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तत्रेद्रा यजमानश्च स्नात्वाभ्यार्हतोखिलम् । लोकं संतj भुक्त्वेष्टं सुस्वाद्वन्नं हितं मितमा कृतारात्रिकमांगल्याः स्वारूढवरवाहनाः । तां यागभूमि गच्छेयुः सयज्ञांगपरिच्छदाः १६५४ अभीष्टसिद्धिरस्त्वेवं वादिन्याः पथि सुस्त्रियाः। पाणिपात्रात्फलादींद्रो गृह्णीयाच्छकुनेच्छया। चैत्यालयप्रवेशादिविधि प्राग्वद्विधाय ते । कृत्वा गुरोबृहत्सिद्धयोगभक्ती तदाज्ञया ॥१६७॥ विधोपवासमादाय बृहदाचार्यभक्तितः। प्रणम्य चरणद्वन्द्वं तस्य गृह्णीयुराशिषः ॥१६८ ॥
इति उपवासादानविधानम् । हितकारी भोजन करावें तथा आप भी जीमें ॥१६४॥ पुनः मंगलदीपकसे आरती किये | हे गये तथा अपनी २ उत्तम हाथी घोडा आदि सवारियोंपर बैठे हुए यज्ञांग और परिवार ||
सहित वे इंद्रादिक उस यज्ञभूमिके पास जावें ॥१६५॥ मनो वांछित अर्थकी सिद्धि हो ऐसा रस्तेमें कहतीं हुई सौभाग्यवती स्त्रियोंके हाथसे शुभ शकुन होनेकी इच्छा करके फल लेवें । ॥१६६ ॥ वे इंद्रादिक चैत्यालयप्रवेश, परिक्रमा देना, ईयापथ शोधन, स्तुति पूजा इत्यादि विधि पहलेकी तरह करके गुरुकी आज्ञासे वृहत् सिद्ध भक्ति योग भक्ति करें ॥ १६७ ॥ फिर जलके छोडनेके सिवाय तीन प्रकार त्यागरूप उपवास करके तथा वृहत् आचार्य भक्ति करके गुरूके चरणकमलोंको नमस्कार करें और उनका आशीर्वाद ग्रहण करें ॥१६८॥ इस प्रकार उपवास ग्रहणविधि कही । इस प्रकार वे इंद्रादिक अपनी शुद्धिके लिये एकांतमें ? मंत्रस्नानादि करके पंच नमस्कार मंत्र एकसौ आठ वार जपें। उसके ॐ ह्रां आदि निसीही