Book Title: Prashamrati
Author(s): Umaswati, Umaswami, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

View full book text
Previous | Next

Page 70
________________ प्रशमरति ६९ सम्यग्दृष्टेर्ज्ञानं सम्यग्ज्ञानमिति नियमतः सिद्धम् । आद्यत्रयमज्ञानमपि भवति मिथ्यात्वसंयुक्तम् ॥२२७॥ अर्थ : सम्यग्दृष्टि का ज्ञान सम्यग्ज्ञान कहा जाता है, यह नियम से सिद्ध है। प्रारम्भ के तीन ज्ञान, मति, श्रुत व अवधि, मिथ्यात्व से संयुक्त हो तब मिथ्या बनते हैं ॥२२७॥ [अज्ञान बनते है] सामायिकमित्याद्यं छेदोपस्थापनं द्वितीयं तु । परिहारविशुद्धिः सूक्ष्मसम्परायं यथाख्यातम् ॥२२८॥ अर्थ : पहला सामायिक, दूसरा है छेदोपस्थानपनीय, तीसरा परिहारविशुद्धि, चौथा सूक्ष्मसंपराय एवं पाँचवा है यथाख्यात ॥२२८॥ इत्येतत् पञ्चविधं चारित्रं मोक्षसाधनं प्रवरम्। नैकेरनुयोगनयप्रमाणमार्गः समनुगम्यम् ॥२२९॥ अर्थ : इस तरह ये पाँच प्रकार के चारित्र मोक्ष के प्रधान (प्रमुख) कारण हैं । उसे [चारित्र को] अनेक तरह के अनुयोग, नय एवं प्रमाणों से भलीभांति जानना चाहिए ॥२२९॥ सम्यक्त्वज्ञानचारित्रसंपदः साधनानि मोक्षस्य । तास्वेकतराऽभावेऽपि मोक्षमार्गोऽप्यसिद्धिकरः ॥२३०॥ अर्थ : सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यग्चारित्ररूप

Loading...

Page Navigation
1 ... 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98