Book Title: Prashamrati
Author(s): Umaswati, Umaswami, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 68
________________ ६७ प्रशमरति योगः शुद्धः पुण्यास्रवस्तु पापस्य तद्विपर्यासः । वाक्कायमनोगुप्तिर्निराश्रवः संवरस्तूक्तः ॥२२०॥ ___अर्थ : शुद्ध योग पुण्य का आश्रव है । अशुद्ध योग पाप का आस्रव है। मन वचन काया की गुप्ति निरास्त्रव है, अर्थात् वह संवर कहलाता है ॥२२०॥ संवृततपउपधानं तु निर्जरा कर्मसन्ततिर्बन्धः। बन्धवियोगो मोक्षस्त्विति संक्षेपान्नव पदार्थाः ॥२२१॥ अर्थ : संवर से युक्त जीवात्मा का तप-उपधान निर्जरा, कर्मों की संतति बंध, बंध का वियोग (अभाव) मोक्ष । इस तरह संक्षेप में नौ पदार्थ (तत्व) बतलाये गये हैं ॥२२१॥ एतेष्वध्यवसायो योऽर्थेषु विनिश्चयेन तत्त्वमिति । सम्यग्दर्शनमेतच्च तन्निसर्गादधिगमाद्वा ॥२२२॥ अर्थ : इन जीव वगैरह पदार्थों में परमार्थ से “यही तत्त्व है," ऐसा अध्यवसाय होता है, वह सम्यग्दर्शन है। यह सम्यग्दर्शन स्वाभाविक रूप में या अधिगम से-बाह्यनिमित्त से होता है ॥२२२॥ शिक्षागमोपदेशश्रवणान्येकाथिकान्यधिगमस्य । एकार्थः परिणामो भवति निसर्गः स्वभावश्च ॥२२३॥ अर्थ : शिक्षा, आगम, उपदेश, श्रवण-ये अधिगम के

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