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ॐ ह्रः वैस्रसिकपरमाचिन्मयविश्वैश्वर्यपदापहारकठोर कर्मदुष्कर्मशात्रवशक्तिशातनोत्सिक्तचिच्छक्तिव्यंजकप्रकाम
दुर्लक्षव्यतिरेकक्षेत्रज्ञाशांतरप्रवेशदुर्ललितबुद्धयनुबंधप्रवर्धमानसद्ध्यानसमिद्ध सहजानंदा
| मृतरसास्वादनावधीरितपरममुक्तिसंपत्प्रियासमागमोत्कंठानां मंगललोकोत्तमशरणभूतानां सर्वसाधुपरमेष्ठि - | नामष्टतयीमिष्टिं करोमीति स्वाहा ।
सामोदैः.
.. पूजये साधुसिंहान् ॥ १८ ॥
एवं मध्येऽर्हतो दिक्षु च चतुरः सिद्धादीनभ्यर्च्य विदिक्षु भित्वा कर्मगिरीनित्यादिमत्रैश्चत्वारि मंगलानि लोकोत्तमान् शरणानि चार्थैः संभाव्य सिद्धोपरि धर्मस्येत्थं पूजां कुर्यात् । अत्रांत प्रतिबंधकव्यपगमैकांत स्फुटञ्चित्कलारूपेणापि जगत्यचिंत्यचरितस्तंतन्यते येन ना ।
“ सामोदैः " इसे पढकर सर्वसाधुपरमेष्ठीको जलादि अष्ट द्रव्य चढावे ॥ १७१८ ॥ इस प्रकार मांडलेके बीचमें अर्हतको, चार दिशाओंमें सिद्धादि चार परमेष्ठियोंको पूजै और विदिशाओं में " भित्वा कर्मगिरीन् " इस आगे कहे जानेवाले श्लोकमंत्र से चार मंगल चार लोकोत्तम चार शरणको असे पूजकर सिद्ध परमेष्ठीके ऊपर स्थापित धर्मकी इस प्रकार पूजा करै । वह इस तरह है कि पहले “ अश्रांत " इत्यादि श्लोक पढै उसके बाद ओं ह्रीं " से धर्मको पुष्प क्षेपण करे फिर " सामोदैः " इस श्लोक से जिन धर्मकी जलादि
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