Book Title: Prashamrati
Author(s): Umaswati, Umaswami, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 91
________________ प्रशमरति सिद्धि [अनुत्तर देवलोक] तक के किसी भी देवलोक में महान ऋद्धिवाला, द्युति [तेज] वाला और महान शरीरवाला वैमानिक देव बनता है ॥२९९॥ तत्र सुरलोकसौख्यं चिरमनुभूय स्थितिक्षयात् तस्मात् । पुनरपि मनुष्यलोके गुणवत्सु मनुष्यसंघेषु ॥३००॥ अर्थ : वहाँ दीर्घकालपर्यन्त देवलोक का सुख भोगकर, आयुष्य का क्षय होने पर, फिर से मनुष्यलोक में गुणवान मनुष्य-परिवार में ॥३००॥ जन्म समवाप्य कुलबन्धुविभवरुपबलबुद्धिसम्पन्नः । श्रद्धा-सम्यक्त्व-ज्ञान-संवर-तपोबलसमग्रः ॥३०१॥ अर्थ : जन्म पाकर कुल, स्वजन, संपत्ति, रुप, बल और बुद्धि से संपन्न होता है एवं श्रद्धा, सम्यक्त्व, ज्ञान, संवर और तपोबल से पूर्ण होता है ॥३०१॥ पूर्वोक्त भावनाभि वितान्तरात्मा विधूतसंसारः । सेत्स्यति ततः परं वा स्वर्गान्तरितस्त्रिभवभावात् ॥३०२॥ अर्थ : पहले कही गयी बारह भावनाओं से भावित वह अन्तरात्मा संसार का त्यागी बनता है । इसके बाद बीच में देवलोक में जाकर तीसरे भव में [मनुष्य के भव में] वह मुक्ति को प्राप्त करेगा ॥३०२॥

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