठान लोट गये । इसके उपरान्त सदयवत्स प्रतिष्ठान छोडकर उजाड राज्य में गया तथा उसे फिर से बसाकर उस पर शासन करने लगा । सावलिंगा और लीलावती को उसने प्रतिष्ठान व धारा से वहाँ पर बुला लिया। समय के साथ उन दोनों ने एक-एक पुत्र को जन्म दिया जो बड़े होकर सुन्दर व सुशिक्षीत युवा बने। इस बात का पता लगने पर कि उज्जैन को शत्रुओं ने घेर लिया है उसने अपने लडकों को मुकाबला करने के लिये भेजा । उन्होंने शत्रुओं को परास्त कर दिया । कविता का अन्त प्रभुवत्स तथा सदयवत्स के मिलने के साथ होता है । Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ita T. Harmi ant grat sta feer met uit Bulletin d'Etudes Indiennes No. 6, 1988 (pp. 69-91) 8 yahya E34T ETI The Sadravatsa-Kathā and Its various Versions in Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa, Old Gujarati and Rajasthani. 1. The twenty-eighth chapter of Dhoja's Sriigāraprakāśa treats the topic of sending of love-messengers as a part of the treatment of Purvānurāga, the first variety of Vipralambha Sțngāra. Messengers are classified on the various types of their characteristics. Functionally distinguished messengers include Gardner, Vidūşaka, Vita, Pithamarda etc. As an instance of Pithamarda, serving as a love-messenger, Bhoja mentions Dantaka, who is said to serve Sudravatsa in a work called Kāmasenā-vipralambha'. Raghavan's note on this is as follows : “The examination of the Kathāsaritsagara, the Brhatkathāmañjari and the Kathākośa have (sic) not produced any fruits in the matter of identifying at least some version of a story with the heroine called Kāmasenā and a hero called Sūdravatsa (?) with a Pithamarda-aid named Dantaka”? Now, we come across several casual literary allusions from the beginning of the eleventh century onwards, to an Apabhramsa romantic tale, which relates to the adventures of a prince called Suddaya, i.e. Sūdraka. Moreover, we have several literary compositions in Old gujarati and Rajasthani, which present different versions of that tale. There is also a Sanskrit recast of the earliest known Gujarati version. The tale continues to live to the present day in folk-literary traditions of Gujarat and Rajasthan. In what follows, I shall first note the early references to the story of Suddavaccha and give information about the literary versions of the tale available in Old Gujarati and Rajasthani. This will be Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम् 660 followed by a brief summary of the story as we find it in Bhima's Sadayavatsa-vira-prabandha. 2. Vira, an Apabhramsa poet of Malwa, enumerates in the Jambūsāmicariya (completed in 1020 A.D.) the following four works of his father, the poet Devadatta?. Varāmga-cariya (in Paddhaời metre) ; Suddaya-Vira-Kaha ; Samti-nāha-caccari ; Ambādevi-rāsaya. None of these works has been recovered so far. Most probably all the four were in Apabhramśa. The themes of these works, except that of the second one, are well-known in the Jain literary tradition. We know of numerous works in Prakrit, Apabhramsa, Sanskrit and Old Gujarati (either in any one of these or in several languages) pertaining to the lives of Varārga, śāntinātha and Ambādevi. But the Suddaya-Vira-kaha, qualified by Vira as "praised by learned critics for its poetic qualities”, is obscure*. 3. Samdeśarāsaka of Abdala Rahamāna (composed probably in the thirteenth century), while describing the city of Mülasthāna (i.e. present-day Multan in Eastern Pubjab), refers to the public recitation of the epics, epic tales and popular tales along with performances of dance and opera. Along with the Bhārata, the Rāmāyana and the Nalacarita, we find there mention of Sudavaccha, which is explained in the Sanskrit Tippaņaka on the Sardeśarāsaka as Sudayavaccha-Kathā 'the tale of Sudayavaccha'. In the Index to the Samdeśarāsaka I had suggested that this tale of Sudayavaccha was the same as the popular tale of Sadevasta and Sāvalimgā well-known in the oral tradition and early literature of Gujarat and Rajasthan. The Saṁdeśarāsaka reference establishes its currency in the Pubjab region. Further, Padumāvata of Jayasi (17th Century) refers to a tale of Sadaivaccha and Mughdhāvati. If this tale was the same as (or a version of) the Sudavaccha, its currency in other regions also is indicated. 