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ते मंत्रविद्यथानात मुक्तेनुक्ते तु कर्मणि । युंज्याद्यथार्ह विज्ञानामनुत्पत्त्यै शमाय च ॥ ४० ॥
इति शांतिकर्मविधानं । अथातो जलाशयमुपसद्य सुपवित्रपात्रे वर काश्मीरकर्पूरादिना कार्णिकायां ॐ ह्रीं अर्ह श्रीपरब्रह्मणेनंतानंतज्ञानशक्तये नमः इति लिखित्वा पूर्वाद्यष्टदलेषु क्रमेण ओं ह्रीं श्रीप्रभृतिदेवताभ्यः स्वाहा १ ओं ह्रीं गंगादिदेवीभ्यः स्वाहा २ ओं ह्रीं सीताविद्धमहाह ददेवेभ्यः स्वाहा ३ ओं ह्रीं सीतोदाविद्धमहाहददेवेभ्यः स्वाहा ४ ओं ह्रीं लवणोदकालोदमागधादितीर्थदेवेभ्यः स्वाहा ५ ओं ह्रीं सीतासीतोदामागधादितीर्थदेवेभ्यः स्वाहा ६ ॐ ह्रीं संख्यातीत समुद्रदेवेभ्यः स्वाहा ७ ॐ ह्रीं माफिक मिलता है अर्थात महाफल देता है और बड़ा देता है ॥ ३९ ॥ वह
| मंडलपर यथायोग्य करे । उसका फल: ध्यानके लघुशांतिकर्म भी सम्यक ध्यान से कियाजाय तो शांतिविधान भी थोडे ध्यानसे किये जानेपर थोडा फल बुद्धिमान इंद्र शास्त्रकथित रीतिले तीर्थोदकादानविधिमें कहे गये लघु वृहत् शांतिविधान कर्मोंको अग्रिम विघ्नोंकी अनुत्पत्ति और पूर्वविघ्नोंकी शांतिके लिये यथायोग्य करे ॥ ४० ॥ इस प्रकार शांतिकर्मका विधान कहा गया । अब उसके वाद जलाशय ( सरोवर नदी ) के किनारे जाकर धोये हुए नवे थालमें उत्तम केशर कपूरसे अष्टपत्रकमलकी कर्णिका ( वीचभाग ) में " ओं ह्रीं अर्ह " इत्यादि लिखकर पूर्वादि आठ पत्रोंपर क्रमसे “ओं ह्रीं श्री " इत्यादि आठ मंत्र लिखकर तीनवार मायाबीजकी ईकारमात्रासे वेष्टितकर क्रोंकार अंतमें
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