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हर्षवर्धन-गणि-कृतं सदयवत्स-कथानकम देवता काऽपि तुष्यति ।
बाला स्वंगि अलंकरी, कोरे वस्त्रि कुमारी ।
तउ जाणहि सुंदरि सही, निश्चिइ लाभइ नारी ।। १३६ मार्गे कन्या-पाणिग्रहणं भवति ।
तरु अरि वाम तेतिर लवइ वड-तडि शिवा खंति । तउ जाणहि सुंदरि सही रिद्धि अनेकि वरंति । १३७ संड सारस खर तुरी डावा लाली हुंति । एकइं काजिइं नीकल्यां कज्ज सयाई करिति ।। १३८ वामगि वायस उतरइ सावड हुइ श्वान । सावलिंगि जाणे सही पगि पगि मिलई निधान ॥ १३९ अधूरा पहिलइ पहरि जांगल जिमणां जाई । तउ जाणहि सुंदर सही पमिलई सजण सयाइं ।। १४० जउ उट्ठ खर डावइ स्वरि करी जिमणइ जाइ । सावलिंगि जाणे सही सगपणि कलह कराइ ।। १४१ डाबी छीक धाह जिमणी वारुणी आलउं मांस । सावलिंगि जाणे सही सफल मणोरह तास ॥ १४२ हय सपलाणउ संमुहउ जल गर्जित: गजराज ।
सावलिंगि जाणे सही रन्नि भमंतां राज ॥ १४३ पत्नी पुनः पृच्छति - नाथ क्व यास्यसि । स आह बहवो देशाः सन्ति गमनार्हाः। पत्नी प्राह तत्सत्यं -
बाल-राज्यं भवेद्यत्र द्वैराज्यं यत्र वा भवेत् । स्त्री-राज्यं मूर्ख-राज्यं च यत्र स्यत् ितत्र नो वसेत् ।। १४४ कुदेशं च कुमित्रं च कुसम्बन्धं कुसौहृदम् । कुभायाँ च कुपुत्रं च दुरतः परिवर्जयेत् ॥ १४५ तिणि देसडइ न जाईइ जिणि अप्पणउ न कोइ । सरि सरि मारग हीडीइ वत्त न पूछइ कोइ ॥ १४६