Book Title: Pravachansara Anushilan Part 03
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 11
________________ १२ प्रवचनसार अनुशीलन सर्व लौकिकजनों के द्वारा निःशंकतया सेवा करने योग्य होने से और कुलक्रमागत क्रूरतादि दोषों से रहित होने से जो कुलविशिष्ट हैं; अंतरंग शुद्ध रूप का अनुमान करानेवाला बहिरंग शुद्धरूप होने से जो रूपविशिष्ट हैं; बालकत्व और वृद्धत्व से होनेवाली बुद्धिविक्लवता का अभाव ह से तथा यौवनोद्रेक की विक्रिया से रहित बुद्धि होने से जो वयविशिष्ट हैं; और यथोक्त श्रामण्य का आचरण न कराने संबंधी पौरुषेय दोषों को पूर्णत: नष्ट कर देने से प्रायश्चित्तादि के लिए मुमुक्षुओं द्वारा जिनका बहुत आश्रय लिया जाता है; इसलिए जो श्रमणों को अति इष्ट है ह्र ऐसे गणी के निकट अर्थात् शुद्धात्मतत्त्व की उपलब्धि के साधक आचार्य के निकट 'शुद्धात्मतत्त्व की उपलब्धिरूप सिद्धि के लिए मुझे अनुगृहीत करो' ह्र ऐसा कहकर दीक्षार्थी प्रणत होता है और 'तुझे शुद्धात्मतत्त्व की उपलब्धिरूप सिद्धि हो' ह्र ऐसा कहकर गणी आचार्य द्वारा अनुगृहीत होता है।" आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में आचार्य अमृतचन्द्र के समान सभी को पृथक्-पृथक् संबोधित तो नहीं करते हैं; तथापि सभी को संबोधित करने की चर्चा सामूहिक रूप से अवश्य कर देते हैं। विशेष बात यह है कि वे बन्धुवर्ग का अर्थ गोत्रवाले करते हैं और यह भी स्पष्ट करते हैं। कि यदि इन सबकी अनुमति बिना दीक्षा लेना संभव नहीं होता हो तो फिर कोई भी दीक्षित ही नहीं हो सकेगा। उनके स्पष्टीकरण का भाव इसप्रकार है ह्न “यहाँ जो गोत्र आदि के साथ क्षमाभाव का व्याख्यान किया है, वह अतिप्रसंग अमर्यादा के निषेध के लिए किया है। ऐसा नियम नहीं है कि उनके क्षमाभाव के बिना दीक्षा ही संभव न हो; क्योंकि प्राचीनकाल में भरत, सगर, राम, पाण्डव आदि अधिकतर राजाओं ने दीक्षा ग्रहण की थी और उनके परिवार में जो कोई मिथ्यादृष्टि हुए; उन्होंने उन पर उपसर्ग किया था। दूसरी बात यह है कि यदि वे गोत्रवालों को अपना मानते हैं और उन्हें गाथा २०२-२०३ १३ संतुष्ट करने का यत्न करते हैं तो तपस्वी ही नहीं हैं; क्योंकि दीक्षा लेने पर भी गोत्र आदि में ममकार करते हैं तो वे मुनि ही नहीं हैं । " कविवर वृन्दावनदासजी इन गाथाओं के भाव को स्पष्ट करने के लिए ३८ चौपाइयाँ, १३ दोहे, २ मनहरणकवित्त और १ द्रुमिल ह्र इसप्रकार ५४ छन्द लिखते हैं; जिनमें आचार्य अमृतचन्द्र कृत तत्त्वप्रदीपिका और आचार्य जयसेन कृत तात्पर्यवृत्ति टीका में समागत सभी बातें विस्तार से आ जाती हैं। यद्यपि ये सभी छन्द पठनीय हैं; तथापि पिष्टपेषण और विस्तार भय से उक्त सभी को यहाँ देना संभव नहीं है; किन्तु जिनमें आवश्यक शंकासमाधान प्रस्तुत किया गया, वे कुछ दोहे इसप्रकार हैं ह्न (दोहा) बन्धुवरग सों आपुको, या विधि लेय छुड़ा कहि विराग के वचन बर, मुनिपद धारै जाय ।। १९ ।। जो आतमदरसी पुरुष, चाहे मुनिपद लीन । सो सहजहि सुकुटम्ब सों, ह्वै विरकत परवीन ।।२०।। ताहि जुआय पर कहूँ, कहिवे को सनबंध । तो पूरव परकार सों, कहै वचन निरबंध ।। २१ ।। कछु ऐसो नहिं नियम जो, सब कुटुम्ब समुझाय । तबही मुनिमुद्रा धरें, बसै सु वन में जाय ।। २२ ।। सब कुटुम्ब काहू सुविधि, राजी नाहीं होय । गृह तजि मुनिपद धरन मैं, यह निहचै करि जोय ।। २३ ।। जो कहुं बनै बनाव तौ, पूरबकथित प्रकार । कहि विरागत वचन वर, आप होय अनगार ।। २४ ।। तहां बन्धु के वर्ग में, निकटभव्य कोइ होय सुनि विरागत वचन तित, मुनिव्रत धारै सोय ।। २५ ।। इसप्रकार विराग के वचन कहकर स्वयं को बन्धुवर्ग से छुड़ाकर मुनिपद धारण करे ।

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