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प्रवचनसार अनुशीलन जो आत्मदर्शी पुरुष मुनिपद को धारण कर उसमें लीन होना चाहते हैं; वे प्रवीण पुरुष कुटुम्ब-परिवार से सहज विरक्त होते हैं। यदि उन्हें कुछ कहने का प्रसंग उपस्थित हो जावे तो पूर्वोक्त वचनों द्वारा समझावे।
ऐसा कोई नियम नहीं है कि सभी कुटुम्बियों को समझा कर ही वन में जाकर मुनिमुद्रा धारण करे; क्योंकि सभी कुटुम्बी तो किसी भी विधि से राजी नहीं हो सकते; इसलिए घर-छोड़कर मुनिपद धारण करने में यह अनिवार्य नहीं है। यह निश्चय से जानना चाहिए। ___ यदि कुछ प्रसंग उपस्थित हो जावे तो पूर्व में कथित वचनों के अनुसार कुछ विरागमय वचन कहकर आप स्वयं अनगार (मुनि) हो जावे।
उक्त वैराग्यमय वचनों का लाभ यह है कि अपने बन्धुवर्ग में कोई निकटभव्य हो तो उन वैराग्यमयी वचनों को सुनकर वह भी मुनिपद धारण कर लेवे।
पण्डित देवीदासजी प्रवचनसारभाषाकवित्त में उक्त गाथाओं के भाव को बड़ी ही सरलता से ३ छन्दों में इसप्रकार प्रस्तुत करते हैं ह्र
(सवैया इकतीसा) अपनैं कुटुंब कौ समूह जासौं पूछिकैं सु
महा उपदेस रूप वचन खिरावै है। माता पिता पुनि सौ कलित्र और पुत्र सौं सु
समिता विचार हियै ममता मिटावै है ।। ग्यानाचार दर्सन चरित्राचार तपाचार
वीरजा सु चारि क्रिया के विर्षे सु आवै है। जैसी दसासो है जाकौं सोई जीव जती हो है।
सावधान हो मैं आतमीक पद पावै है।।७।। दीक्षा लेने का अर्थी पुरुष अपने परिवार के सभी लोगों से उपदेशरूप वचनों से पूछकर, माता-पिता, स्त्री-पुत्र के प्रति समताभाव रखकर ममता छोड़ता है और ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार की क्रियाएँ धारण करता है। जिसकी ऐसी दशा होती है, वही
गाथा २०२-२०३ जीव यति होकर सावधानी पूर्वक यति धर्म पालकर आत्मीक पद को प्राप्त करता है।
(सवैया इकतीसा ) पंचाचार आपु आचरै सु और जीवनि कौं
आचाराइवे के विर्षे अति उतकिष्ट है। जति पदवी कौं आपु धरै और कौं धरावै
परम प्रवीन जाकौ वचन स मिष्ठ है।। कुलरूप जोवन की लियै सो विसेषताई
___ मोख अभिलाषी महामुनि को सु इष्ट है। इत्यादिक गुन कौ निवास साधु पास जाके
जाइ करि जोरि दो नवाइ सीस तिष्ठ है ।।८।। आचार्य स्वयं पंचाचार का पालन करने और अन्य मुनियों को पालन कराने में उत्कृष्ट हैं; यतिपद को स्वयं धारण करने और दूसरों को धारण कराने में परम प्रवीण हैं; उनके वचन अत्यन्त मधुर हैं; कुल, रूप, यौवन की विशेषताओं से विशिष्ट हैं और मोक्षाभिलाषी महामुनियों को इष्ट हैं। दीक्षार्थी पुरुष इत्यादि गुणों के धारक आचार्य के पास जाकर, दोनों हाथ जोड़कर, शीश नवाकर खड़ा रहता है।
(सवैया इकतीसा) लैनहार दिक्ष्या कहै मोहि भव की सु भीति
- सुद्ध आतमा के जानिवे की अति इक्ष्या है। ताथै मैं सु बार-बार जोरि करि दोइ करौं
अरजी सुनाथ दीजे दीवे की सुसिक्ष्या है ।। कहै गुरु अंगीकार करौ तुम निश्चै करि
यही सुख की सु करतार जिन दिक्ष्या है। सील सुख सागर है मुकति कौ मारग है
मौकली जहाँ सुपंचघर की सुभिक्ष्या है ।।९।। दीक्षा लेने वाला कहता है कि मैं सांसारिक दुखों से भयभीत हूँ और मुझे शुद्धात्मा को जानने की तीव्र इच्छा है। इसलिए मैं बारम्बार