4. Another reference to the tale of Suddaya or Sudavaccha Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम sheds some light on the general character of that tale. In the Apabhraṁśa poem Sudamsanacariya completed in 1044 A.D., Nayanandin extols the biography of Sudarśana in the following terms : Rāmo Siya-vioya-soya-vihuram sampattu Rāmāyaṇe jādā Pandava Dhāyarattha sadadam gottamkali Bhārahe deļā-kodiya-cora-rajja-ņiradā āhāsidā suddhae ņo ekam pi Sudamsaņassa caride dosam samubbhāsidam (6). The text of the third line here seems to be corrupt in a few places, and its interpretation presents difficulties. But the meaning of the rest is quite clear. The poet says : The Rāmāyaṇa story is not enjoyable because of the sufferings of Sitā due to separation. The Bhārata story is marred by the constant family feud of the Pāņdavas and the Kauravas. As against these narratives, the life-story of Sudamsaņa cannot be alleged to have a single fault. In the case of the third line, we have several variant readings : tanță for deďā ; koliya for kodiya; suddae for suddhae. Helped by them and in the light of the plot of the tale as known to us from the Sadayavatsa-vira-prabandha of Bhima (see below) we can restore the line as follows : teņtā-koliya-cora-rajju (?) niradā āhāsidā Suddniae "In the Sudraka (narrative) the story deals with (disreputable places and episodes involving) gambling dens, Kolis, thieves and police-guards”. teņtā = dyātasthāna : see R. N. Shriyan, A Critical study of Mahāpurāņa of Puspadanta. (Ahmedabad, 1969) where various occurrences of teņtā are noted and discussed (entries 999 and 1000); koliya = kaulika, “a person of that caste of lower social rank" ; cora-rajju = coroddha-ramika : corarajjuka is used by Kautilya in the sense of “a police-officer”. Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम् The author of the tippaņa on this verse in the Sudarsanacariya, faced with wrong readings, has offered fanciful interpretations. He reads gomakalā for gotramkali in the second line and explains it as rājyabhrastāh. The third line is construed with the second line and so, dedākodiya is explained in Gujarati as dhedhavādā ni kodi havi! Bharate : "In the Mahābhārata there was the climax of (quarreling), characteristic of a settlement of untouchables (dheŅha)". The gloss on suddhae is also confused : vacchasudaye śastre. It should be suddaya-vacche and it was not a śästra. Jain, the editor of the Sudarsana-cariu, wrongly thought that the name of the work was Suddhaya. Paramanand Jain Shastri too failed to make out the name and has vaguely rendered suddaya as lokaśāstra'. In the verse cited above, Nayanandin points out that the life of Sudarśana is free from the blemishes that mark the three very famous and popular narratives and hence that it is superior to all of them. 5. In the Sayala-vihi-vihāņa-kavva, another Apabhramśa poem by Nayanandin, we get another important reference to the story of Sadravatsa. In the opening portion of the poem, while describing the circumstances under which the poet was urged to undertake its writing, he incidentally touches upon the historical glory of Dhārā where the poet carried out his literary activity. He mentions great kings of yore who ruled over Dhārā : jahim Vaccharău puņu Puhaivatthu, huntau puhaisaru Sadavatthu, hoeppiņu Vatthae (?) Harimadeu (?) maņdaliu Vikramăiccu jāu. Here, puhaivatthu, südavatthu, vatthae, and harimadeu are respectively to be corrected as puhaivacchu, suddavacchu, pacchae and harisadeu. The kings mentioned are Vatsarāja, Pșthvivatsa, Sadravatsa, Harsadeva and Vikramāditya. Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स- कथानकम् Here Pṛthvivatsa and Sūdravatsa are mentioned as famous past rulers of Dhārā. In the Old Gujarati version of the tale, the names of the hero and his father are given in various forms, but Suddavaccha and Pahuvaccha (i.e. Śūdravatsa and Prabhuvatsa) are the earliest. This point is discussed further below. Secondly, Suddavaecha in that poem marries a princess of Dhārā and later on becomes the ruler of that city. ९० 6. Thus two Apabhramsa poets of the eleventh century, who lived in Dhārā, are quite familiar with the story of Sudravatsa and one of them actually wrote a narrative poem having a plot based on that story. They flourished in the time of king Bhoja, who alludes in his Śṛngaraprakāśa to some characters of that story. All these references point to the great popularity of this tale in the Malwa region in the tenth and eleventh century, and this is selfexplanatory, in view of the fact (as we shall see) that the hero was a prince of Ujjayini and Dhārā. The characters alluded to in