________________
प्रशमरति
पूजा करता है ॥३०६॥ प्रशमरतिनित्यतृषितो जिन-गुरु-साधुजनवन्दनाभिरतः । संलेखनां च काले योगेनाराध्य सुविशुद्धाम् ॥३०७॥
अर्थ : प्रशमभाव की प्रीति में सदा प्यासा, तीर्थंकरआचार्य-साधुपुरुषों के वंदन में अभिरत, मृत्युसमय में सुविशुद्धि संलेखना की ध्यान से आराधना करता है ॥३०७॥ प्राप्तः कल्पेष्विन्द्रत्वं वा सामानिकत्वमन्यद्वा । स्थानमुदारं तत्रानुभूय च सुखं तदनुरूपम् ॥३०८॥
अर्थ : [वह गृहस्थ] सौधर्म वगैरह देवलोक में इन्द्रपदवी, सामानिक देवपदवी या अन्य कोई विशिष्ट देवत्व प्राप्त करता है। वहाँ उस स्थान के अनुरुप सुखभोग करके ॥३०८॥ नरलोकमेत्य सर्वगुणसम्पदं दुर्लभां पुनर्लब्ध्वा । शुद्धः स सिद्धिमेष्यति भवाष्टकाभ्यन्तरे नियमात् ॥३०९॥
अर्थ : मनुष्य लोक में जन्म लेकर, फिर से दुर्लभ सर्वगुणों की संपत्ति को प्राप्त करके, शुद्ध-बुद्ध हुई वह आत्मा मोक्ष में जाती है। आठ भव में तो वह अवश्यमेव सिद्धि प्राप्त करती है ॥३०९॥ इत्येवं प्रशमरतेः फलमिह स्वर्गापवर्गयोश्च शुभम् । सम्प्राप्यतेऽनगारैरगारिभिश्चोत्तरगुणाढ्यैः ॥३१०॥