________________
984
त्रयोदशांगुलोद्देशे तुर्यवेद्यास्तु कारयेत् । हस्तमात्राणि पीठानि दिवन्यासां यथोचितम् १५४ प्राग्मंडपसमं वेदीकणिमात्राध्वसंगतम् । ईशानदिशि निर्माप्य मंडपं तत्र कारयेत् ॥ १५५ ॥ वेदीं तस्यैव चार्धेन त्रिभागेणाथवा मिताम् । भांडद्धास्तोरणाद्यैश्च भूषयेन्मूलवेदिवत् १५६ इति उत्तरवेदीनिवर्तनं ।
चाहिये ॥ १५३ ॥ ओं क्ष्रां इत्यादि टिप्पणीमें मंत्र देखलेना । इस प्रकार वेदी लेपनकी विधि | जानना | ईशानकोणकी वेदीको छोड़कर सातवेदियोंके आगे तेरह २ अंगुल जमीन छोड़के पूर्वादि चारों दिशाओंमें जयादि आठ देवियोंके पूजनके लिये चार छोटीं वेदीं वनावे | और वीचकी वेदीसे ईशान दिशाकी तरफ छोटा मंडप वनवावे, और उस मंडपके तीसरे भाग प्रमाण उत्तर वेदी वनवावे और उसे मूलवेदी की तरह ध्वजा छत्र तोरण आदिसे सजावे ॥ १५४ ॥ १५५ ॥ १५६ ॥ इस तरह उत्तरवेदाकी रचना हुई । इसके बाद वह इंद्र स्वच्छ क पड़े माला आभूषण और चंदनका लेप-इन वस्तुओंसे सजा हुआ प्रतींद्र और प्रतिष्ठा | करानेवाले दाताके साथ हाथी या घोड़े की सवारीपर चढके प्रतिष्ठाके पहले दिन सरोवर | पर जावे। जिसके साथमें, श्रेष्ठ पत्तोंसे ढके हुए दूव दही अक्षत से पूजित फलसे भरे हुए कंठमें मालायें डाले हुए मजबूत नवीन ऐसे घडोंको ऊपर रखनेवालीं सजीं हुईं प्रसन्नचित्त ऐसीं कुलीन स्त्रियां जा रहीं हो । और सब साधर्मी भाई तथा छत्र वाजे धुजा वगैरः से घिरा हुआ जगतको आश्चर्य करता वह इंद्र शांतिके लिये जौ और सरसोंको मंत्रसे मंत्रित करके
1