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प्र० सा०
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परमेष्टिश्रुतगुरूनेव वंदेत वर्जयेत् । साधर्मिक सजातीयैरपि पंक्तिं च भोजने ॥ १३४ ॥ तदा प्रभृति यष्टापि ब्रह्मयाजकवच्चरेत् । आयज्ञांतं विशेषेण तदाज्ञां च न लंघयेत् ॥ १३५ ॥ | प्रतिष्ठासूचकैर्लेखैः संघ देशांतरादपि । आकारयेद् व्रजेद् द्रष्टुं तां संघोपि यथाबलम्॥। १३६ ।। | वेदीनिवेशादारभ्य यावद्यज्ञांतमात्मवान् । धर्मकारी गुणौचित्यकृपादानपरो भवेत् ॥ १३७॥ | गर्भरूपो विनेयोस्मीत्याक्षिप्तो गुरुभिर्वदेत् । आक्रुष्टो याचकैश्चेष्टदाने वोस्मि कियानिति ।। १३८|| भावनाओंमे ( विचारोंमें ) लीन हुआ एकांत जगह में सोवे और त्रेसठ शलाका पुरुषोंके | चरित्रका स्वाध्याय तथा शुभ ध्यानमें लीन रहे ॥ १३३॥ पंच परमेष्ठी जैन शास्त्र जैन गुरुओंको ही नमस्कार करे । और अपनी जातिके साधर्मियोंके साथ भी एक पंक्ति में बैठकर भोजन न करे॥ १३४ ॥ उसी समय से वह यजमान भी प्रतिष्ठाचार्यकी तरह एकवार भोजन ब्रह्मचर्यादिका आचरण करे और पूजाके उत्सवकी समाप्ति तक नियमसे इंद्रकी आज्ञाको पाले, उलंघन नहीं करे ॥ १३५ ॥ वह यजमान प्रतिष्ठाको जाहिर करनेवाले लेखोंसे ( कुंकुम पत्रिकाओंसे ) दूसरे देशोंसे भी सब साधर्मी भाइयोंको बुलावे । पत्रीके पहुंचते समय वे साधर्मी भाई भी अर्हतप्रतिष्ठा देखनेकेलिये शक्तिके माफिक अवश्य जावें ॥ १३६ ॥ वह यजमान वेदी प्रतिष्ठा से लेकर विंबप्रतिष्ठा तक आत्मज्ञानी होके धर्मके कार्य करता रहे और गुणी जनोंको यथायोग्य दानादि देता रहे और दुःखितोंको करुनादान दे ॥ १३७ ॥ गुरुओंके सामने ऐसा कहे कि मैं नया ही चेला हूं जो कुछ भूल हो
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