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प्र०सा०
॥२३॥
अ०२
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भाण्टी० पत्रेष्वष्टौ जयाया दशसु दिगधिपान दिक्षु सोमस्य चोर्चे सूर्यादीन साश्रिसद्वारहमिह शुभदं मंडलं वर्तयामि ॥४॥
इति पुष्पांजलिः। अष्टाविंद्रादिपीगनि यथास्वं दिक्षु कल्पयेत् । शेषसोमासने चेन्द्रपाशि दक्षिणपार्श्वयोः ॥५॥ अथवा-मध्ये मध्यवदंबुजेष्टसु बहिः पूर्वस्य पत्रस्थवद्रोहिण्याचमरीधिरष्टसु दधद्यक्षीस्त्रिरष्टस्वपि देवेंद्रश्चितुरष्टसु मतिदिशं दिक्पालकानगुनकान वनाग्रेषुततोग्रहानपि लिखाम्यत्रेष्टकृन्मंडलम् || कहकर पुष्पांजलि क्षेपै ॥ ४ ॥ अब शांति विधानके लिये द्वितीय मंडल कहते हैं-आठ दिशाओंमें आठ इंद्रादिकोंके आसन यथायोग्य कल्पना करे और धरणेंद्र व सोम इन दोनों के आसन इंद्र और वरुणकी दाहिनी तरफ कल्पना करे ॥ ५॥ अथवा वृहत् शांतिक मांडलेका विधान कहते हैं-मांडलेके मध्यभागमें पहलेकी तरह अष्टदल कमल बनावे उनमें पंच परमेष्टी, मंगल, लोकोत्तम, शरण,ये आठ लिखै। उसके वाद सोलह पत्रोंपर रोहिणी आदि सोलह विद्या देवता स्थापन करे । चौवीसपत्रापर चक्रेश्वरी आदि चौवीस शासन देवता ( यक्षी ) ओंको, बत्तीस कोठोंमें देवेंद्रोंको (यक्षोंको) स्थापन करे । हर एक दिशामें , दिपालोंको और वज्रोंके अग्रभागमें सूर्यादि नवग्रह लिखे-इस तरह इस सरोवरकेर X ॥२३॥ किनारे वृहत शांतिक मंडलका स्थापन करता हूं जोकि इष्टका देनेवाला है ऐसा कहकर । पुष्पांजलि क्षेपण करे॥६॥ पूजा करने में हर्षित हुआ नागेंद्र इत्यादि श्लोकसे पिसे हुए