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प्र०सा०
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| पाक्षिकाचारसंपन्नो धीसंपद्वंधुबंधुरः । राजमान्यो वदन्यश्च यजमानो मतः प्रभुः ॥ ऐदंयुगीनश्रुतधृद्धुरीणो गणपालकः । पंचाचारपरो दीक्षाप्रवेशाय तयोर्गुरुः ॥ इति इंद्रादिलक्षणम् ।
११६ ॥ ११७ ॥
निश्चित्य लग्नमासन्नं दिवसेषु कियत्स्वपि । सुमुहूर्ते प्रतिष्ठार्थ दातेद्रं स्वग्रहं नयेत् ॥ ११८ ॥ प्रतिष्ठाचार्य उत्तम गुणोंवाला ढूंढना चाहिये और उसीसे प्रतिष्ठा कराना चाहिये अयोग्योंसे कभी नहीं कराना ॥ ११५ ॥ अब प्रतिष्ठामें धन खर्चनेवाले यजमानका लक्षण कहते हैंपांच पाप तीन मदिरा आदि मकार- इन आठोंको त्यागरूप आठमूलगुण स्वरूप पाक्षिक आचारका धारण करनेवाला हो ज्ञानवैराग्य सहित हो बहुतधन और बंधुजन जिसके अधिकारमें हों लोकमान्य हो राजासे जिसने संमान ( इज्जत) पाया हो उदार चित्तवाला दानी हो - ऐसा यजमान होना चाहिए ॥ ११६ ॥ अब दक्षिा देनेवाले आचार्यका स्वरूप कहते हैं - व्यवहार शास्त्रको जानने वाला, श्रुतज्ञानियों में मुख्य, साधुसंघका पालनेवाला दर्शनाचार आदि पांच आचारोंके पालनेमें लीन-ऐसा आचार्य; यजमान और प्रतिष्ठाचार्य को | इस प्रतिष्ठा कराने की दीक्षा देनेवाला गुरु कहा गया है ॥११७॥ इस प्रकार इंद्र ( प्रतिष्ठाचार्य ) यजमान (प्रतिष्ठा में धन खर्चनेवाला) और इस प्रतिष्ठाकार्य करने की दीक्षा देनेवाले आचार्यका
१ प्रियवाग् दानशीलश्च वदान्यः परिकीर्तितः ।
भा०टी०
अ० १
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