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Ka याजका यष्टवत्सर्वे श्रावकैरपरैरपि। संभाव्या भक्तितः संघोप्याराथ्यो धर्मकाम्यया॥१३९॥
दातृसंघनृपादीनां शांत्य स्नात्वा समाहिताः।शांतिमंत्रैर्जपं होमं कुर्युरिंद्रा दिने दिने ॥१४०॥ देशकालानुसारेण व्यासतो वा समासतः । कुर्वन् कृत्स्ना क्रियां शक्रो दातुश्चित्तं न दूषयेत् ।। यथोक्तनिगदद्रव्यैः प्रयुक्तैर्षासतः क्रिया । मंत्रमात्रयथाप्राप्तद्रव्यैश्चेष्टा समासतः ॥१४२॥
इति इंद्रप्रतिष्टा। वह क्षमा करें और याचकों ( मांगनेवाले ) से ऐसा कहे कि तुमको इच्छित दान देनेकी | मुझमें शक्ति नहीं है ॥ १३८॥ अन्य श्रावक भी उस यजमानकी प्रशंसा करें कि तुमने बहुत अच्छा किया और यह यजमान भी धर्मकी इच्छा रखता हुआ आये हुए सव साधर्मियोंका भक्तिपूर्वक सत्कार करे ॥ १३९ ॥ वे इंद्र प्रतींद्र भी दाता, श्रावकसंघ और राजा आदिको शांति ( सुख ) मिलनेके लिये प्रतिदिन स्नानकरके शांतिमंत्रोंसे जप और होम अवश्य करें । ॥ १४० ॥ वह इंद्र देश और कालका विचार करके विस्तारसे या संक्षेपसे सब प्रतिष्ठाकी क्रियाओंको इसतरह करे कि जिसमें दाता (यजमान) का दिल न दुःखी हो अर्थात् दाताका
उत्साह नष्ट न हो और न क्रोध ( गुस्सा ) उत्पन्न हो ॥१४१॥ यदि शास्त्रमें विस्तारसे हकही हुई सब चीजोंके लानेमें खर्च करनेकी सामर्थ्य हो तब तो विस्तारसे प्रतिष्ठाविधि करे||३|
अगर उसमें अधिक खर्च करनेकी शक्ति न हो तो शक्तिके माफिक जितना खर्च करसके ?