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तथा सामान्यतीविवे गुणाधारोप्यमहताम् । यथास्वं च पृथकल्यं स्वर्गावतरणादिकम् २२५
अध्यंगुष्टमितामनेन विधिना जैनी प्रतिष्ठाप्यं ये शास्त्रोक्ता प्रतिमा भजति विधिवन्नित्याभिषेकादिभिः । तेऽद्भक्तिढानुरंजितधियो भुक्त्वा शिवाधर
ग्रामण्योम्युदयावलीरनुभवंत्यात्यंतिकी नितिम् ॥ २२६॥ इत्याशाधरविचित प्रतिष्ठासारोद्धारे जिनयज्ञकल्पापरनाम्न जिनप्रतिष्ठाविधानीयो
नाम चतुर्योध्यायः ॥ ४ ॥
स्वर्गसे अवतार लेना आदि क्रियायें हुई हैं उसीतरह अहतके प्रतिबिंबमें गुणादिकी स्थाप-2 वाना करनी चाहिये ॥ २२५ ॥ इसतरह निर्वाण कल्याणकी स्थापनाका विधान हुआ । जो
अंगुष्ठप्रमाण शास्त्रोक्त जिन प्रतिमाको भी इसी पूर्वकथित विधिसे प्रतिष्ठित करके हमेशा अभिषेकादि विधिसे पूजते हैं वे मुमुक्षु इस लोकमें उत्कृष्ट भोगोंको भोगकर वादमें अनंतसुखरूप मोक्षको पाते हैं ॥ २२६॥ इसप्रकार पं० आशोधर विरचित जिनयज्ञकल्प द्वितीय नामवाले प्रतिष्ठासारोद्धारमें
अर्हतप्रतिष्ठाकी विधिको कहनेवाला चौथा अध्याय पूर्ण हुआ ॥४॥