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कृतकर्माधुनावेदी प्राच्यपीठाग्रभूतले । इह गंधांबुसंसेक सत्पुष्पप्रकारांचिते ॥ ८ ॥ भद्रासनं निवेश्यात्र विश्वकर्मसमक्षतः । गर्भावतार कल्याणं स्थापयापीदमर्हताम् ॥ ९ ॥ ओं मूलवेद्याः पूर्वस्यां दिशि जयादिपीठस्य पुरस्ताद्भद्रासनं निवेशयामीति स्वाहा भद्रासननिवेशनम् ।
वंशक्षायिकदृक्समिद्धसुधियां योस्मिन्मनूनामभूद्ये चक्ष्वाकुकुरुग्रनाथ हरियुग्वंशाः पुरोवेधसा | आधानादिविधिप्रबंध महिताः सृष्टास्तदुत्थार्यभूभर्तृस्वामिकजीविता सुकुलजा जैन्यो जयंत्यंबिकाः ॥ १० ॥ मृत्यादित्रय दृग्विशुद्ध यनुगचित्सत्कर्मणो आगमद्रव्यो गोतमगोत्र भाग भिजनो नेभिस्तथा सुव्रतः । तद्वत्काश्यपगोत्रिणस्तदितरे णोकर्मनो आगम द्रव्योद्येष्वभवन स्वयं यदुदरेष्वंबाः प्रसदिंतु ताः ॥ ११ ॥
आगेकी जगहको गंधोदकसे छिड़ककर पुष्पोंको क्षेपण कर उस जगह पर कारीगरके सामने | उत्तम सिंहासन रखे और "मैं अर्हत्प्रभुका गर्भकल्याणक स्थापन करता हूं " ऐसा कहै । उस समय " ओं मूल " इत्यादि मंत्र बोलना चाहिये ॥ ८ ॥ ९ " वंश ” इत्यादि दो श्लोक | बोलकर जिनमाताओंकी स्तुती करे ॥ १० ॥ ११ ॥ अब जिनमाताओंके नाम कहते है ;
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