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प्र० सा० इत्यभ्यर्थनया कार्यमंगीकार्य तमालयम् । स्वमानीय चतुष्कोणज्वलद्दीपे सुपूरिते ॥ १२३ ॥ भाण्टी० ॥१४॥ चतुष्के रक्तसतस्त्रप्रच्छादितसुविष्टरे । उपवेश्य नदद्वाद्यनादसंगीतमंगलैः ॥ १२४ ॥
अ०१ कुल्याभी रक्तवस्त्रस्रग्भूषाकाश्मीरचारुभिः । युवतीभिश्चतसृभिश्चंदनं तस्य वर्धयेत्॥ १२५ ॥ ततः स तैलमारोप्य पीतोद्वर्तनपूर्वकम् । तीर्थमालापाठजिनाद्याशीर्वादरवाकुलम् ॥ १२६ ॥ पीतखल्यापोह्य तैलं परिषेच्य सुखांबुभिः।सुभोज्यावर्षी भूषाम्रग्वस्त्रचंदनवंदनैः॥ १२७ ॥ जाना हुआ है इसलिये आपकी ही योग्यता बहुत अच्छी है। दूसरी बात यह है कि आप दूसरोंका वांछित प्रयोजन सिद्ध कर देते हैं इसलिये हम आपको अधिक क्या कह सकते। हैं ॥ १२२ ॥ ऐसी प्रार्थना करके प्रतिष्ठाकार्य करनेकी स्वीकारता (मंजूरी ) कराके प्रतिष्ठाचार्य (इंद्र ) को अपने घर लाये । वहां चौकी विछाकर उसपर सिंहासन रक्खे और ४ चौमुखी दीपक जलावे । सिंहासनपर लाल वस्त्र विछावे उसपर इंद्रको बिठाकर गीत नृत्य वाजोंके साथ लालवस्त्र माला आभूषण चंदनसे शोभायमान चार सधवा जवान स्त्रियांसे चंदन अंगपर लगवावे ॥१२३३१२४॥१२५॥ फिर जिन आदिकी आशीवाद बुलवाता हुआ उस इंद्रके अंगमें पीले उवटने सहित तैल लगवावे फिर पीली खलिसे अंगका तेल दूरकर प्रासुक जलसे स्नान करावे । पुनः स्वादिष्ट भोजन कराके आभूषण कपड़े चंदन माला आदिसे सजावे । पश्चात् प्रतींद्र सहित उस इंद्रको हाथी या घोडेपर चढाकर जैनमंदिरमें
॥१४॥ लेजावे । उस समय 'निसिहि' ऐसा उच्चारण करके जिनमंदिर में प्रवेश करे(घुसे) और
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