Book Title: Prashamrati
Author(s): Umaswati, Umaswami, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 12
________________ प्रशमरति के कारण दुर्बल बना हुआ, (९) दीन बना हुआ, (१०) विषय सुखों में आसक्त बना हुआ [विषय सुखों की तीव्र अभिलाषाओं से युक्त] जीव कषायवक्तव्यता को प्राप्त होता है अर्थात् क्रोधी-मानी-मायावी एवं लोभी कहलाता है ॥२३॥ स क्रोधमानमायालोभैरतिदुर्जयैः परामृष्टः। प्राप्नोति याननर्थान् कस्तानुद्देष्टमपि शक्तः ? ॥२४॥ अर्थ : अतीव दुर्जय ऐसे क्रोध-मान-माया और लोभ से पराभूत बनी हुई आत्मा जिन-जिन आपत्तियों-अनर्थों का शिकार बनती है, उन आपत्तियों को नाममात्र से कहने में भी कौन समर्थ है ? ॥२४॥ क्रोधात् प्रीतिविनाशं मानाद् विनयोपघातमाप्नोति । शाठ्यात् प्रत्ययहानिः, सर्वगुणविनाशनं लोभात् ॥२५॥ अर्थ : क्रोध से प्रीति का नाश होता है, मान से विनय को हानि पहुँचती है, माया से विश्वास को धक्का लगता है और लोभ से सभी गुणों का नाश होता है ॥२५॥ क्रोधः परितापकरः सर्वस्योद्वेगकारकः क्रोधः। वैरानुषङ्गजनकः क्रोधः क्रोधः सुगतिहन्ता ॥२६॥ अर्थ : क्रोध सभी जीवों के लिए परिताप करने वाला है, सभी जीवों को उद्वेग देता है, वैर का अनुबंध पैदा करता है और सुगति-मोक्ष का नाश करता है ॥२६॥

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