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॥ चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥
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अथो विविक्तदेशस्थः प्रतिष्ठाचार्यकुंजरः । प्रतिष्ठाविधये कुर्यात् परिकर्मेदमादृतः ॥ १॥ प्रागेकां सुखसंचार्या प्रातिहार्यादिशालिनीम् । पुरोधाय सुरम्यार्थ्यां प्रतिष्ठेयं निरूपयेत्॥२॥
शस्ताशस्तात्मभावार्जितषजिनच्छेददृप्यत्परा यः स्वर्गाच्छभ्रादथैत्य त्रिजगदुपकृतिव्यक्तिमाहात्म्यसंपत् । शक्राद्यैर्योतिरागादहमहमिकया सेव्यते सियधीशः पश्यंत्यज्ञास्तदर्चा स्वचितमिह नये स्थाप्यतेर्हत्स तेभ्यः ॥३॥
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अब चौथा अध्याय कहते हैं। याग मंडलकी पूजाके वाद उत्तम प्रतिष्ठाचार्य एकाहतस्थानमें प्रतिष्ठा विधिके लिये इस आगे कहेजानेवाली क्रियाको करे ॥१॥ सबसे पहले
एक प्रतिमाको लावे। जोकि अच्छीतरह अपनेपर चल सके, प्रातिहार्य आदि सहित हो :
और देखनेमें बहुत अच्छी हो ॥२॥"शस्ता" आदि श्लोकोंमें जैसा प्रतिमाका वर्णन किजाया है वैसी प्रतिमाको न्यायपूर्वक पैदा किये हुए द्रव्यसे वनवाकर प्रतिष्ठा कराते हैं वे
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