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पुण्य-पाप तत्त्व वाक्यों में होती है, जिनमें सर्वत्र पाप को ही त्याज्य निरूपित किया गया है। सर्वत्र पाप कर्मों को क्षय करने का संकेत किया गया है, पुण्य कर्मों के क्षय का कहीं कोई उल्लेख नहीं है। 'तवसा धुणइ पुराणपावगं' (दशवैकालिक सूत्र 9.4.4) 'संवरेणं कायगुत्ते पुणो पावासवनिरोहं करेइ' (उत्तराध्ययन सूत्र 29.55) आदि वाक्यों में पाप कर्मों के आस्रव-निरोध या उनके क्षय करने का ही संकेत प्राप्त होता है, पुण्य कर्मों के आस्रव-निरोध एवं उनके क्षय का नहीं।
तत्त्वज्ञान और पुण्य-पाप' प्रकरण में लेखक ने प्रतिपादित किया है कि आस्रव, संवर, निर्जरा आदि तत्त्वों का आधार पाप कर्म है, पुण्य नहीं। जब आस्रव त्याज्य होता है तो पुण्य का आस्रव त्याज्य नहीं होता, पाप का ही आस्रव त्याज्य होता है। संवर भी पाप प्रवृत्ति या सावद्य प्रवृत्ति का ही किया जाता है, शुभ प्रवृत्ति का नहीं। इसी प्रकार साधना के द्वारा निर्जरा भी पाप कर्मों की ही की जाती है, पुण्य कर्मों की नहीं। पुण्य कर्म अघाती होते हैं, अत: वे लेशमात्र भी आत्मगुणों को हानि नहीं पहुँचाते। लेखक का तो ‘कर्म सिद्धांत और पुण्य-पाप' प्रकरण में यह भी मन्तव्य है कि अघाती कर्म की पाप प्रकृतियों से भी जीव के किसी गुण का घात नहीं होता है तब पुण्य प्रकृतियों को जीव के लिए घातक या हेय मानना नितान्त भ्रान्ति है। इस प्रकरण में पुण्य-प्रकृतियों के संबंध में विशेष सूचनाएँ दी गई हैं, यथा
(1) जब तक पुण्य कर्म-प्रकृतियों का विस्थानिक अनुभाग बढ़कर चतु:स्थानिक नहीं होता है तब तक सम्यग्दर्शन नहीं होता है और यह चतु:स्थानिक अनुभाग बढ़कर उत्कृष्ट नहीं होता है तब तक केवलज्ञान नहीं होता है।
(2) देवद्विक, पंचेन्द्रिय जाति आदि 32 पुण्य प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभाग बंध उसी भव में मुक्ति प्राप्त करने वाले जीव ही करते हैं।