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द्वात्रिंशतमतः पद्मान वहिर्वज्रांकितैर्युताम् । कोणैश्चतुर्भिः सचतुर्दिग्द्वारां वेदिमा लिखेत् ॥ १७४॥ | जयाद्यष्टदलान्येके कर्णिकावल याद्बहिः । मन्यंते वसुनंयुक्तसूत्रज्ञैस्तदुपेक्ष्यते ॥ १७५ ॥ | काश्मीरादिशुभ द्रव्यलिखिताखंडमंडलम् । नवं चंद्रोपकं चोर्ध्वं तयोर्वेद्योर्वितानयेत् ॥ १७६ ।। | हेमापामार्गदर्भान्यतमकृप्तशलाकया । चूर्णाकीर्णे वेदिपृष्टे वर्तयेद्यागमंडलम् || १७७ ॥ भूर्जे गंधेन चालिख्य क्ष्मा पीठाक्षरं तथा । प्रणवं दक्षिणे भागे वामे सं सविसर्गकम् १७८ विद्वानोंका ऐसा कहना है कि कर्णिकाकी गोलाईके बाहर जया आदिके आठ पत्र बनावे परंतु वसुनंदि आचार्य कथित प्रतिष्ठा सिद्धांतके जाननेवाले उस वचनको नहीं स्वीकार करते। क्योंकि उनका मानना अज्ञानताको लिये हुए है ॥ १७५ ॥ यागमंडल और ईशान वेदी- इन दोनोंके ऊपर नया चंदोआ बांधै । उस चंदोवेमें केशर आदि शुभ द्रव्योंसे यागमं - डल अभिषेकमंडल लिखा हो ॥ १७६ ॥ उस वेदीके पिछाड़ीके भागपर सोना अपामार्ग और डाभ इनमेंसे किसी एककी सलाई बनाकर उसमें रंग भर के वेदीके पृष्ठभागमें यागमंडलको लिखै ॥ १७७ ॥ फिर भोजपत्रपर घिसे हुए चंदन कपूर मिश्रित उस सलाईसे क्ष्माह ऐसा मध्यबीज लिखे, दाहिने भाग में ओं लिखे वाएं भागमें सः लिखे उसके ऊपर भागमें अहं लिखे उसे ओं णमो अरहंताणं ह्रौं स्वाहा इस मूलमंत्रसे घेर दे । उसके बाद ओं अहं आदिमें तथा स्वाहा अंतमें है जिसके ऐसे केवलिमंत्रको अर्थात् ओं अर्ह अर्हत्सिद्धसयोगिकेवालभ्यः स्वाहा इस मंत्र को लिखै ॥ उसके चारों तरफ नंद्यावर्तचक्र, यवचक्र और ओं आदिमें
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