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प्र० सा०
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गजादिवाहनान्यधिरुह्य महोत्सवेनाभिचैत्यालयमागच्छेयुः । ओं श्री ही धृतिकीर्तिबुद्धिलक्ष्मीशांति- ५) मा०टी० पुष्टयः श्रमद्दिकुमार्यो जिनेन्द्रमहाभिषेककलशमुखेष्येतेषु नित्यनिविष्टा भवत भवतेति स्वाहा । इति श्रयादिमंत्रः ।
अ० २
ॐ “ क्षीराब्धि सर्वतीर्थोदकमयवपुषा स्वैरमाक्रोशतोस्य क्षीरैः पद्माकरस्य प्रणयमुपगतान् शातकुंभीय कुंभान् । सानंदं श्रयादिदेवीनिचयपरिच योज्जृंभमाणप्रभावानेतानभ्युद्धरामो भगवदभिषवश्रीविधानाय हर्षात् ॥ ५१ ॥
इति कलशोद्धारमंत्रः । एतत्पठित्वा पुष्पाक्षतेनोपहार्य कलशानुद्धरेत् । इति तीर्थोदकादानविधानम् । अथ जिनयज्ञादिविधानान्यभिधास्यामः -
जलसे कलशोंको भरकर किनारेपर रक्खे फिर उनको चंदन; पुष्पमाला- दूव-दर्भ- अक्षत सरसोंसे पूजकर उनके मुखपर 'श्री आदि' मंत्रसे पवित्रित पत्ता व फल रखके कलशोद्धार मंत्र से पूजित कर एक एकको उठावे । फिर उसी समय सौभाग्यवती स्त्रियोंके हस्तकमलोंमें रखे और बचे हुए कलशोंको आप हाथमें लेकर हाथी आदिकी सवारीपर चढके महान उच्छवके साथ चैत्यालय ( जिनमंदिर) में आवैं ॥ " ओं श्री ” इत्यादि श्री आदि मंत्र है । " ओं क्षीराब्धि ” इत्यादि कलशोद्धार मंत्र श्लोक हैं ॥ ५१ ॥ ऐसा पढकर पुष्प अक्षतादि
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