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प्र०सा०
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एनं सम्यगधीत्य ये गुरुमुखानुध्वा तदर्थं क्रिया निर्मास्यति सुमेधसो बुधनताः प्राप्स्यति ते निर्वृत्तिम् ।। ६५ ।। इत्याशाधरविरचिते प्रतिष्ठासारोद्धारे जिनयज्ञकल्पापरनाम्नि सिद्धादिप्रतिष्ठा विधानयो नाम षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥
| विधिको कहनेवाले जिनयज्ञकल्प द्वितीय नामवाले प्रतिष्ठासारोद्धार ग्रंथको "C मुझ आशाधरने " कल्याण होनेकेलिये किया है। जो भव्यजीव गुरुके मुखसे इसको पढकर इसकी क्रियायें करेंगे वे बुद्धिमान देवोंसे पूजित हुए परंपरासे मोक्षको पायेंगे ॥ ६५ ॥ इसप्रकार पं० आशाधर विरचित जिनयज्ञकल्प दूसरे नामवाले प्रतिष्ठासारोद्धार में सिद्ध आदिकी मूर्तिप्रतिष्ठाको कहनेवाला छठा अध्याय समाप्त हुआ ॥ ६ ॥
भा०टी०
अ० ६
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