Bhoja's reference noted at the beginning of this paper, viz. Dantaka (?), Śūdravatsa and Kāmasenā, actually figure in the Sadayavatsaviraprabandha of Bhima, and the episode itself mentioned in the Śṛigāra-prakāśa can be exactly identified in that work. 7. The Sadayavatsa-Vira-Prabandha (further here referred to as SVP) was composed c. 1400 A.D.9. Regarding the extent of the text there is considerable variation among the manuscripts. The work has round about seven hundred verses (730 if we go by the printed text). The work is mostly composed in the Caupai and Duha metres, but numerous other metres also are used for variation, etc. Besides there are some thirty-four Gāthās in Prakrit. It is obvious that at least some of these Gāthās were borrowed from some early-Prakrit version of the tale, as mostly they repeat in short what is said in the preceding Old Gujarati verses1o. The tale narrates the loves and adventures of Sudavaccha, who was a Prince of Ujjayini and son-in-law of Śālivāhana, the Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम् ruler of Pratişthāna. Rescuing a woman from a mast elephat, machinations of a minister, exile, wanderings in strange countries, princesses pining for the hero, omens and portents, helpful robbers, goddesses, hunchbacks, courtesans, battles, wrestlers, goblins, witches, cemeteries, deserted cities and all the rest of the hot romantic stuff, and numerous well-known motifs fill up the tale. 8. The following is a brief outline of the story according to Bhima. Sudayavatsa (S.) was the son of king Prabhuvatsa and queen Mahālakṣmi, ruling at Ujjayini. He was a gambling addict. Once he rescued a pregnant Brahmin girl from the clutches of the Royal elephant which had gone mad, by killing it. The king appointed him as heir-apparent in appreciation of this act of bravery. But the minister of the king, fearing to lose the favour of the prince because he had earlier restrained him from spending liberally at the time of his marriage with Sāvalimgā, the princess of Pratisthāna, succeeded in turning the king against S., whom he ordered to leave the kingdom. Sāvalimgā accopanied S. in exile. Passing through a dreary tract, S. procured water to the thirsty Sāvaliṁgā by offering his blood in exchange. But this turned out to be just a test devised by Harisiddhi, the presiding divinity of Ujjayini. Mightily pleased with his fortitude, she gifted him miraculous dice and cowries and a steel-knife, which made him invincible in gambling games and battles. Resuming their journey, they came to a temple of Siva where Lilāvati, the daughter of king Dharavira ruling at Dhārā, was practising penance to obtain S. as her husband. S. accepted her. The marriage was celebrated. S. stayed at Dhārā for a few days. Then he left for Pratisthana to deposit Sāvaliṁgā at her father's house. He promised to take Lilavati with him on the return journey. While passing through a dense forest, S. met a band of five thieves in a den. In a challenge game of gambling they lost against Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम him. S. declined their offer of magic gifts. So the thieves clandestinely inserted in his shield a jewelled bodice worth a million and promised to go to his help when remembered in a critical situation. S. and Sāvaliṁgā left that place. Proceeding further they came across a deserted city, where the presiding deity of the buried treasures of king Nanda of yore appeared before S. and offered him the treasures. But unwilling to take possession of the treasures without offering ceremonial worship, S. moved on and reached the precincts of Pratisthāna. He left Sävalimgā in charge of a bard there, and proceeded towards Pratişthāna to procure funds through gambling. As he entered the city gate he chanced to see a fellow with hands, nose and ears maimed. He took this to be an evil omen, but that Thumthā introduced himself as the prince of Simhala. He lost all his money at gambling during his visit to Pratisthāna and having failed to pay dues, he was maimed by the gamblers. S. accepted him as his trusted companion. The pair arrived at the temple of the Sun-god, where a dispute raged between the Royal Courtesan Kāmasenā and a city merchant. Kāmasenā was demanding five hundred gold coins from the merchant's son Somadatta as the charge for cohabiting with her in her dream! The disputing parties appointed S. as the arbiter. He resolved the dispute by