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भत्युर्वी माणगार्भिणी सुरसरित्रीरोक्षिता षोडशस्वनेक्षामुदितां भजति जननीं श्रीदिक्कुमार्योसि सः ॥ ११७ ॥ प्रच्छन्नं जननीमुपास्य शयनादानीय शच्यार्पितं यं तत्वास चतुर्णिकायविबुधः श्रीमत्करींद्रश्रितः । सौधर्मीकनिवेशितं सुरगिरिं नीत्वाभिषिच्यावया संयोज्योपचरत्यजस्रमसमैर्भोगैः स भास्येष नः ॥ ११८ ॥ किं कुर्वाण सुरेंद्ररुद्रविषयानंदाद्विरक्तस्तुतो यो लोकांतिकनाकिभिः शिविकया निःक्रम्य गेहान्महैः । दिव्यैः सिद्धनतीद्वयावनतरुं पूत्वा परादीक्षया
भुंक्त शुद्धनिजात्मसंविदमृतं स त्वं स्फुरस्येष नः ॥ ११९ ॥ महिने तथा आनेके वाद नौ महीने इस तरह पंद्रह महीने इंद्रकी आज्ञासे कुवेरने पिताके | घर रत्न आदिकी वर्षा की तथा सोलह उत्तम स्वमोंके देखनेसे हर्षित जिनमाताकी दिकुमारियां सेवा करती हुई ॥ ११७ ॥ जिसके जन्म कल्याणकमें इंद्राणीने माताको निद्रामें मग्न करके प्रभु वालकको लाकर इंद्रको सौंप दिया, फिर उसे ऐरावत हाथी-? पर विठाके सुमेरु पर ले जाकर इन्द्रादिने अभिषेक किया, उसके बाद राज्यसंपदा । आदि भोगोपभोगकी दिव्य सामग्रीसे शोभायमान हुए ॥११८॥ उसके बाद किसी