Book Title: Prashamrati
Author(s): Umaswati, Umaswami, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 90
________________ प्रशमरति सिद्ध होती है ॥२९५॥ देहमनोवृत्तिभ्यां भवतः शारीरमानसे दुःखे। तदभावात्तदभावे सिद्धं सिद्धस्य सिद्धिसुखम् ॥२९६॥ अर्थ : देह एवं मान के सद्भाव से शारीरिक व मानसिक दुःख होता है । शरीर और मन के अभाव से सिद्धात्मा का सिद्धसुख सिद्ध होता है ॥२९६।। यस्तु यतिर्घटमानः सम्यक्त्वज्ञानशीलसम्पन्नः । वीर्यमनिगूहमानः शक्त्यनुरूपप्रयत्नेन ॥२९७॥ अर्थ : जो साधु सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र से सम्पन्न होता है, अपनी शक्ति को छुपाये वगैर शक्ति के अनुसार जो प्रवचनोक्त संयम के पालन में प्रयत्नशील रहता है ॥२९७॥ संहननायुर्बलकालवीर्यसम्पत्समाधिवैकल्यात् । कर्मातिगौरवाद्वा स्वार्थमकृत्वोपरममेति ॥२९८॥ अर्थ : [परन्तु] संघयण, आयुष्य, बल, काल, वीर्य, संपत्ति, चित्तस्वस्थता की विकलता के कारण एवं कर्मों की प्रचुरता [निकाचित कर्म] के कारण स्वार्थ [सकल कर्मक्षय] साधे बिना मर जाता है ॥२९८।। सौधर्मादिष्वन्यतमकेषु सर्वार्थसिद्धिचरमेषु । स भवति देवो वैमानिको महद्धिद्युतिवपुष्कः ॥२९९॥ अर्थ : वह साधु सौधर्म देवलोक से लेकर सर्वार्थ

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