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प्र०सा०
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दृष्ट्वामृश्य च सर्वशः प्रतिकृतीराशाधरोंतश्वरत्
कीर्तिः सोत्तरसाधकोनुरहसं गच्छेत्पुरा कर्मणे ॥ २४१ ॥
इत्याशाधरविरचिते प्रतिष्ठासारोद्धारे जिनयज्ञकल्पापरनाम्नि यागमंडलपूजाविधानीयो नाम तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥
हे हुए क्रमसे पूजे । इस तरह उत्तर वेदीकी पूजा विधि हुई । मैंने ( आशाधरने ) यह वेदी - का विधान शास्त्र के अनुसार कहा है । जो कोई इस विधीको जानकर और विचार कर क रेगा वह मुमुक्षु भव्यजीव उत्तम सुखको अवश्य प्राप्त होगा ॥ २४१ ॥
इसप्रकार पं० आशाधर विरचित जिनयज्ञकल्प द्वितीय नामवाले प्रतिष्ठासारोद्धारमें यागमंडलकी पूजाविधी कहनेवाला तीसरा अध्याय समाप्त हुआ ॥ ३ ॥
20260020290
मा०टी०
अ० ३
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