Book Title: Prashamrati
Author(s): Umaswati, Umaswami, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 89
________________ प्रशमरति अर्थ : शरीर का बन्धन त्यागकर और आठ कर्मो का क्षयकर वह [मुक्तात्मा] यहाँ पर रुकती नहीं है, चूंकि रुकने का कोई कारण नहीं होता है, न ही कोई आश्रय होता है, न कोई व्यापार [क्रिया] होता है ॥२९२॥ ८८ नाधो गौरवविगमादशक्यभावाच्च गच्छति विमुक्तः । लोकान्तादपि न परं प्लवक इवोपग्रहाभावात् ॥२९३॥ अर्थ : गुरुता [ भार-वजन] नष्ट हो जाने से, अशक्य भाव के कारण वह [आत्मा] नीचे नहीं जाती है । उपग्रहकारी [धर्मास्तिकाय ] के अभाव में लोकान्त के ऊपर भी नहीं जाती है... जहाज की भांति ॥ २९३ ॥ योगप्रयोगयोश्चाभावात्तिर्यग् न तस्य गतिरस्ति । सिद्धस्योर्ध्वं मुक्तस्यालोकान्ताद्गतिर्भवति ॥ २९४॥ अर्थ : योग एवं क्रिया का अभाव होने से मुक्तात्मा तिरछी भी नहीं जाती है । अतः मुक्त हुई सिद्ध आत्मा की लोकान्त तक ही उर्ध्वगति होती है ।। २९४ || पूर्वप्रयोगसिद्धेर्बन्धच्छेदादसङ्गभावाच्च । गतिपरिणामाच्च तथा सिद्धस्योर्ध्वं गतिः सिद्धा ॥ २९५ ॥ अर्थ : [ इस तरह ] पूर्वप्रयोगसिद्ध होने के कारण, कर्मबन्ध का नाश होने से, असंगभाव होने के कारण और उर्ध्वगमन का स्वभाव होने से सिद्ध आत्मा की उर्ध्वगति

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