Book Title: Prashamrati
Author(s): Umaswati, Umaswami, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 84
________________ प्रशमरति संहरति पञ्चमे त्वन्तराणि मन्थानमथ पुनः षष्ठे। सप्तमके तु कपाटं संहरति ततोऽष्टमे दण्डम् ॥२७५॥ अर्थ : पाँचवें समय में मन्थान के अन्तराल के प्रदेशों को दूर करता है [संकुचित बनाता है] छठे समय में मन्थान को संहरित करता है, सातवें समय में कपाट को और आठवें समय में दण्ड को संहरित करता है ॥२७५॥ औदारिकप्रयोक्ता प्रथमाष्टमसमययोरसाविष्टः । मिश्रौदारिकयोक्ता सप्तम-षष्ठ-द्वितीयेषु ॥२७६॥ अर्थ : पहले और आठवें समय में वह [केवलज्ञानी] औदारिक योगयुक्त इष्ट है [होता है], सातवें, छठे व दूसरे समय में वह मिश्र-औदारिक योगयुक्त इष्ट है [होता है] ॥२७६॥ कार्मणशरीरयोगी चतुर्थके पञ्चमे तृतीये च। समयत्रयेऽपि तस्मिन् भवत्यनाहारको नियमात् ॥२७७॥ अर्थ : चौथे, पाँचवें और तीसरे समय में वह [केवलज्ञानी] कार्मणकाययोग वाला होता है और इन तीन समय में वे अवश्यमेव अनाहारक होते हैं ॥२७७।। स समुद्घातनिवृत्तोऽथ मनोवाक्काययोगवान् भगवान् । यतियोग्ययोगयोक्ता योगनिरोधं मुनिरुपैति ॥२७८॥ अर्थ : मन-वचन-काया के योग वाले केवलज्ञानी

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