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प्र०सा० सज्जयित्वोपकरणान्याचार्यः कार्यसिद्धये। कृत्वा शांतिविधानं च सूत्रयेन्मंडपादिकम्॥१४३॥
खोतेऽधःशोधिते पूर्णे समीकृत्य पवित्रिते। भूभागेऽहन्मृजांभोभिश्चारुक्षीरदुदारुभिः ॥१४४॥ शुभह्नि मंडपं चित्रवस्त्रच्छन्नं विधापयेत् । व्यादित्रिवद्धिष्णुचतुर्विंशत्यंतकरप्रमम् ॥ १४५॥ प्रोल्लसच्छल्लकीरंभास्तंभध्वजदलस्रजम् । चतुर्दारोलकोणस्थशुभ्रकुंभाष्टकोद्भटम् ॥ १४६॥ है उसके अनुसार ही संक्षेपसे प्रतिष्ठाविधि करनी चाहिये ॥ १४२ ॥ इसप्रकार इंद्रप्रतिष्ठाविधि समाप्त हुई । अब मंडप आदि वनानेकी विधि कहते हैं-प्रतिष्ठाचार्य सब सामग्री|| तयार करके मंडपादिकी निर्विघ्न रचना समाप्तिके लिये लघु या वृहत् शांतिविधान करके मंडप वेदी आदिकी रचना करावे ॥ १४३ ॥ वह इसतरह है कि पहले तो जमीन खुदावे पीछे उसे सोधकर मट्टीसे भरके समतल करे फिर अहंत प्रतिमाके गंधोदकसे छिडके। उसके बाद । सुंदर-ऊपरसे सूखा कीडे आदिसे नहीं खाया हुआ ऐसा जो उदुम्बर पीपल आदि क्षीरवृक्ष ?
उसकी लकडीसे तथा पांचरंगोंवाले वस्त्रसे शुभ मुहूर्तमें मंडफ तयार करावे और कमसे कम तीन हाथका मंडप होना चाहिये और एक हाथकी वेदी वननी चाहिये । यह संक्षेप विधि करनेमें जानना । और अधिक विधि करनी हो तो तीन तीन हाथ वढाते जाना अर्थात छह हाथका मंडप और दो हाथकी वेदी करना । इसतरह सबसे अधिक चौवीस हाथका मंडफ
और आठ हाथकी वेदी बनाना चाहिये। ग्रह विस्तार विधि करनेके समय जानना ॥१४४॥|2| ॥१४५॥ उस मंडफमें सल्लकी वृक्ष और केलाके वृक्षके खंभे हों, धुजा हरे पत्तोंकी माला