Book Title: Prashamrati
Author(s): Umaswati, Umaswami, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 94
________________ प्रशमरति अर्थ : इस तरह उत्तरगुणों से [मूलगुणों से भी] समृद्ध अणगार एवं गृहस्थ प्रशमरति का स्वर्ग-अपवर्ग रूप शुभ फल प्राप्त करते हैं ॥३१०॥ जिनशासनार्णवादाकृष्टां धर्मकथिकामिमां श्रुत्वा। रत्नाकरादिव जरत्कपर्दिकामुद्धृतां भक्त्या ॥३११॥ __ अर्थ : समुद्र में से निकाली हुई जीर्ण कौड़ी जैसी, जिनशासनरूप समुद्र में से उद्धृत इस धर्मकथा को [प्रशमरति को] भक्तिभाव से सुनकर ॥३११॥ सद्भिर्गुणदोषज्ञैर्दोषानुत्सृज्य गुणलवा ग्राह्याः। सर्वात्मना च सततं प्रशमसुखायैव यतितव्यम् ॥३१२॥ ___अर्थ : गुणदोष के ज्ञाता सज्जनों को, दोषों को छोड़कर थोड़े भी गुणों को ग्रहण करने चाहिए और प्रशमसुख के लिए हमेशा सभी तरह के विशेष प्रयत्न करने चाहिए ॥३१२॥ यच्चासमंजसमिह छन्दःशब्दसमयार्थतोऽभिहितम् । पुत्रापराधवन्मममर्षयितव्यं बुधैः सर्वम् ॥३१३॥ अर्थ : इस प्रशमरति में मैंने जो कुछ भी छन्दशास्त्रशब्दशास्त्र और आगम अर्थ की दृष्टि से असंगत या विसंगत कहा हो उसके प्रवचनवृद्धजनों को, पुत्र के अपराध को जैसे

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