offering to the courtesan's mother the mirror-image of the demanded amount. The amount was piled in front of a mirror. Kāmasenā, receiving report of the arrival of an attractive noble young man, came to the temple. She was lovestriken at the first sight. She gave a dance-performance at the temple with such intensity that she collapsed with exhaustion. The royal physician diagnosed her ailment as love-affliction. Kāmasenā invited S. to stay with her. When S. sought Thumthā's advice in this matter, the latter warned him about the viles of prostitutes. But Kāmasenā won over Thumthā by offering him the services of her younger sister. So they accepted Kāmasenā's proposal which solved Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्षवर्धन - गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम् ९३ S.'s boarding problem. Next day, S. went to the gambling house and won huge sums from expert gamblers. He presented a part of the win to Kāmasenā, distributed another part in charity to all and sundry, and with the rest he purchased costliest garments and toiletries for Savaliṁgā. On the fifth day, S. prepared to leave Kāmasena's residence, to keep his promise to Sāvalimgā. Kāmasenā, madly in love with him, tried to detain him by pulling his shield. The jewelled bodice that was smuggled in the shield-cover by the thieves dropped down. Kāmasenā kept it as a parting gift. Shortly, wearing it she started to attend upon the king. On her way, she was seen by the city mayor, who, identifying her bodice as one which was stolen from his house some time back, lodged a complaint with the king. On being questioned by the king, Kamasenā did not reveal the indentity of the person who had gifted her the bodice. She was ordered to be executed, and taken to the execution ground. Her mother traced S. at the gambling house. S. rushed to Kāmasena's help, freed her and put to rout the city guards. Hearing about this Somadatta reached there. S. requested him to take his message to Sävalimga. Somadatta secured from the king S.'s release by pledging himself as the hostage. S. visited Savalimga, who on failure of S.'s return by the promised fifth day, was on the point of immolating hereself on a burning pyre. S. presented her with clothes and toiletries. Next morning he returend to the execution ground. S. boasted of having committed many thefts. The king discovered S.'s identity by examining a sword bearing the latter's signature (the sword was procured from the courtesan-. But to test S's prowess the king sent an army to attack S. A band of fifty two crack heroes mounted an attack. The five thieves informed by Narada rated to S.'s help and overpowered the attackers. The king acknowledged his defeat. He warmly welcomed his son-in-law and daughter. Shortly, S. struck up friendship with a Brahmin, a Vaiśya Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम and a Kşatriya. The four were looking out for adventures. Hearing about a mystery of the corpse of a merchant's father in the city of Tumba that kept returning every day from the cemetery, the four friends went to the merchant, who was prepared to offer two lakhs to anyone who would accomplish cremation of the corpse. They undertook the task. Incidentally S. exorcized a Brahmin's daughter possessed by a sakrini. The four friends carried the corpse to the cremation ground and decided to guard it by turn. When the Brahmin was on duty in the first watch of the night, a woman requested him for help to reach the food brought by her to her husband, who was hanged but life was still lingering in him. The Brahmin bent down and the woman mounted on his back. Eventually she was caught gobbling raw flesh from the hanging body. The Brahmin cut off the witch's hand before she escaped. During the second watch, the Vaisya saw a bunch of ghosts cooking their dinner. Nearby twenty-two princes were kept bound for being served as dessert. He assailed the ghosts and released the princes. During the third watch, the Kșatriya saw a Räksasa abducting a princess. He killed him and freed the princess. During the fourth watch, the corpse, occupied by a Vetāla stood up and challenged S. to a gambling match. Extending his arm, he got the game from the royal palace. He was defeated at the game by S. who then cremated the corpse. S. produced four proofs of their carrying out the assigned task successfully to claim the stipulated reward. Incidentally the witch was