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वज्रान् स्वमंत्रैः पद्मातः परब्रह्मादिकान् यजेत् । ततश्च विद्यादेव्यादीन् नस्य पत्रादिषु क्रमात् १८२ चत्वारि मंगलादीने वाणादित्रितयं शिला । भट्टासनं च संस्थाप्यं ततो वेद्यां यथोचितम् १८३ | पीठेषूत्तरवेद्यां च वर्तयित्वा यथायथम् । मंडलानि विधानेन वक्ष्यामाणेन चार्चयेत् १८४
इति मंडलार्चनम् ।
इति सूत्रितमाध्यायन विधिं सम्यक्कृतक्रियः । श्रद्दधानो यथाशास्त्रं जिनविंवं प्रतिष्ठयेत् १८५ ।। या त्रिसंध्यं दिने द्वे वा चत्वारीष्टाधिवासना । यथात्मविभवं कार्या सादेशाद्यनुरोधत: १८६ | स्थापन करके क्रमसे पूजे ॥ १८१ । १८२ ॥ पुनः यागमंडलकी वेदीमें यथायोग्य छत्रादि आठ, आयुधादि आठ, पताका आठ और कलश आठ - इस तरह चार मंगलादि; वाण | सरसों जौके अंकुर - ये तीन चारों कोनोंमें तथा चंदनादि घिसनेकी शिला और सोने चांदी | चंदन पीपल आदि क्षीरवृक्षका काठ इत्यादिका बनाया हुआ पट्टारूप गर्भावतार कल्याणके | लिये भद्रासन - ये सब वस्तुएं रक्खे ॥ १८३ ॥ उत्तर वेदी ( ईशान वेदी ) व जन्माभिषेक | वेदीपर मांडला खींचकर आगे कहे जानेवाली विधिसे पूजा करे ॥ १८४ ॥ इस प्रकार मंडलकी पूजा कही गई । इस तरह याजकाचार्य शास्त्रमें कही गई विधिको विचारता हुआ गर्भ जन्मादि संबंधी क्रिया अच्छी तरह करता हुआ शास्त्रानुसार श्रद्धान करता हुआ। | जिनप्रतिमाको प्रतिष्ठित करे ॥ १८५ ॥ गुरुके उपदेशके अनुसार तीनों संध्या व एक दिन दो दिन चार दिनतक पूजा होम जपादिक क्रिया शक्तिके मार्फिक करे ॥ १८६ ॥ जिन
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