Book Title: Pratishtha Saroddhar
Author(s): Ashadhar Pandit, Manharlal Pandit
Publisher: Jain Granth Uddharak Karyalay

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Page 279
________________ प्र०सा० ॥१३५॥ नुर्ध्वा धृतासिफलकः सव्येन राह्वासितं श्वानं सिंहसमं करेण भयदामन्येन विभ्रद्रदाम् । नागालंकरण: किलाशु डमरुकारावेोल्वणांत्रिकसेखतर्धरमत्रयोस्त्यधिकृतः क्षेत्रे स साक्षादयं ॥ ५५ ॥ ओं ह्रीं नियुक्त क्षेत्रपाल अत्रावतरावतर संवौषट् आवाहनं, ओं ह्रीं अत्र तिष्ठ २ ठ २ स्थापनं, ओं ह्रीं मम संनिहितो भव २ वषट् सन्निधापनम् । ततः सूत्रोक्तविधिना तिलकं दत्वा | धिवासनादिकं कृत्वा सद्वस्त्रभूषादिभिः सत्कुर्यात् । इति यक्षादिप्रतिष्ठाविधानम् । अथ पत्रादिप्रतिष्ठा । श्रीचंदनादिवेद्यां तु पट्टादौ सम्यगुद्धृतम् । सिद्धचक्रादि संपूज्य तत्पत्रं पुष्पमंडपे ॥ ५६ ॥ मंगलद्रव्य सर्वोषध्पुन्मिश्रतर्थिवारिणि । निशामुषितमानयं निवेश्य स्त्रपनमंडपे ॥ ५७ ॥ आप्लाव्य दुग्धदध्याज्यैः प्राग्वन्मंत्राभिमंत्रितैः । प्रक्षाल्य मृत्स्ना श्रीखंड तीर्थपाक्षौभिरादरात् करे ॥ ५० से ५४ ॥ " ओं ह्रां " इत्यादि कथित रीतिसे मांडला बनावे | "हृप्य" इत्यादि श्लोक तथा " ओं ह्रीं " बोलकर क्षेत्रपालका आवाहन आदि करे ॥ ५५ ॥ उसके वाद जिनशास्त्र कथित विधिसे तिलक देकर अधिवासना करके उत्तम वस्त्र आभूषणादिकांसे सत्कार करे | यह यक्षादि प्रतिष्ठाकी विधि हुई । अब तांवे आदिके खुदे हुए पत्रोंकी प्रति - ष्ठाविधी कहते हैं। चंदन आदिकी बनी हुई वेदीमें पटे पर सिद्धचक्र आदिकी पूजा करे ॥ ॥ ५६ ॥ फिर मंगलद्रव्य सर्वोषधिसे मिले हुए जलाशयके जलसे अभिषेक करे ॥ ५७/५८ ॥ भा०टी० अ०६ ॥१३२॥

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