identified as the queen of that city. S.'s three friends were married to the three girls saved or offered as reward. The four friends returned to Pratișthāna. Thereafter S. left Pratișthāna, reached the deserted city, which he rehabilitated and governed. Sāvalingā and Lilāvati were called there from Pratisthāna and Dhārā. In course of time each of them gave birth to a son, both of whom grew up as accomplished young men. On receiving news that Ujjayini was surrounded by Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्षवर्धन - गणि-कृतं सद्रयवत्स - कथानकम् ९५ enemy forces, S. commissioned his sons for its defence. They put the hostile forces to rout. The poem ends with the happy reunion of Prabhuvatsa and Sadayavatsa. 9. From this summary, it will be seen that the episode and characters alluded to in the Srigaraprakāśa reference cited above, actually occur in this story. In the Śṛngaraprakāśa reference the name of the Pithamarda is given as Dantaka. It is a wrong reading resulting from some scribe misreading tumtaka as damtaka. tumța is noted by Hemacandra at Deśināmamālā IV. 3 in the sense of 'having the hands cut off (chinna-hasta) (For New Indo-Aryan derivatives see R.L. Turner A Comparative Dictionary of Indo-Aryan Languages, entry no. 5698). In Bhima's text he is called thumṭhā, because Gujarati has the base-form thūṭhā corresponding to the Pk. form tumta (For thuttha-, thuntha etc. see Turner's dictonary, entry no. 5506). The Simhala prince is nicknamed nunṭaka because the gamblers had cut off his hands for not paying them the gambling dues (Sadayavatsavira-prabandha, vv. 436, 442). 10. The name of the hero appears in various forms in SVP: Sadayavatsa, Sudayavatsa, Sadayavaccha, Sudavaccha, Sadaya, Sudaya, Sudau (Sūdā) and Suddha. Sūdau (Sūda) occurs quite frequently. The form Sudda (Suddaya) is historically earlier than the others. It is found in some of the Prakrit Gāthās and Vastu stanzas in the SVP. Suddayavira (or *vaccha) changed to Sudayavira and finally became Sadayavira (or Sadayavatsa). As noted earlier, in the Samdeśarāsaka (v. 44) the tale is referred to as Sudavaccha (v.l. Sudayavaccha). 11. As noted previously (§ 3-4), Devadatta's poem was called Suddaya-vira-kaha. Similarly the title of Bhima's poem is Sadayavatsavira-prabandha. As will be seen from the summary given above, it is patently a tale of adventures and heroism. And in SVP. itself, the princess Lilavati introduces herself as the daughter Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम of Dharavira, sister's daughter of Naravira and desirous of marrying Sadayavatsa-vira. It is first expressed in the following, possibly borrowed Prakrit gāthā: Dharavira-rāu(? ya) dhuā, muhusāle mujjha rāu nara-viro varavira-Sadayavaccho (ccham) vanchum śiva pujjiya (ayi) sahie(?) (SVP vs. 244) The same idea is repeated in a dohā further in the text : vira māhāran māulau, tāta vaditau vira / vira-maņi Sodau varām, kai davi daham sarira // (SVP vs. 249) 12. There is also a Sanskrit version of the tale in prose and verse called Sadayavatsa-kathā, prepared by Harsavardhana gani in 1471. It is a Jain recast of SVP, with several new tales emboxed and hundreds of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa and Old Gujarati Subhāşitas, taken from the traditional store-house, scattered all over the text. This is edited here for the first-time. Later on the tale of Sadayavatsa and Sävalimgă underwent such development and alteration as to become altogether a different tale. This new version of the tale is represented in the Sadayavatsa-Săvadlimgă-Caupai of Keśava Muni alias Kirtivardhana, which was completed in 1623 A.D. Another such work of unknown authorship and date, but linguistically assignable to the seventeenth century is called Sadayavaccha-Sāvaliṁgi-Pāņigrahaņa Caupai. Both these works have been given in the appendix by Manjulal Majmudar in his edition of Bhima's poem. Agarchand Nahta has given us a survey of different early and late versions of the tale current in Rajasthan and Gujarat". 