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अथो रहः पुरा कर्म कृत्वा जप्त्वापराजितम् । स्वशुद्धयेष्टाग्रशतं निगदंतो निषेधिकाम् ॥१६९॥ भाण्टी. प्र०सा० हयागभूमि प्रविश्येंद्रा जिनानभ्यर्च्य भक्तितः। सिद्धानत्वा महर्षीणां विदध्युः पर्युपासनम्॥
अ०१ ततो याजकयष्टारो दध्युश्चंदनचर्चिताः । वराः सजो नवाऽस्यूतशुचिवस्त्राण्यलंकृतीः१७१॥ यज्ञदीक्षाध्वजं विभ्रत्सौधर्मेंद्रोऽथ मंडपम् । प्रतिष्ठयेत् सपतींद्रो वेदी चोद्धृत्य मंडलम् १७२॥
इति प्रतिष्ठामहोद्योगः। वेद्यामालिख्य चूर्णेन पंचवर्णेन कार्णकाम् । बहिःषोडशपत्राणि चतुर्विंशतिमन्वतः ॥१७३॥ मंत्रको तीनवार बोलें ॥ १६९ ॥ फिर वे इंद्र यागस्थानमें प्रविष्ट होकर भक्ति सहित अर्ह ||६||
तकी पूजा करके व सिद्धोंको नमस्कार करके आचायोंकी पूजा करें ॥ १७० ॥ उसके वाद। ६ इंद्र और यजमान चंदनसे छांटी हुई उत्तम चंपा चमेली आदिकी पुष्पमालायें विना सिले ४ नये शुद्ध कपडे और आभूषण धारण करें ॥ १७१ ॥ अनंतर सौधर्म इंद्र प्रतींद्र सहित यज्ञ-18 दीक्षाके चिन्ह मौंजी बंधन आदिको धारण करके वेदीपर मांडला बनाके मंडपकी प्रतिष्ठा करे ॥ १७२ ॥ इस प्रकार प्रतिष्ठाका महान उद्योग करे । उस वेदीमें पांच रंगके चूर्णसे वीचमें कर्णिका बनाकर बाहर सोलह पत्तोंवाला आकार बनावे। उसके चारों तरफ पत्तोंवाला उसके वाद बतीस कमल पत्रोंवाला आकार खींचे और बाहर वज्रके चिन्ह || वनावे तथा चार कोनोंमें चार दरवाजे हों ऐसी वेदीकी रचना करे ॥ १७३ । १७४ ॥ कई
ओं ह्रीं ह्रीं ह्रौं हः अहे णमो अरहंताणं णिसिहिए स्वाहा । इति णिसीहीमंत्रः ।
ललन्छन्
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