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गायथास्वमामेष्टिकाभिः कार्या व्याससमायतिः। वेदीव्यासपडंशोच्चा चतुरस्रेशदिकालवा।।१५१ml प्र०स०
भाल्टी ||शिलान्यासवदत्रार्थी कृत्वा पंचाममृद्धटान् । आक्रमंतीष्टिकाभिर्यद्गतानुगतिकैव सा॥१५२॥ इति वेदीनिवर्तनम्।
अ०१ हापूतमृद्गोमयक्षीरवृक्षत्वकाथहस्तया। समाय॑ प्रोक्ष्य लेप्यासौ स्नातालंकृतकन्यया ॥१५३॥
इति वेदीलेपनविधानम् । मध्यका भाग पवित्र करके उसकी आठों दिशाओंमें नंदा १ सुनंदा २ प्रभा ३ सुप्रभा || ४ मंगला ५ कुमुदा ६ पुंडरीका ७ इंद्रावेदी ८-इस तरह आठ वेदी एक हाथ चौड़ाईस लेकर आठहाथ तक मंडपके अनुसार कच्ची ईटोंसे वनवावे, चौड़ाई के समान लंबाई रक्खे,
चौड़ाईसे छठे भाग उंचाई रक्खे तथा ईशानकोणमें कुछ नीची रक्खे-इस प्रकार चौकौंन । हवेदीं वनवावे ॥१५० ॥१५१ ॥ यहांपर शिला रखनेकी तरह पूजा करे और पांच कच्चे ॥ मिट्टीके घड़े रक्खे ॥ यह पांच घड़े रखनेकी रीति परंपरासे जानना ॥१५२ ॥ इस प्रकार । मावदी वनानेकी विधि पूर्ण हुई । अब वेदीके लीपनेकी विधि कहते हैं-नदीके किनारेकी W/वामी आदिकी पवित्र मट्टी, पृथ्वीपर नहीं गिरा हुआ पवित्र गोवर और ऊमर आदि वृक्षोंकी छालका वनाया काढा-इन तीनोंको हाथमें लियें स्नान आभूषणसे तयार ऐसी कन्याओंसे उस वेदीको झड़वाकर और प्रोक्षणमंत्रपूर्वक जलसे छिड़कवाकर लिपवाना || १ ओं क्षा क्षीं छू ा क्षः प्रोक्षणजलाभिमंत्रणम् ।
॥१७॥