13. There is one more reference to the tale of Suddaya, once again from an Apabhramsa poet. And if this tale is the same Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम् as the one we are considering here then the date of the earliest literary composition about the adventures of Suddaya can be shifted back by a century. The reference concerns the great Apabhramsa poet Svayambhudeva, the author of the epics Paumacariya and the Ritthaņemicariya. In the latter work, we find the following verse, which expresses exhaustion on the part of the poet after continuous life-long literary activity!?. kāāņa Pomacariyam Suddhayacariyam ca guna-gan'azghaviyam Harivamsa-moha-haraṇe Sarassai sudhiya-deha-vva The poet here says that after having composed the Paumacariya and the Suddayacariya full of literary merits, his Sarasvati (literary powers) seems to have become exhausted in the present task of clearing delusions regarding the Harivaṁsa narrative!). Here it is quite likely that Svayambhu's Suddayacariya was a poem dealing with the tale of Suddayavira. Of course we cannot be definite about this as Pk. Ap. Suddaya stands also for Sk. Sadraka and we have references to several Sadraka-kathas composed in Prakrit and Apabhraṁsa!. But is should be noted that Svayambhū has composed works on Rāmāyana and Mahābhārata and his third work Suddayacariya might have handled the popular tale of Suddaya. We have already taken note of two Apabhramśa poets, Nayanandin and Abdala Rahamana, talking about the Rāmāyaṇa, the Mahābhārata and the Suddaya tale in the same breath. • 14. The sources and precedents of the Sudravatsa tale remain to be investigated. We may point out here some significant parallels to a few of its episodes and motifs. The episode of a courtesan demanding fee from a merchant's son for dream enjoyment occurs in the Punyavanta-jātaka which is given in the Mahāvastu (ed. Senart, 1897, third part, p. 33-41). That story occurs elsewhere also in Buddhist and later non-Buddhist literatures. In the Jātaka version the courtesan's claim is more plausible in that Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम् it was made on the basis of the dream of the merchant's son and not of the courtesan herself. The dispute is resolved by a similar stratagem". The motif of accusation of theft due to a stolen costly article found in possession of the innocent hero (Sūdravatsa accused of the theft of the jewelled bodice), is found in the story of Śridatta and Mțgāňkavati in the eighth Taranga of the Kathāsaritsāgara, wherein Śrīdatta has to face execution for possessing a stolen necklace which he had found tied at the end of an upper garment he accidently got from a lake, where it was thrown by some thieves. The episodes of undertaking to burn a dead body and a witch caught while she was deceitfully gobbling lumps of flesh torn from a hanging man occur in the interesting tale of Bhāvarţikā, in the emboxed story of Amaradatta and Mitrānanda that was narrated by Bhāvattikā in the third watch of the night!6. Corresponding to the four incidents that occur during the four watches of the night to each of the four friends keeping a guard on the dead body in the SVP narrative, we have in the story of Amaradatta and Mitrānanda four fabricated episodes connected with the four watches of the night (attack from a hoard of jackals, from a band of Piśācas, from a group of Dākinis and from the goddess of pestilence, narrated by Mitrānanda. The last of these latter episodes presents a close parallel to the incident of the fourth watch in SVP)'?. The earliest known version of that motif is found in the story of Nitambavati occurring in the sixth Ucchrvāsa of Dandin's Daśakumāra-carita. We get another version in the first tale of the Vetālapañcaviņśati included in the Kashmirian versions of the Brhatkathā and existing also as an independent collection in Sanskrit with renderings and adaptations in regional languages of India. Penzer has noted various western versions of the motif deriv Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम् ९९ ing from the Arabian Nights which itself is based on the version that occurs in Seven Vazirs, the Arabic version of the Book of Sindibād! 15. The text in which Śūdravatsa, and Tuntaka are said to figure is mentioned by Bhoja as Kāmasenā-vipralambha. But the references and the works we have discussed consistently refer to the tale by the name of the hero : Suddavaccha-vira-cariya, Sadayavatsa-vira-prabandha, Suddavaccha, Suddaya etc. So it seems that the work referred to by Bhoja was possibly a composition based on the love-affair between Sūdravatsa and Kāmasenā. Bhoja has referred to another similarly titled work : Irsyālu-vipralambha''. Moreover a work cited by Bhoja as a Rāsakāñka is identified by Raghavan as the Rādha-vipralambha of Bhejjala, on the basis of Abhinavagupta's references20. This fact makes it likely that Kāmasenā-vipralambha was the title of the full work, possibly a dramatic type. On the other hand, from the SP. reference like Karpūrikālābha, Kalingasenālābha etc. which are names of sections of the BỊhatkathā version known to Bhoja?!, and not titles of complete works, we see that Bhoja sometimes gave reference to a section only of a work wherein the episode, character etc. he wanted to illustrate figures. In that case Kāmasenā-vipralambha can be taken to refer to a particular section or episode in the SūdravatsaKathā, known to Bhoja. NOTES This is a revised and expanded version of my paper entitled "Suddayacariya, a lost romantic tale in Apabhraṁsa” which was published in the Proceedings of the Seminar on Prakrit Studies (1973), ed. by K.R. Chandra, Ahmedabad, 1978 (L.D. Series 70), 24-27. Later on it has been included in my collection 'Indological Studey Vol. 1, 1993. 1. 1978, pithamarddaḥ dantakaḥ südravatsasya kāmasenā-vipralambhe (Sệngāraprakāśa, p. 909). 2. Bhoja's Sğrgāraprakāśa, p. 826. Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम 3. Jambūsāmicaria of Virakavi edited by V.P. Jain, 1968, Samdhi 1, Kadavaka 4 ; also Introduction, pp. 11. 14. 4. Hence Kochad (Apabhraíśa-sahitya, 1956, p. 148), has missed it. Paramanand Jain Shastri (Jain-Grantha-Prasasti-Samgraha, Part-2, 1963, Introduction, p. 59, text p. 6, Index, p. 165) has misunderstood it as Vira-kahā- V.P. Jain has either simply mentioned it (loc., cit. Index, p. 386) without any comment or has rendered it incor rectly and with a query as "Suddayavira-kathā ?”. 5. Sardeśarāsaka, edited by Jinavijaya Muni , 1946, verse 43.44. 6. Sudaṁsaņacariya of Nayanandin, edited by Hiralal Jain, 1970, Sardhi 2, verse 2 in the opening. 7. Jain-Grantha-Prasasti-Samgraha, Part 2. Delhi, 1963, Introduction, p. 48. 8. Jain-Grantha-Prasasti-Samgraha, text, p. 26. 9. Sadayavatsa-vira-prabhandha (= SVP) edited by Manjulal Majmudar, Bikaner, 1960. 10. It may be also noted in this connection that the Gāthās at v. 180 and 181 are the same as Vajjālagga 54 and 51 respectively with a few variants. 11. "Sadayavatsa-sāvalimga-ki prem-katha", Rājasthāna-bharati, 3, 1. See also H.C. Bhayani, Anusamdhān (in Gujarati), 1972, pp. 241-243. 12. Paumacariya of Svayambhū, edited by H.C. Bhayani : Part-I. Bombay, 1952, Introduction, pp. 28, 43-45. 125 (v. 65). 13. The poet expired sometime after he wrote this. The remaining por tion of the epic was completed by his son Tribhuvana. See Paumacariya, Part-I, Introduction pp. 44-45. 14. V. Raghavan, Bhoja's Śrgāraprakāśa, 1963, pp. 624, 819, 820. H.C. Bhayani, “About the Language of the Sadrakakathā”. JOI (B) 18, 1969, p. 316. 15. In Cāritraratna-gani's Dānapradipa (1443 A.D.), we have another version of this episode (in the story of Siddhidatta and Dhanadatta figuring as a part of the account of the previous incarnation of king Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम् १०१ Ratnapāla), in which the trickster is a merchant and the victim is a courtesan. See H.C. Bhayani, Sodh ane Svādhyāy (in Gujarati), 1965, pp. 224-230. 16. Muni Punyavijay (ed.), Akhyānaka-maņikośa-vrtti by Amradeva sūri (1134 A.D.), Bhāvattikā-Akhyāna, pp. 193-218; for the episode referred to above see verses 408-439. 17. There are numerous versions of the story of Amaradatta and Mitrānanda in Prakrit, Old Gujarati etc. 18. Tawney and Penzer, The Ocean of Story. Reprint, Delhi, 1968. Vol. II, 251-261. 19. Raghavan, op. cit., 827. 20. Raghavan, op. cit., 889-891. 21. Raghavan, op. cit., 839ff. Page #112 --------------------------------------------------------------------------  Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Dr. Pritam Singhve has been researching in Jainology. She is auther of several works like 'Hindi Jain Sāhitya mein Krishna Kā Svarup-vikās.' 'Samatvayog : Ek Samanvay Drişti’ ‘Anekānta-vāda as the basis of Equanimity, Tranquality and Synthesis of Opposite-Viewpoits'. 'Aņupehā, and Āņamda. Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( Parsva International Series 1. बारहक्खर-कक्क of महाचंद्र मुनि 1997 Ed. H. C. Bhayani, Pritam Singhvi 2. गाथामंजरी Ed. H. C. Bhayani 1998 3. दोहाणपेहा Pritam Singhvi 1998 अनेकान्तवाद : Pritam Singhvi 5. सदयवत्स-कथानक of Harsavardhanagani 1999 Ed. Pritam Singhvi आणंदा of आनंदतिलक 1999 Ed. H. C. Bhayani, Pritam Singhvi. 7. दोहापाहुड 1999 Ed. H. C. Bhayani, R. M. Shah, Pritam Singhvi